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The Popular Melodramas of 1950s and their Engagement with the Nehruvian Politics - Prakash K ray

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चवन्‍नी के पाठकों के लिए प्रकाश के रे का यह लेख....  “..planning does not mean industrialization alone; on the other hand, it embraces the entire national life.”                 -Nehru (Nehru’s speech at Delhi University, in The Hindustan Times, 15 February, 1939.) It is often argued that the popular melodramas of the 1950s failed to portray the reality of India in an apt manner since the film industry was too busy in projecting the nationalist myths created by the new government under the leadership of Nehru. The Centenary Year of Indian cinema offers an opportune occasion to revisit the cinematic scenario of the Nehruvian era, that is widely considered our cinema's Golden period. Realizing the great potential of mass media, particularly film, the government established various institutions and ordered vast set of rules and regulation. In 1949, the Film Enquiry Committee called upon the film industry to contribute to the responsibility in the course of nation building an

Artist’s domain is his work’-Balraj Sahni

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आज बलराज साहनी का जन्‍मदिन है। 1972 में उन्‍होंने जवाहर लाल नेहरू विश्‍वविद्यालय के दीक्षांत समारोह को संबोधित किया था। प्रकाश के रे ने इसे बरगद पर शेयर किया है। व‍हीं से इसे चवन्‍नी के पाठकों के लिए लिया जा रहा है। Balraj Sahni (1 May 1913–13 April 1973) was one of the most respectable film and theatre personalities of India.  This is the reproduction of his address delivered at Jawaharlal Nehru University (New Delhi) Convocation in 1972. We are grateful to Prof Chaman Lal, Jawaharlal Nehru University for making this text available. Balraj Sahni About 20 years ago, the Calcutta Film Journalists’ Association decided to honour the late Bimal Roy, the maker of Do Bigha Zameen, and us, his colleagues. It was a simple but tasteful ceremony. Many good speeches were made, but the listeners were waiting anxiously to hear Bimal Roy. We were all sitting on the floor, and I was next to Bimal Da. I could see that as his turn approached he became incr

मणि कौल का साक्षात्कार

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सौजन्‍य-प्रकाश के रे श्री मणि कौल का यह साक्षात्कार यूनेस्को कूरियर के जुलाई-अगस्त 1995 के सिनेमा के सौ साल के अवसर पर विशेषांक में पृष्ठ 36 -37 पर छ्पा था. आप सिनेमा से कैसे जुड़े और यह लगाव किस तरह आगे बढ़ा? सिनेमा से मेरा परिचय होने में कुछ देर लगी क्योंकि बचपन में मैं ठीक से देख नहीं पाता था. तेरह साल की उम्र में डॉक्टरों को मेरी आँखों की बीमारी का ईलाज समझ में आया. वही समय था जब दुनिया को मैंने पाया- जैसे बिजली की तारें, इन्हें मैं पहली दफ़ा देख सकता था. और फिर सिनेमा. जहाँ तक मुझे याद आता है जिस फ़िल्म ने मुझे सबसे पहले प्रभावित किया वह थी अमरीकी कॉस्टयूम ड्रामा - हेलेन ऑव ट्रॉय. शुरू में मेरी इच्छा अभिनेता बनने की थी. स्वाभविक रूप से यह मेरे पिता को पसंद न था. कुछ समय बाद मैंने एक डॉक्यूमेंट्री देखी जिससे मुझे यह ज्ञान हुआ कि फ़िल्में बिना अभिनेताओं के भी बन सकती हैं. इसने मेरी आँखें खोल दी. मुझे अब भी याद है कि वह फ़िल्म कलकत्ता शहर के बारे में थी. सौभाग्य से मेरे एक चाचा बंबई में फ़िल्म निर्देशक हुआ करते थे जो कि काफी जाने-माने थे. उनका नाम महेश कौल था. मैं उनसे मिला और उन्हों

