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हिंदी सिनेमा में खलनायक-मंजीत ठाकुर

मंजीत ठाकुर हिंदी फिल्मों का एक सच है कि अगर नायक की को बड़ा बनाना हो तो खलनायक को मजबूत बनाओ। उसे नायक जैसा बना दो। यह साबित करता है कि रामायण और महाभारत केवल राम और कृष्ण की वजह से ही नहीं, रावण और दुर्योधन की वजह से भी असरदार हैं। हिंदुस्तानी सिनेमा के पहले दशक में धार्मिक कथाओं और किंवदंतियों पर सारी फ़िल्में बनीं। इन कथाओं के नायक देव थे और खलनायक राक्षसगण। हिंदुस्तानी सिनेमा में गांधी जी असर बेहद खास था और शायद इसी वजह से पहले चार दशक तक खलनायक बर्बर नहीं थे और उनके चरित्र भी सुपरिभाषित नहीं थे। उस दौर में प्रेम या अच्छाई का विरोध करने वाले सामाजिक कुप्रथाओं और अंधविश्वासग्रस्त लोग थे। ‘ अछूत कन्या ’ में प्रेम-कथा के विरोध करने वाले जाति प्रथा में सचमुच विश्वास करते थे। इसीतरह महबूब खान की ‘ नज़मा ’ में पारंपरिक मूल्य वाला मुसलिम ससुर परदा प्रथा नामंजूर करने वाली डॉक्टर बहू का विरोध करता है और 1937 में ‘ दुनिया ना माने ’ का वृद्ध विधुर युवा कन्या से शादी को अपना अधिकार ही मानता है। पचास और साठ के दशक में साहूकार के साथ दो और खलनायक जुड़े- डाकू और जमींदार। खलनायक का ये चरित्र ‘

खलनायकों के बगैर खाली है हमारी दुनिया: देवदत्त पटनायक

जरा रावण के बगैर रामायण, कंस के बगैर कृष्णलीला, शकुनि के बगैर महाभारत की कल्पना करें। खलनायक ही कथा पूरी करते हैं। देवता राक्षसों की हत्या करते रहते हैं, लेकिन वे वापस आ जाते हैं। ऐसी कोई अंतिम निर्णायक जीत नहीं होती, जिसमें खल चरित्रों का हमेशा के लिए सफाया हो जाए। नए खलनायक पैदा होते रहते हैं, इसलिए नए नायकों की जरूरत पड़ती रहती है। नए अवतार, नए देवता, नयी देवियां, नए नायक। ठीक वैसे ही जैसे कि हिंदी फिल्म इंडस्ट्री हर शुक्रवार को नए खलनायक और नए नायक ले आती है। श्वेत-श्याम फिल्मों की याद करें तो उनमें खून के प्यासे मुनीम या लोलुप बलात्कारी अवश्य रहते थे। गब्बर सिंह के बगैर हम 'शोले' की कल्पना नहीं कर सकते। मोगैंबो के बगैर 'मिस्टर इंडिया' की कल्पना नहीं की जा सकती। रणजीत, जीवन, प्राण, अमरीश पुरी जैसे अभिनेताओं ने खलनायक के तौर पर अपना कॅरिअर बनाया। शशिकला, ललिता पवार और हेलन खलनायिकाओं के तौर पर मशहूर रहीं। युग बदल गया है। हम कलयुग के नए दौर में हैं, जहां खलनायक नहीं हैं। जब नायक ही खलनायकों की भूमिकाएं करने लगें तो ऐसा लगेगा ही कि खलनायक गायब हो गए। आज रूपहले पर्दे पर

कहां गए खलनायक?

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(चवन्नी को अजय ब्रह्मात्मज का यह आलेख दशहरा के मौक़े पर थोडे अलग ढंग का लगा.चवन्नी ने अपने पाठकों के लिए इसे जागरण से लिया है।) निश्चित रूप से लोग भी यही सोच रहे होंगे कि चूंकि दशहरे का समय है और तीन दिनों के बाद बुराई के सर्वनाश के प्रतीक के रूप में रावण के पुतले जलाए जाएंगे, लेकिन क्या आपने सोचा और देखा कि हिंदी फिल्मों से रावण अब लगभग गायब हो गए हैं! कहने का तात्पर्य यह है कि हीरो तो हैं और विविध रूपों में हैं, लेकिन विलेन गायब हो गए हैं। थोड़े-बहुत कुछ फिल्मों में दिखते भी हैं, तो वे पिद्दी जैसे नजर आते हैं। सबसे पहले सूरज बड़जात्या और फिर आदित्य चोपड़ा और करण जौहर ने अपनी फिल्मों से विलेन को गायब किया। तीनों की पहली फिल्म आप याद करें, तो पाएंगे कि उनमें खलनायक है ही नहीं! दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे में पिता आरंभिक विरोध करते हैं और लगता है कि वे हीरो-हीरोइन के प्रेम में विघ्न पैदा करेंगे, लेकिन हीरोइन उनसे बगावत नहीं करती और हीरो मुकाबला नहीं करता। दोनों पिता का दिल जीतते हैं, इस कहानी में हीरोइन का मंगेतर हीरो के मुकाबले में आता है, लेकिन पूरी कहानी में उसकी जगह किसी प्यादे से ज