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Showing posts from December, 2011

शहर-शहर डोलते स्टार

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-अजय ब्रह्मात्‍मज पिछले सप्ताह शाहरुख खान पटना नहीं जा सके। उनके न जा पाने की सही वजह के संबंध में कंफ्यूजन है। शाहरुख ने ट्विट किया था कि जिला अधिकारियों ने सुरक्षा कारणों से उन्हें आने से रोका, लेकिन पटना प्रशासन कह रहा है कि हम तो सुरक्षा में चाक-चौबंद थे। अगर हम अमिताभ बच्चन को सुरक्षा प्रदान कर सकते हैं तो शाहरुख को भी पटना से सुरक्षित भेज सकते हैं। आखिकार शाहरूख खान पटना गए।बहरहाल, शाहरुख ने उम्मीद जताई है कि वे जल्दी ही पटना जाएंगे। पटना के प्रति अचानक शाहरुख की हमदर्दी समझने के लिए हमें थोड़ा पीछे चलना होगा। पटना और दूसरे कथित छोटे शहर अब फिल्मों के प्रचार रोडमैप में आ गए हैं। इसकी शुरुआत बहुत पहले महेश भट्ट ने की थी। महेश भट्ट अपनी फिल्मों की टीम के साथ छोटे-छोटे शहरों में घूमते रहे हैं। उन्होंने तमन्ना की टीम के साथ पटना की यात्रा की थी। उसके बाद दैनिक जागरण की पहल पर मनोज बाजपेयी प्रचार के लिए अपनी फिल्म शूल लेकर कानपुर गए थे। छोटे शहरों को हिंदी फिल्म इंडस्ट्री से जोड़ने की कल्पना और योजना में इन पंक्तियों के लेखक की भी भूमिका रही है। शुरुआती सालों में हिंदी फिल्म इंडस्ट्री

फ‍िल्‍म समीक्षा : डॉन2

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-अजय ब्रह्मात्‍मज एशिया में अंडरव‌र्ल्ड साम्राज्य कायम करने के बाद डॉन की नजर अब यूरोप पर है। इसकी भनक योरोप के ड्रग सौदागरों को मिल चुकी है। वे डॉन को खत्म करने की साजिश रचते हैं। हमारा हिंदी फिल्मों का डॉन भी शातिर दिमाग है। अपनी सुरक्षा के लिए वह जेल चला जाता है। वहां से अपने पुराने दुश्मन वरधान को साथ लेता है। मारने आए व्यक्ति जब्बार को अपनी टीम में शामिल करता है और जर्मनी के एक बैंक से यूरो छापने की प्लेट की चोरी की योजना बनाता है। हंसिए नहीं,एशिया का किंग बन चुका डॉन इस चोरी को अंजाम देने के लिए खुद ही जाता है। मालूम नहीं उसके गुर्गे छुट्टी पर हैं या? हमारा डॉन अकेला ही घूमता है। जरूरत पड़ने पर उसके पास हथियार,गाड़ी और लश्कर चले जाते हैं। जैसे हिंदी फिल्मों का हीरो जब गाता है तो दर्जनों व्यक्ति उसके आगे-पीछे नाचने लगते हैं। अनगिनत फिल्मों में देखे जा चुके दृश्यों से अटी पड़ी यह फिल्म शाहरुख के अभिनय और अंदाज के दोहराव से भरी हुई है। उनका मुस्कराना,खी-खी कर हंसना,लचकते हुए चलना,भींचे चेहरे और टेढ़ी नजर से तकना उनके प्रशंसकों को भा सकता है,लेकिन कब तक? अफसोस है कि दिल चाहता है से क

