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फिल्‍म समीक्षा : लक्ष्‍मी

नागेश कुकुनूर 'हैदराबाद ब्लूज' से दस्तक देने के बाद लगातार खास किस्म की फिल्म निर्देशित करते रहे हैं। बजट में छोटी, मगर विचार में बड़ी उनकी फिल्में हमेशा झकझोरती हैं। 'इकबाल' और 'डोर' जैसी फिल्में दे चुके नागेश कुकुनुर के पास अब अनुभव, संसाधन और स्रोत हैं, लेकिन फिल्म मेकिंग के अपने तरीके में वे गुणवत्ता लाने की कोशिश नहीं करते। 'लक्ष्मी' फिल्म का विचार उत्तम और जरूरी है, लेकिन इसकी प्रस्तुति और निर्माण की लापरवाही निराश करती है। चौदह साल की 'लक्ष्मी' को उसके गांव-परिवार से लाकर अन्य लड़कियों के साथ शहर में रखा जाता है। रेड्डी बंधु अपने एनजीओ 'धर्मविलास' की आड़ में कमसिन और लाचार लड़कियों की जिस्मफरोशी करते हैं। लक्ष्मी भी उनके चंगुल में फंस जाती है। फिर भी मुक्त होने की उसकी छटपटाहट और जिजीविषा प्रभावित करती है। वह किसी प्रकार उनके चंगुल से बाहर निकलती है। बाहर निकलने के बाद वह रेड्डी बंधु को उनके अपराधों की सजा दिलवाने के लिए भरे कोर्ट में फिर से लांछन और अपमान सहती है। 'लक्ष्मी' एक लड़की की हिम्मत और जोश की कहान