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फिल्‍म समीक्षा : यारियां

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  -अजय ब्रह्मात्‍मज  कैंपस लाइफ और यूथ इधर की कई फिल्मों के विषय रहे हैं। सभी फिल्मकारों की एक ही कोशिश दिखाई पड़ती है। वे सभी यूथ को तर्क और व्यवहार से सही रास्ते पर लाने के बजाय कोई इमोशनल झटका देते हैं। इस इमोशनल झटके के बाद उनके अंदर फिल्मों से तय किए गए भारतीय सामाजिक और पारिवारिक मूल्य जागते हैं। कभी प्रेम तो कभी स्कूल, कभी कैंपस तो कभी देश, कभी महबूबा तो कभी परिवार... इन सभी के लिए वे जान की बाजी लगा देते हैं। स्टूडेंट लाइफ के मूल काम पढ़ाई से उनका वास्ता नहीं रहता। पढ़ाई के लिए कोई प्रतियोगिता नहीं होती। दिव्या खोसला कुमार ने पहली फिल्म के लिए ऐसे पांच यूथ को चुना है। ऑस्ट्रेलिया के एक बिजनेसमैन से स्कूल को बचाने के लिए जरूरी हो गया है कि उस स्कूल के बच्चे ऑस्ट्रेलिया की टीम के मुकाबले में उतरें। पांच किस्म की प्रतियोगिताओं में जीत के बाद वे अपने स्कूल को बचा सकते हैं। यह मत सोचें कि क्या कहीं कोई ऐसी स्पर्धा होती है, जहां एक स्कूल के छात्रों का मुकाबला किसी देश से हो। यह फिल्म है। फिल्म के आरंभ में सभी को बिगड़ा और भटका हुआ दिखाया गया है। पढ़ाकू मिजाज की ल