दर्शक भी देखने लगे हैं बिजनेस

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-अजय ब्रह्मात्‍मज ह र हफ्ते फिल्मों की रिलीज के बाद उनके कलेक्शन और मुनाफे के आंकड़े आरंभ हो जाते हैं। कुछ सालों पहले तक हिट और सुपरहिट लिखने भर से काम चल जाता था। अब उतने से ही संतुष्टि नहीं होती। ट्रेड पंडित और विश्लेषक पहले शो से ही कलेक्शन बताने लगते हैं। मल्टीप्लेक्स थिएटरों के आने के बाद आंकड़े जुटाना, दर्शकों का प्रतिशत बनाता और कुल मुनाफा बताना आसान हो गया है। इन दिनों एक सामान्य दर्शक भी नजर रखना चाहे तो इंटरनेट के जरिए मालूम कर सकता है कि कोई फिल्म कैसा बिजनेस कर रही है। फिल्मों के प्रति धारणाएं भी इसी बिजनेस के आधार पर बनने लगी हैं। सामान्य दर्शक के मुंह से भी सुन सकते हैं कि फलां फिल्म ने इतने-इतने करोड़ का व्यापार किया। क्या सचमुच फिल्म के कलेक्शन से फिल्म के रसास्वादन में फर्क पड़ता है? क्या कलेक्शन के ट्रेंड से आम दर्शक प्रभावित होते हैं? फिल्में देखना और उन पर लिखना मेरा काम है। शुक्रवार को रिलीज हुई फिल्मों की समीक्षा अब शनिवार को अखबारों में आने लगी हैं। इंटरनेट केइस दौर में वो रिव्यू मेल करने के आधे घंटे के अंदर वह ऑनलाइन हो जाती है। इस दबाव में अनेक बार फिल्म के बा

टपोरी का किरदार होता है मजेदार-नील नितिन मुकेश

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अमित कर्ण अपनी अगली फिल्म 'प्लेयर्स' में मैं निभा रहा हूं एक हैकर की भूमिका। दरअसल टपोरी टाइप के किरदार मुझे पसद हैं क्योंकि इनमें काफी शेड्स होते हैं जॉनी गद्दार फिल्म से कॅरियर का शानदार आगाज करने वाले नील नितिन मुकेश इन दिनों अपनी आगामी फिल्म 'प्लेयर्स' के प्रमोशन में व्यस्त हैं। उनसे बातचीत के प्रमुख अंश : 'प्लेयर्स' में आपका क्या किरदार है? इसमें मेरा स्पाइडर का किरदार है, जो एक हैकर है। वह इंटरनेट का जाल बुनता और काटता है। यह 'इटैलियन जॉब' की आधिकारिक रूप से रीमेक मूवी है। दर्शकों के मनोरंजन के लिए इसमें हर किस्म के मसाले हैं। कॅरियर के आरंभ से ही मेरी तमन्ना थी कि कभी अब्बास-मस्तान के साथ काम करूं। यह सपना अब पूरा हो चुका है। अब मैं गर्व और दावे के साथ कह सकता हूं कि मैं उन दोनों के परिवार का हिस्सा हूं। कंप्यूटर हैकर्स अपराधी होते हैं। ऐसे में इस फिल्म में आपको कानून से सजा मिलती है..? हैकर्स तो वाकई अपराधी होते हैं। इस फिल्म में हैकर को सजा मिलती है या नहीं? इसके लिए दर्शकों को पहले यह मूवी देखनी होगी। 'जॉनी गद्दार' से लेकर अब तक कई फिल्

जार्डन को जीने की खुशी से मस्‍त रण्‍बीर कपूर

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-अजय ब्रह्मात्‍मज अमूमन फिल्म रिलीज होने के बाद न तो डायरेक्टर किसी से मिलते हैं और न ही ऐक्टर.., लेकिन इस बार कुछ अलग हुआ। रॉकस्टार की रिलीज के बाद जेजे यानी जॉर्डन यानी रणबीर कपूर लोगों से मिले। फिल्म की कामयाबी और चर्चा से वे खुश थे। उन्होंने फिल्म की मेकिंग, किरदार, एक्टिंग और इससे संबंधित अनेक मुद्दों पर बातें कीं। बर्फी की शूटिंग के लिए ऊटी निकलने से पहले बांद्रा स्थित अपने बंगले कृष्णराज में हुई मुलाकात में वे अच्छे नंबरों से पास हुए बच्चे की तरह खुश थे। प्रस्तुत हैं उनके ही शब्दों में उनकी बातें.. फिल्म की शूटिंग शुरू करने से पहले के छह महीने हमने और इम्तियाज ने साथ बिताए थे। उस किरदार को समझना बहुत जरूरी था। बॉडी लैंग्वेज और फिजिकल अंदाज तो आ जाएगा। खास कपड़े पहनना, बालों को लंबा करना, दाढ़ी बढ़ाना.. ये सब बड़ी बातें नहीं हैं। किसी किरदार को समझने की एक आंतरिक प्रक्रिया होती है। जॉर्डन की म्यूजिकल क्वालिटी को समझना था। बात करना और चलना भी आ गया था, लेकिन वह अंदर से कैसे सोचता है? एक दो दिनों की शूटिंग के बाद समझ में आ गया। समझ में आने के बाद हम किरदार के साथ एकाकार हो जाते हैं

