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मोल बढ़ा बोल का

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-अजय ब्रह्मात्‍मज बोल.. यानी शब्द। फिल्मों में शब्द गीतों और संवादों के माध्यम से दर्शकों तक पहुंचते हैं। इस साल कई फिल्मों के बोलों में दम दिखा। गीतों और संवादों में आए दमदार बोलों ने एक बार फिर से लेखकों और गीतकारों की महत्ता को जाहिर किया। हालांकि भारतीय फिल्मों के पुरोधा दादा साहब फालके मानते थे कि चित्रपट यानी फिल्म में चित्रों यानी दृश्यों पर निर्देशकों को निर्भर करना चाहिए। उन्हें संवादों और शब्दों का न्यूनतम उपयोग करना चाहिए। उनकी राय में शब्दों के उपयोग के लिए नाटक उपयुक्त माध्यम था। बहरहाल, आलम आरा के बाद फिल्मों में शब्दों का महत्व बढ़ा। मूक फिल्मों में बहुत कुछ संपे्रषित होने से रह जाता था। दर्शकों को चलती-फिरती तस्वीरों में खुद शब्द भरने होते थे। बोलती फिल्मों ने दर्शकों की मेहनत कम की और फिल्मों को अधिक मजेदार अनुभव के रूप में बदला। उपयुक्त संवादों और पा‌र्श्व संगीत के साथ दिखने पर दृश्य अधिक प्रभावशाली और यादगार बने। हिंदी फिल्मों की लगभग सौ साल की यात्रा में इसके स्वर्ण युग के दौर में गीतों और संवादों पर विशेष ध्यान दिया गया। छठे और सातवें दशक में शब्दों के जादूगर फिल्म

दिख रहा है ‘बोल’ का असर - हुमैमा मलिक

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-अजय ब्रह्मात्‍मज शोएब मंसूर की पाकिस्तानी फिल्म ‘ बोल ’ में हुमैमा मलिक ने जैनब की भूमिका निभायी है। जैनब अपने पिता से बगावत करती है। वह परिवार और परिवेश की परंपरा पर कुछ सवाल उठाती है। शोएब मंसूर की ‘ बोल ’ भारत में 31 अगस्त को रिलीज हो रही है। सप्तरंग ने इस पाकिस्तानी अदाकारा से खास बातचीत की। - शोएब मंसूर की फिल्म ‘ बोल ’ का पाकिस्तान में क्या रेस्पांस रहा है। यह फिल्म अब भारत में रिलीज हो रही है। 0 मुझे बहुत खुशी है कि हमारी फिल्म भारत में रिलीज हो रही है। शोएब मंसूर ने बेहद उम्दा फिल्म बनायी है। इस फिल्म ने पहले हफ्ते में ही ‘ माई नेम इज खान ’ और ‘ दबंग ’ के रिकार्ड तोड़े। पाकिस्तान फिल्म इंडस्ट्री के हालात बहुत अच्छी नहीं है। फिर भी अच्छा लगता है कि एक फिल्म आती है और आप को उसमें लीड एक्टर का काम मिलता है। इस फिल्म को आडिएंस का जबरदस्त रेस्पांस मिला है। प्रीमियर के बाद मैं निकली तो वहां मौजूद लोग मुझे नहीं , पर्दे पर दिखी जैनब को छूना चाहते थे। अपनी सिंपैथी दिखा रहे थे। - जैनब बहुत ही रैडिकल और बोल्ड किरदार है। वह अपने अब्बा के खिलाफ जाती है और फैमिली के हक में बड़े फैसल

फिल्‍म समीक्षा : बोल

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-अजय ब्रह्मात्‍मज पाकिस्तान से आई परतदार कहानी पाकिस्तानी फिल्मकार शोएब मंसूर की खुदा के लिए कुछ सालों पहले आई थी। आतंकवाद और इस्लाम पर केंद्रित इस फिल्म में शोएब मंसूर ने साहसी दृष्टिकोण रखा था। इस बार उनकी फिल्म बोल पाकिस्तानी समाज में प्रचलित मान्यताओं की बखिया उधेड़ती है और संवेदनशील तरीके से औरतों का पक्ष रखती है। बोल की कहानी परतदार है, इसलिए और भी पहलू जाहिर होते हैं। हिंदी फिल्मों जैसी निर्माण की आधुनिकता बोल में नहीं है, लेकिन अपने मजबूत विषय की वजह से फिल्म बांधे रखती है। पार्टीशन के समय हकीम साहब का परिवार भारत से पाकिस्तान चला जाता है। वहां उन्हें पाकिस्तान छोड़ आए किसी हिंदू की हवेली में पनाह मिलती है, जिसमें दीवारों और छतों पर हिंदू मोटिफ की चित्रकारी है। हकीम साहब ने बेटे की लालसा में बीवी को बच्चा जनने की मशीन बना रखा है। उनकी चौदह संतानों में से सात बेटियां बचती हैं। रूढि़वादी हकीम साहब अपनी बेटियों को पर्दानशीं रखते हैं। उनकी अगली संतान उभयलिंगी पैदा होती है। बदनामी के डर से वे उसे किन्नरों को नहीं देते। उसे हवेली के एककमरे में बंद कर पाला जाता है। बड़ी बेटी जैनब को अ