बी आर चोपड़ा का सफ़र-प्रकाश के रे

भाग-7 नया दौर (1957) बी आर चोपड़ा की सबसे लोकप्रिय फ़िल्म है. इस फ़िल्म को न सिर्फ़ आजतक पसंद किया जाता है, बल्कि इसके बारे में सबसे ज़्यादा बात भी की जाती है. नेहरु युग के सिनेमाई प्रतिनिधि के आदर्श उदाहरण के रूप में भी इस फ़िल्म का ज़िक्र होता है. पंडित नेहरु ने भी इस फ़िल्म को बहुत पसंद किया था. लेकिन इस फ़िल्म को ख़ालिस नेहरूवादी मान लेना उचित नहीं है. जैसा कि हम जानते हैं नेहरु औद्योगिकीकरण के कट्टर समर्थक थे और बड़े उद्योगों को 'आधुनिक मंदिर' मानते थे, लेकिन यह फ़िल्म अंधाधुंध मशीनीकरण पर सवाल उठती है. और यही कारण है कि इसकी प्रासंगिकता आज भी बनी हुई है. बरसों बाद एक साक्षात्कार में चोपड़ा ने कहा था कि तब बड़े स्तर पर मशीनें लायी जा रही थीं और किसी को यह चिंता न थी कि इसका आम आदमी की ज़िंदगी पर क्या असर होगा. प्रगति के चक्के के नीचे पिसते आदमी की फ़िक्र ने उन्हें यह फ़िल्म बनाने के लिये उकसाया. फ़िल्म की शुरुआत महात्मा गांधी के दो कथनों से होती है जिसमें कहा गया गया है कि मशीन मनुष्य के श्रम को विस्थापित करने और ताक़त को कुछ लोगों तक सीमित कर देने मात्र का साधन नहीं होनी

बी आर चोपड़ा का सफ़र- प्रकाश के रे

भाग- छह 1951 की फ़िल्म जांच समिति ने सिर्फ़ फ़िल्म उद्योग की दशा सुधारने के लिये सिफ़ारिशें नहीं दी थी, जैसा कि पिछले भाग में उल्लिखित है, उसने फ़िल्म उद्योग को यह सलाह भी दी कि उसे 'राष्ट्रीय संस्कृति, शिक्षा और स्वस्थ मनोरंजन' के लिये काम करना चाहिए ताकि 'बहुआयामीय राष्ट्रीय चरित्र' का निर्माण हो सके. यह सलाह अभी-अभी आज़ाद हुए देश की ज़रूरतों के मुताबिक थी और बड़े फ़िल्मकारों ने इसे स्वीकार भी किया था. बी आर चो पड़ा भी सिनेमा को 'देश में जन-मनोरंजन और शिक्षा का साधन तथा विदेशों में हमारी संस्कृति का दूत' मानते थे. महबूब, बिमल रॉय और शांताराम जैसे फ़िल्मकारों से प्रभावित चोपड़ा का यह भी मानना था कि फ़िल्में किसी विषय पर आधारित होनी चाहिए. अ पनी बात को लोगों तक पहुंचाने के लिये उन्होंने ग्लैमर और मेलोड्रामा का सहारा लिया. निर्माता-निर्देशक के बतौर अ पनी पहली फ़िल्म एक ही रास्ता में उन्होंने विधवा-विवाह के सवाल को उठाया. हिन्दू विधवाओं के विवाह का कानून तो 1856 में ही बन चुका था लेकिन सौ बरस बाद भी समाज में विधवाओं की बदतर हालत भारतीय सभ्यता के दावों पर प्रश्नच

बी आर चोपड़ा का सफ़र- प्रकाश के रे

भाग -5 बी आर चोपड़ा के साथ आगे बढ़ने से पहले 1950 के दशक में फ़िल्म-उद्योग की दशा का जायजा ले लिया जाये. 1951 में सरकार द्वारा गठित फ़िल्म जांच आयोग ने फ़िल्म-उद्योग में व्याप्त अराजकता के ख़ात्मे के लिये एक परिषद् बनाने की सिफ़ारिश की थी. कहा गया कि यह केन्द्रीय परिषद् सिनेमा से संबंधित हर बात को निर्धारित करेगा. लेकिन इस दिशा में कुछ भी नहीं हो पाया और पुरानी समस्याओं के साथ नयी समस्याओं ने भी पैर पसारना शुरू कर दिया. स्टार-सिस्टम भी इन्हीं बीमारियों में एक था. आम तौर पर स्टार मुख्य कलाकार होते थे, लेकिन कुछ गायक और संगीतकार भी स्टार की हैसियत रखते थे. ये स्टार फ़िल्म के पूरे बजट का आधा ले लेते थे. तत्कालीन फ़िल्म उद्योग पर विस्तृत अध्ययन करनेवाले राखाल दास जैन के अनुसार 1958 आते-आते स्टार 1955 के अपने मेहनताने का तीन गुना लेने लगे थे. हालत यह हो गयी थी कि बिना बड़े नामों के फिल्में बेचना असंभव हो गया था और वितरकों को आकर्षित करने के लिये निर्माता महत्वाकांक्षी फिल्में बनाने की घोषणा करने लगे थे. इस स्थिति के प्रमुख कारण थे- स्वतंत्र निर्माताओं की बढ़ती संख्या, काले धन की भारी आमद, ब