सबकी आन सबकी शान ये है अपना सलमान

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-अजय ब्रह्मात्‍मज फि ल्मों में अपनी जगह बनाने की गरज से कुछ-कुछ कर रहे सलीम खान ने सुशीला से शादी कर उन्हें सलमा नाम दिया था। पहली संतान के आने की आहट थी। मुंबई में देखभाल का पर्याप्त इंतजाम नहीं था तो उन्हें पुश्तैनी घर इंदौर छोड आए। इंदौर में ही अब्दुल रशीद सलमान खान का जन्म हुआ। बडे होकर वे सलमान खान के नाम से मशहूर हुए। छोटे शहर का हीरो 27 दिसंबर 1965 को जन्मे सलमान खान अपनी जिंदगी में इंदौर का बडा महत्व मानते हैं। इंदौर में अपनी पैदाइश और बचपन की वजह से सलमान हमेशा कहते हैं कि मैं तो छोटे शहर का लडका हूं। अपने देश को पहचानता हूं। मेरी रगों में छोटा शहर है। शायद इसी वजह से देश के आम दर्शक मुझे अपने करीब पाते हैं। मेरी अदाओं और हरकतों में उन्हें अपनी झलक दिखती है। मेरी शैतानियां उन्हें भाती हैं, क्योंकि मैं उनसे अलग नहीं हूं। सलमान के बचपन की सनक और शरारतों के जानकार बताते हैं कि सलीम खान को उनसे कोई उम्मीद नहीं थी। तीनों भाइयों में अरबाज खान ज्यादा तेज दिमाग के थे। वे शांत और समझदार भी थे। सलमान सनकी होने के साथ जिद्दी भी थे। किसी बात पर अड गए तो मां के सिवा किसी और की बात नहीं मान

सच है कि इस इंडस्ट्री में पुरुषों की प्रधानता है-प्रियंका चोपड़ा

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-अजय ब्रह्मात्‍मज प्रियंका चोपड़ा की शाहरुख खान अभिनीत फिल्म डॉन-2 आ रही है। इसमें उनकी क्या भूमिका है और वे नया क्या कर रही हैं, बता रही हैं इस बातचीत में.. डॉन-2 की कहानी कितनी बदली और आगे बढ़ी है? यह सीक्वल है। पिछली फिल्म खत्म होते समय सभी को पता चल गया था कि विजय ही डॉन है। यह फिल्म वहीं से शुरू होती है। चार साल बाद वही कहानी आगे बढ़ती है। रोमा महसूस करती है कि उसके साथ धोखा हुआ। उसे विजय से प्यार हो गया था, लेकिन विजय तो डॉन निकला। फिर तो रोमा भी नाराज और अग्रेसिव होगी? बिल्कुल.., बीच के चार सालों में ट्रेनिंग लेकर रोमा पुलिस ऑफिसर बन चुकी है। उसका एक ही मकसद है कि किसी तरह वह डॉन को पकड़े और उसे सीखचों के पीछे लाए। उनका आमना-सामना होता है तो उनके बीच नफरत और मोहब्बत का रिश्ता बनता है। चूंकि विजय ने उसे धोखा दिया है, इसलिए रोमा उससे बहुत नाराज है। पूरी फिल्म में लोग मुझे गुस्से में ही देखेंगे। उस गुस्से में एक मोहब्बत भी है, क्योंकि रोमा को प्यार तो उसी व्यक्ति से हुआ था। सुना है कि आपने ऐक्शन किया है डॉन-2 में..। क्या हम उम्मीद करें कि द्रोण की तरह आप फिर से ऐक्शन करती दिखेंगी?

