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मामूलीपन की भव्यता बचाने की जद्दोजहद : अनारकली ऑफ आरा

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मामूलीपन की भव्यता बचाने की जद्दोजहद : अनारकली ऑफ आरा -विनीत कुमार अविनाश दास द्वारा लिखित एवं निर्देशित फिल्म “अनारकली ऑफ आरा” अपने गहरे अर्थों में मामूलीपन के भीतर मौजूद भव्यता की तलाश और उसे बचाए रखने की जद्दोजहद है. इसे यूं कहे कि इस फिल्म का मुख्य किरदार ये मामूलीपन ही है जो शुरु से आखिर तक अनारकली से लेकर उन तमाम चरित्रों एवं परिस्थितियों के बीच मौजूद रहता है जो पूरी फिल्म को मौजूदा दौर के बरक्स एक विलोम ( वायनरी) के तौर पर लाकर खड़ा कर देता है. एक ऐसा विलोम जिसके आगे सत्ता, संस्थान और उनके कल-पुर्जे पर लंपटई, बर्बरता और अमानवीयता के चढ़े प्लास्टर भरभरा जाते हैं.  एक स्थानीय गायिका के तौर पर अनारकली ने अपनी अस्मिता और कलाकार की निजता( सेल्फनेस) को बचाए रखने के लिए जो संघर्ष किया है, वह विमर्श के जनाना डब्बे में रखकर फिल्म पर बात करने से रोकती है. ये खांचेबाज विश्लेषण के तरीके से कहीं आगे ले जाकर हर उस मामूली व्यक्ति के संघर्ष के प्रति गहरा यकीं पैदा करती है जो शुरु से आखिर तक बतौर आदमी बचा रहना चाहता है. पद और पैसे के आगे हथियार डाल चुके समाज

बहुमत की सरकार की आदर्श फिल्म: दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे 3

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विनीत कुमार ने आदित्‍य चोपड़ा की फिल्‍म दिलवाले दुल्‍हनिया ले जाएंगे पर यह सारगर्भित लेख लिखा है। उनके विमर्श और विश्‍लेषण के नए आधार और आयाम है। चवन्‍नी के पाठकों के लिए उनका लेख किस्‍तों में प्रस्‍तुत है। आज उसका तीसरा और आखिरी अंश... -विनीत कुमार  फेल होना और पढ़ाई न करना हमारे खानदान की परंपरा है..भटिंडा का भागा लंदन में मिलिनयर हो गया है लेकिन मेरी जवानी कब आयी और चली गयी, पता न चला..मैं ये सब इसलिए कर रहा हूं ताकि तू वो सब कर सके जो मैं नहीं कर सका..- राज के पिता Xxx                                                                              xxxxxx मुझे भी तो दिखा, क्या लिखा है तूने डायरी में. मुझसे छिपाती है, बेटी के बड़ी हो जाने पर मां उसकी मां नहीं रह जाती. सहेली हो जाती है- सिमरन की मां. फिल्म के बड़े हिस्से तक सिमरन की मां उसके साथ वास्तव में एक दोस्त जैसा व्यवहार करती है, उसकी हमराज है लेकिन बात जब परिवार की इज्जत और परंपरा के निर्वाह पर आ जाती है तो “ मेरे भरोसे की लाज रखना ” जैसे अतिभावनात्मक ट्रीटमेंट की तरफ मुड़ जाता है. ऐसा कहने औऱ व्यवहार करने में ए

बहुमत की सरकार की आदर्श फिल्म: दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे 2

