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दरअसल: किताब के रूप में 3 इडियट्स की मूल पटकथा

-अजय ब्रह्मात्‍मज विधु विनोद चोपड़ा ने एक और बढि़या काम किया। उन्होंने 3 इडियट्स की मूल पटकथा को किताब के रूप में प्रकाशित किया है। मूल पटकथा के साथ फिल्म के लेखक और स्टारों की सोच और बातें भी हैं। अगर कोई दर्शक, फिल्मप्रेमी, फिल्म शोधार्थी 3 इडियट्स के बारे में गहन अध्ययन करना चाहता है, तो उसे इस किताब से निश्चित रूप से मदद मिलेगी। 20-25 साल पहले हिंद पॉकेट बुक्स ने गुलजार और राजेन्द्र सिंह बेदी की लिखी पटकथाओं को किताबों के रूप में छापा था। उसके बाद पटकथाएं छपनी बंद हो गई। पाठक और दर्शकों को लग सकता है कि प्रकाशकों की पटकथाओं में रुचि खत्म हो गई होगी। सच्चाई यह है कि एक लंबा दौर ऐसी हिंदी फिल्मों का रहा है, जहां कथा-पटकथा जैसी चीजें होती ही नहीं थीं। यकीन करें, हिंदी फिल्मों में फिर से कहानी लौटी है। पटकथाएं लिखी जा रही हैं। उन्हें मुकम्मल करने के बाद ही फिल्म की शूटिंग आरंभ होती है। इधर हिंदी सिनेमा पर चल रहे शोध और अध्ययन का विस्तार हुआ है। लंबे समय तक केवल अंग्रेजीदां लेखक और पश्चिम के सौंदर्यशास्त्री और लोकप्रिय संस्कृति के अध्येता ही हिंदी फिल्मों पर शोध कर रहे थे। उनकी छिटपुट क

कामयाबी तो झ;ा मार का पीछे आएगी-राज कुमार हिरानी

-अजय ब्रह्मात्‍मज युवा पीढ़ी के संवेदनशील निर्देशक राज कुमार हिरानी की फिल्म '3 इडियट' 25 दिसंबर को रिलीज हो रही है। उनकी निर्देशन प्रक्रिया पर खास बातचीत- [फिल्मों की योजना कैसे जन्म लेती है? अपनी फिल्म को कैसे आरंभ करते हैं आप?] मेरी फिल्में हमेशा किसी थीम से जन्म लेती हैं। मुन्नाभाई एमबीबीएस के समय विचार आया कि डाक्टरों के अंदर मरीज के प्रति करुणा हो तो बीमारियों का इलाज आसान होगा। लगे रहो मुन्नाभाई के समय मैंने गांधीगिरी की प्रासंगिकता का थीम लिया। 3 इडियट में मैं कहना चाहता हूं कि आप कामयाबी के पीछे न भागें। काबिलियत के पीछे भागें तो कामयाबी के पास कोई चारा नहीं होगा, वह झख मार कर आएगी। [क्या पहले एक्टर के बारे में सोचते हैं और फिर कैरेक्टर डेवलप करते हैं या पहले कैरेक्टर गढ़ते हैं और फिर एक्टर खोजते हैं?] मैं स्क्रिप्ट लिखने के बाद एक्टर के बारे में सोचता हूं। सिर्फ थीम पर फिल्म बनेगी तो बोरिंग हो जाएगी, कैरेक्टर उसे इंटरेस्टिंग बनाते हैं, फिर माहौल और उसके बाद सीन बनते हैं। स्क्रिप्ट लिखने की राह में जो दृश्य सोचे जाते हैं, उनमें से कुछ अंत तक जाते हैं और कुछ मर जाते हैं

पक्का इडियट का इकबालिया बयान

साताक्रूज में स्थित विधु विनोद चोपड़ा के दफ्तर की पहली मंजिल का विशाल कमरा...दरवाजे के करीब तीन कुर्सियों के साथ लगी है छोटी-सी टेबल और उसके ठीक सामने रखा है आधुनिक शैली का सोफा। लाल टीशर्ट,जींस और स्लीपर पहने आमिर कमरे में प्रवेश करते हैं। उनके हाथों में मोटी-सी किताब है। [दिल से चुनता हूं फिल्में] फिल्म साइन करते समय यह नहीं सोचता हूं कि मुझे यूथ से कनेक्ट करना है या कोई मैसेज देना है। फिल्म की कहानी सुनते समय मैं सिर्फ एक आडियंस होता हूं। देखता हूं कि कहानी सुनते समय मुझे कितना मजा आया? मजा अलग-अलग रीजन से आ सकता है। या तो बहुत एंटरटेनिंग कहानी हो या इमोशनल कहानी हो या फिल्म कोई ऐसी चीज कह रही हो, जो सोचने पर मजबूर कर रही हो। मतलब यह है कि कहानी सुनते समय मेरा पूरा ध्यान उसी में घुसा रहे। केवल उसी के लिए हा करता हूं जिसकी कहानी मेरे दिल को छू लेती है। ['सरफरोश' के बाद का सफर] पिछले दस सालों के अपने करिअर का रिव्यू करने पर मैं पाता हूं कि मेरी सारी फिल्में एक्सपेरिमेंटल किस्म की हैं। मेनस्ट्रीम से अलग हैं। अगर सोच-समझ कर फैसला लेता तो मैं ये फिल्में कर ही नहीं पाता। मैं अपने

पहली सीढ़ी:राज कुमार हिरानी से अजय ब्रह्मात्मज की baatcheet

'पहली सीढ़ी' निर्देशकों के इंटरव्यू की एक सीरिज है। मेरी कोशिश है कि इस इंटरव्यू के जरिए हम निर्देशक के मानस को समझ सकें। पहली फिल्म की रिलीज के बाद हर निर्देशक की गतिविधियां पत्र-पत्रिकाओं और टीवी चैनल के माध्यम से दुनिया के सामने आ जाती हैं। हम पहली फिल्म के पहले की तैयारियों में ज्यादा नहीं जानते। आखिर क्यों कोई निर्देशक बनता है और फिर अपनी महत्वाकांक्षा को पाने के लिए उसे किन राहों, अवरोधों और मुश्किलों से गुजरना पड़ता है। आम तौर पर इस पीरियड को हम 'गर्दिश के दिन' या 'संघर्ष के दिन' के रूप में जानते हैं। वास्तव में यह 'गर्दिश या 'संघर्ष से अधिक तैयारी का दौर होता है, जब हर निर्देशक मिली हुई परिस्थिति में अपनी क्षमताओं के उपयोग से निर्देशक की कुर्सी पर बैठने की युक्ति में लगा होता है। मेरी कोशिश है कि हम सफल निर्देशकों की तैयारियों को करीब से जानें और उस अदम्य इच्छा को पहचानें जो विपरीत स्थितियों में भी उन्हें भटकने, ठहरने और हारने से रोकती है। सफलता मेहनत का परिणाम नहीं होती। अनवरत मेहनत की प्रक्रिया में ही संयोग और स्वीकृति की कौंध है सफलता... क्यों