फिल्‍म समीक्षा : पप्‍पू कांट डांस साला

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-अजय ब्रह्मात्‍मज दो पृष्ठभूमियों से आए विद्याधर और महक संयोग से टकराते हैं। दोनों अपने सपनों के साथ मुंबई आए है। उनके बीच पहले विकर्षण और फिर आकर्षण होता है। सोच और व्यवहार की भिन्नता के कारण उनके बीच झड़प होती रहती है। यह झड़प ही उनके अलगाव का कारण बनता है और फिर उन्हें अपनी तड़प का एहसास होता है। पता चलता है कि वे एक-दूसरे की जिंदगी में दाखिल हो चुके हैं और साथ रहने की संतुष्टि चाहते हैं। ऐसी प्रेमकहानियां हिंदी फिल्मों के लिए नई नहीं हैं। फिर भी सौरभ शुक्ला की फिल्म पप्पू कांट डांस साला चरित्रों के चित्रण, निर्वाह और परिप्रेक्ष्य में नवीनता लेकर आई है। सौरभ शुक्ला टीवी के समय से ऐसी बेमेल जोडि़यों की कहानियां कह रहे हैं। उनकी कहानियों का यह स्थायी भाव है। नायक थोड़ा दब्बू, पिछड़ा, भिन्न, कुंठित, जटिल होता है। वह नायिका के समकक्ष होने की कोशिश में अपनी विसंगतियों से हंसाता है। इस कोशिश में उसकी वेदना और संवेदना जाहिर होती है। पप्पू कांट डांस साला की मराठी मुलगी महक और बनारसी छोरा विद्याधर में अनेक विषमताएं हैं, लेकिन मुंबई में पहचान बनाने की कोशिश में दोनों समांतर पटरियों पर च

फ‌र्स्ट लुक और प्रोमो

-अजय ब्रह्मात्‍मज फर्स्‍ट लुक और प्रोमो....आजकल इसे एक इवेंट का रूप दे दिया जाता है। निर्माता-निर्देशक अपनी फिल्मों का फ‌र्स्ट लुक जारी करने के लिए किसी होटल या थिएटर में मीडिया को आमंत्रित करते हैं और फिर विभिन्न माध्यमों से फिल्म की चर्चा आरंभ होती है। छिटपुट रूप से ऐसी कोशिशें काफी सालों से की जा रही थीं, लेकिन आमिर खान ने गजनी की रिलीज के पहले इसका प्रोमो मीडिया के साथ शेयर किया था। साथ ही अपने विशेष लुक को देश के प्रमुख अखबारों के जरिए दर्शकों तक पहुंचाया था। तब से यह जोरदार तरीके से इंडिपेंडेंट इवेंट के तौर पर प्रचलित हुआ। फ‌र्स्ट लुक जारी करने का इवेंट अब कई स्तरों और रूपों में शुरू हो चुका है। कुछ निर्माता-निर्देशक सोशल मीडिया नेटवर्क का उपयोग कर रहे हैं। फ‌र्स्ट लुक प्रकट होते ही यह वायरस की तरह फैलता है। इसी से दर्शकों की पहली जिज्ञासा बनती है। याद करें तो पहले पत्र-पत्रिकाओं में तस्वीरें और थिएटर में ट्रेलर चलते थे। पत्र-पत्रिकाओं में निर्देशक और फिल्म के प्रमुख स्टार्स के इंटरव्यू के साथ छपी तस्वीरों से दर्शकों का कयास आरंभ होता है। यहीं से संबंधित फिल्म के दर्शक बनने शुरू

भोजपुरी सिनेमा में बदलाव की आहट

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-अजय ब्रह्मात्‍मज भोजपुरी फिल्मों की गति और स्थिति के बारे में हम सभी जानते हैं। इसी साल फरवरी में स्वर्णिम भोजपुरी समारोह हुआ। इसमें पिछले पचास सालों के इतिहास की झलक देखते समय सभी ने ताजा स्थिति पर शर्मिदगी महसूस की। अपनी क्षमता और लोकप्रियता के बावजूद भोजपुरी सिनेमा फूहड़ता के मकड़जाल में फंसा हुआ है। अच्छी बात यह है कि भोजपुरी सिनेमा के दर्शकों का एक बड़ा वर्ग है। बुरी बात यह है कि भोजपुरी सिनेमा में अच्छी संवेदनशील फिल्में नहीं बन रही हैं। निर्माता और भोजपुरी के पॉपुलर स्टार जाने-अनजाने अपनी सीमाओं में चक्कर लगा रहे हैं। वे निश्चित मुनाफे से ही संतुष्ट हो जाते हैं। वे प्रयोग के लिए तैयार नहीं हैं और मान कर चल रहे हैं कि भोजपुरी सिनेमा के दर्शक स्वस्थ सिनेमा पसंद नहीं करेंगे। भोजपुरी सिनेमा के निर्माताओं से हुई बातचीत और पॉपुलर स्टार्स की मानसिकता को अगर मैं गलत नहीं समझ रहा तो वे भोजपुरी सिनेमा में आए हालिया उभार के भटकाव को सही दिशा मान रहे हैं। मैंने पॉपुलर स्टार्स को कहते सुना है कि अगर हम सीरियस और स्वस्थ होंगे तो भोजपुरी का आम दर्शक हमें फेंक देगा। सौंदर्य की स्थूलता और दिखाव