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विनीत कुमार ने आदित्‍य चोपड़ा की फिल्‍म दिलवाले दुल्‍हनिया ले जाएंगे पर यह सारगर्भित लेख लिखा है। उनके विमर्श और विश्‍लेषण के नए आधार और आयाम है। चवन्‍नी के पाठकों के लिए उनका लेख किस्‍तों में प्रस्‍तुत है। आज उसका दूसरा अंश...   -विनीत कुमार   ऐसा करके फिल्म ये दर्शकों का एक तरह से विरेचन करती है कि प्रेम तो अपनी जगह पर ठीक है लेकिन उस प्यार को हासिल करके आखिर क्या हो जाएगा जिसकी स्वीकृति अभिभावक से न मिल जाए.( छार उठाए लिन्हीं एक मुठी, दीन्हीं उठाय पृथ्वी झूठी)  इस संदर्भ को फिल्म समीक्षक नम्रता जोशी इस रूप में विश्लेषित करती है कि ये फिल्म दरअसल इसी बहाने दो अलग-अलग मिजाज,रुझान और पृष्ठभूमि की पीढ़ी के बीच सेतु का काम करती है. यही पर आकर पूरी फिल्म लव स्टोरी होते हुए भी प्रेमी-प्रेमिका का अभिभावकों के साथ निगोसिएशन की ज्यादा जान पड़ती है और इसी निगोएसिशन के बीच जो स्थितियां और संदर्भ बनते हैं वो अपनी बहुमत की सरकार के आदर्श सिनेमा की परिभाषा के बेहद करीब जान पड़ती है और तब राज वह युवा नहीं रह जाता जिसे अलग से संस्कारित करने की जरूरत रह जाती है बल्कि वह ऐसे नायक के रूप में

बहुमत की सरकार की आदर्श फिल्म: दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे

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विनीत कुमार ने आदित्‍य चोपड़ा की फिल्‍म दिलवाले दुल्‍हनिया ले जाएंगे पर यह सारगर्भित लेख लिखा है। उनके विमर्श और विश्‍लेषण के नए आधार और आयाम है। चवन्‍नी के पाठकों के लिए उनका लेख किस्‍तों में प्रस्‍तुत है। आज उसका पहला अंश... -विनीत कुमार हर सप्ताह ढेर सारी फिल्में रिलीज होती हैं लेकिन उनमे बमुश्किल ऐसी चीजें होती है जिनसे कि भारतीय कला और संस्कृति का प्रसार हो सके. हमारी कोशिश होगी कि हम सिनेमा के माध्यम से भारतीय संस्कृति और सामाजिक मूल्यों को बढ़ावा दें, ऐसी फिल्मों को हर तरह से प्रोत्साहित करें जिसमे आर्थिक सहयोग भी शामिल है. हमने इस पर काम करना भी शुरु कर दिया है. दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे जैसी फिल्म जिसकी कहानी भारत की महान परिवार परंपरा के इर्द-गिर्द ही घूमती है की हमें और जरूरत है.- मिथिलेश कुमार त्रिपाठी, राष्ट्रीय संयोजक, कला एवं संस्कृति प्रकोष्ठ, भारतीय जनता पार्टी 1995 में रिलीज हुई फिल्म “ दिलवाले दुल्हनियां ले जाएंगे ” के संदर्भ में यह कम दिलचस्प वाक्या नहीं है कि साल 2014 में बहुमत की सरकार बनाने जा रही  पार्टी इसे अपनी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की राजन

इरशाद कामिल : विभाग के बदले बॉलीवुड जाने का मतलब

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चवन्‍न्‍ाी के पाठकों के लिए विनीत कुमार का विशेष आलेख। इसे रचना सिंह के संपादन में निकली दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय की हस्‍तलिखित पत्रिका हस्‍ताक्षर से लिया गया है।                                             -विनीत कुमार  “ ये , ये sss     हो तुम , जिसकी लिखी चीजें छापने से संपादक मना कर दिया करते हैं. असल में तुम यही हो , वह इरशाद कामिल नहीं जिसकी तारीफ लोग करते हैं.   मेरी पत्नी ,   पत्रिकाओं से अस्वीकृत रचनाएं खासकर पहल और उस पर ज्ञानरंजन की चिठ्ठियां दिखाते हुए अक्सर कहती है. ऐसा करके खास हो जाने के गुरुर में जीने से रोकती है. वो तो फिल्मफेयर और रेडियो मिर्ची से मिले अवार्ड से कहीं ज्यादा इन अस्वीकृत रचनाओं और न छापने के पीछे की वजह से लिखी ज्ञानरंजन और दूसरे संपादकों के खत ज्यादा संभालकर रखती है. उनका बस चले तो ड्राइंगरुम में अवार्ड की जगह इन्हें ही सजाकर रक्खे ताकि दुनिया जान सके कि असल में इरशाद कामिल है क्या और उसकी हैसियत क्या है   ?   ” तब इरशाद के गिलास का रंग बदला नहीं था. हम गिलास के आर-पार सबकुछ साफ देख पा रहे थे और साथ ही उन्हें भी. उत्साह और मुस्कराहट के