Posts

Showing posts from September, 2013

राम-लीला में प्रियंका चोपड़ा

Image

संवाद और संवेदना की रेसिपी और लंचबॉक्स :सुदीप्ति

यह सिर्फ 'लंचबॉक्स ' फिल्म की समीक्षा नहीं है. उसके बहाने समकालीन मनुष्य के एकांत को समझने का एक प्रयास भी है. युवा लेखिका सुदीप्ति ने इस फिल्म की संवेदना को समकालीन जीवन के उलझे हुए तारों से जोड़ने का बहुत सुन्दर प्रयास किया है. आपके लिए- जानकी पुल.से साभार और साधिकार =========================================== पहली बात: इसे‘लंचबॉक्स’ की समीक्षा कतई न समझें. यह तो बस उतनी भर बात है जो फिल्म देखने के बाद मेरे मन में आई. अंतिमबात यानी कि महानगरीय आपाधापी में फंसे लोगों से निवेदन: इससे पहले कि ज़िंदगी उस मोड़ पर लाकर खड़ा कर दे, जहाँ खुशियों का टिकट वाया भूटान लेना पड़े, कम-से-कम ‘लंचबॉक्स’ देख आईये. अंदर की बात: दरअसल कोई भी फिल्म मेरे लिए मुख्यत: दृश्यों में पिरोयी गई एक कथा की तरह है.माध्यम और तकनीक की जानकारी रखते हुए किसी फिल्म का सूक्ष्म विश्लेषण एक अलग और विशिष्ट क्षेत्र है,जानती हूँ. फिर भी कुछ फ़िल्में ऐसी होती हैं,जिन्हें देख आप जो महसूस करते हैं उसे ज़ाहिर करने को बेताब रहते है. ऐसी ही एक फिल्म है ‘लंचबॉक्स’. ‘लंचबॉक्स’ में तीन मुख्य किरदा

पन्ने से परदे तक – कहानी पिंजर और मोहल्ला अस्सी की : डॉ चंद्रप्रकाश द्विवेदी

Image
भारतीय साहित्य की दोंनों बहु चर्चित कृतियों का फिल्म के लिए लेखन कुछ आसान भी था और कठिन भी. आसान इसलिए की दोंनों के पास एक पुख्ता ज़मीन थी.कथा की.चरित्रों की.चरित्रों   के विकास और उत्थन पतन की.और कथा के प्रवाह और चरित्रों में परिवर्तन की. मुश्किल इसलिए की दोंनों की कथा का विस्तार और काल खंड विस्तृत था.दोंनों ही अपने समाज के इतिहास को अपने अंक में संजोये एक विशिष्ट काल और समाज की यात्रा पर ले जाते हैं. पहले बात पिंजर की अमृता प्रीतम की पिंजर में कथा का काल लगभग बारह साल से अधिक का है. मूल कहानी सियाम ( वर्तमान थाईलेंड ) से प्रारंभ होती है.लगभग सन १९३५ का सियाम.कहानी की नायिका पूरो (उर्मिला मातोंडकर ) के पिता (कुलभूषण खरबंदा ) अपने परिवार सहित सियाम में रहते हैं.सन १९३५ के सियाम की पुनर्रचना खर्चीला भी था और सियाम के इतिहास और स्थापत्य का मेरा अध्ययन भी नहीं था.इसलिए विचार आया कि क्यों न परिवार की स्थापना अमृतसर में की जाये.यह आसान भी था और सियाम की तुलना में कम खर्चीला.१९३५ के अमृतसर की छबियाँ भी उपलब्ध थी और ऐसे बहुत से लोगों को ढूँढा भी जा सकता था जिन्होंने उस