देव आनंद :मौत ने तोड़ दी एक हरी टहनी

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-अजय ब्रह्मात्‍मज किताबों,पत्रिकाओं,फिल्मों और विचारों से भरे दफ्तर के कमरे में बिना नागा हर दिन देव आनंद आते थे। अपना फोन खुद उठाना और खास अंदाज में हलो के साथ स्वागत करना ़ ़ ़मूड न हो तो कह देते थे देव साहब अभी नहीं हैं। बाद में फोन कर लें। अगर आप उनकी आवाज पहचानते हों तो उनके इस इंकार से नाराज नहीं हो सकते थे,क्योंकि वे जब बातें करते थे तो बेहिचक लंबी बातें करते थे। पिछले कुछ सालों से उन्होंने मिलना-जुलना कम कर दिया था। अपनी फिल्मों की रिलीज के समय वे सभी को बुलाते थे। पत्रकारों को वे नाम से याद रखते थे और उनके संबोधन में एक आत्मीयता रहती थी। बातचीत के दरम्यान वे कई दफा हथेली थाम लेते थे। उनकी पतली जीर्ण होती उंगलियों और नर्म हथेली में गर्मजोशी रहती थी। वे अपनी सक्रियता और संलग्नता की ऊर्जा से प्रभावित करते थे। इस उम्र में भी उनमें एक जादुई सम्मोहन था। देव आनंद ने अपने बड़े भाई चेतन आनंद से प्रेरित होकर फिल्मों में कदम रखा। आरंभ में उनका संपर्क इप्टा के सक्रिय रंगकर्मियों से रहा। नवकेतन की पहली ही फिल्म अफसर की असफलता से उन्हें हिंदी फिल्मों में मनोरंजन की महत्ता को समझ लिया। बाद म

फिल्‍म समीक्षा : द डर्टी पिक्‍चर

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-अजय ब्रह्मात्‍मज गांव से भागकर मद्रास आई रेशमा की ख्वाहिश है कि वह भी फिल्मों में काम करे। यह किसी भी सामान्य किशोरी की ख्वाहिश हो सकती है। फर्क यह है कि निरंतर छंटनी से रेशमा की समझ में आ जाता है कि उसमें कुछ खास बात होनी चाहिए। जल्दी ही उसे पता चल जाता है कि पुरुषों की इस दुनिया में कामयाब होने के लिए उसके पास एक अस्त्र है.. उसकी अपनी देह। इस एहसास के बाद वह हर शर्म तोड़ देती है। रेशमा से सिल्क बनने में उसे समय नहीं लगता। पुरुषों में अंतर्निहित तन और धन की लोलुपता को वह खूब समझती है। सफलता की सीढि़यां चढ़ती हुई फिल्मों का अनिवार्य हिस्सा बन जाती है। निर्माता, निर्देशक, स्टार और दर्शक सभी की चहेती सिल्क अपनी कामयाबी के यथार्थ को भी समझती है। उसके अंदर कोई अपराध बोध नहीं है, लेकिन जब मां उसके मुंह पर दरवाजा बंद कर देती है और उसका प्रेमी स्टार अचानक बीवी के आ टपकने पर उसे बाथरूम में भेज देता है तो उसे अपने दोयम दर्जे का भी एहसास होता है। सिल्क के बहाने द डर्टी पिक्चर फिल्म इंडस्ट्री के एक दौर के पाखंड को उजागर करती है। साथ ही डांसिंग गर्ल में मौजूद औरत के दर्द को भी जाहिर करती