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Showing posts from February, 2011

गाली तो होगी पर बोली के अंदाज में-सनी देओल

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काशी की तिकड़ी फिल्म का आधार हो तो भला गालियों की काशिका का अंदाज कैसे जुदा हो सकता है। लेखक डॉ. काशीनाथ, चरित्र व पटकथा काशी और फिल्मांकन स्थल भी काशी। ऐसे में भले ही कथा का आधार उपन्यास बनारस का बिंदासपन समेटे हो लेकिन आम दर्शकों के लिए पर्दे पर कहानी का रंग ढंग कैसा होगा। कुछ ऐसे ही सवाल रविवार को मोहल्ला अस्सी फिल्म की यूनिट के सामने थे। फिल्मों में गाली-गुस्सा और मुक्का के लिए मशहूर अभिनेता सन्नी देओल ने पर्दा हटाया। बोले-गालियां इमोशन के हिसाब से होती हैं। इसमें भी है लेकिन गाली की तरह नहीं, बोली की तरह। आठ-दस साल में सिनेमा बदल गया है। सफलता के लिए जरूरी नहीं कि मुक्का या वल्गेरिटी हो। फिल्म यूनिट होटल रमादा में पत्रकारों से रूबरू थी। मुद्दे कि कमान निर्देशक चंद्रप्रकाश द्विवेदी ने संभाली। कहा कि श्लील व अश्लील परसेप्शन है। रही बात गालियों की तो लोगों की उम्मीद से कम होंगी। हवाला दिया-फिल्म की स्कि्रप्ट बेटी पढ़ना चाहती थी। मैंने उसे रोक दिया। कहा कि तुम फिल्म देखना। लिहाजा फिल्म उपन्यास का इडिटेड वर्जन होगी। इसे सभी लोग घर-परिवार के साथ बैठकर देख सकेंगे। हां, उपन्यास की आत्मा क

पहाड़ी नदी है भोजपुरी फिल्में

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-अजय ब्रह्मात्म ज पिछले दिनों पटना में स्वर्णिम भोजपुरी का आयोजन किया गया। फाउंडेशन फोर मीडियाकल्चर ऐंड सिनेमा अवेयरनेस की तरफ से आयोजित स्वर्णिम भोजपुरी में भोजपुरी सिनेमा के अतीत और वर्तमान पर विशेष चर्चा हुई। दो दिनों के सत्र में भोजपुरी सिनेमा के इतिहासकारों, पत्रकारों, समीक्षकों के साथ निर्माता-निर्देशकों और सितारों ने भी हिस्सा लिया। इस आयोजन का यह असर रहा कि टीवी और प्रिंट मीडिया ने भोजपुरी सिनेमा को प्रमुखता से कवरेज दिया। कल तक पढ़े-लिखे तबके के लिए जो सिनेमा हाशिए पर था और जिसकी तरफ ध्यान देने की उसे जरूरत भी नहीं महसूस होती थी, उसके ड्राइंग रूम में टीवी और अखबारों के जरिए भोजपुरी सिनेमा पहुंच गया। तीन दिनों के विमर्श और गहमागहमी में भोजपुरी सिनेमा पर मुख्य रूप से अश्लीलता और फूहड़ता का आरोप लगा। कहा गया कि फिल्मों के टाइटिल और गाने इतने गंदे होते हैं कि कोई भी परिवार के साथ इन फिल्मों को देखने नहीं जा सकता। फिल्म में द्विअर्थी संवाद होते हैं। हीरो-हीरोइनों के लटकों-झटकों में निर्लज्जता रहती है। इन आरोपों में सच्चाई है, लेकिन भोजपुरी सिनेमा सिर्फ अश्लीलता और फूहड़ता तक सीमित

हिंदी फिल्मों से गायब होते संवाद

-अजय ब्रह्मात्मज हिंदी फिल्म में संवादों की बड़ी भूमिका होती है। इसमें संवादों के जरिये ही चरित्र और दृश्यों का प्रभाव बढ़ाया जाता है। चरित्र के बोले संवादों के माध्यम से हम उनके मनोभाव को समझ पाते हैं। विदेशी फिल्मों से अलग भारतीय फिल्मों, खास कर हिंदी फिल्मों में संवाद लेखक होते हैं। फिल्म देखते समय आप ने गौर किया होगा कि संवाद का क्रेडिट भी आता है। हिंदी फिल्मों की तमाम विचित्रताओं में से एक संवाद भी है। हिंदी फिल्मों की शुरुआत से ही कथा-पटकथा के बाद संवाद लेखकों की जरूरत महसूस हुई। शब्दों का धनी ऐसा लेखक, जो सामान्य बातों को भी नाटकीय अंदाज में पेश कर सके। कहते हैं कि सामान्य तरीके से कही बातों का दर्शकों पर असर नहीं होता। इधर की फिल्मों पर गौर करें तो युवा निर्देशक फिल्मों को नेचुरल रंग देने और उसे जिंदगी के करीब लाने की नई जिद में हिंदी फिल्मों की इस विशेषता से मुंह मोड़ रहे हैं। फिल्मों में आमफहम भाषा का चलन बढ़ा है। इस भाषा में अंग्रेजी के शब्दों का इस्तेमाल बढ़ा है। पहले संवादों में शब्दों से रूपक गढ़े जाते थे। बिंब तैयार किए जाते थे। लेखकों की कल्पनाशीलता इन संवादों में अर्थ

गालियों की बाढ़-सुनील दीपक

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सच्चाई दिखाने के नाम पर अचानक लगता है कि हिन्दी फ़िल्मों में गालियों की बाढ़ आ रही है. भारतीय लोकजीवन और लोकगीतों में प्रेम और सेक्स की बातों को स्पष्ट कहने की क्षमता बहुत पहले से थी. गाँवों में हुए कुछ विवाहों में औरतों को गालियाँ में और फ़िर दुल्हे तथा उसके मित्रों के साथ होने वाले हँसीमज़ाक में, शर्म की जगह नहीं होती थी. लेकिन साहित्य में इस तरह की बात नहीं होती थी. पिछले दशकों में पहले भारत में अंग्रेज़ी में लिखने वालों के लेखन में, और अब कुछ सालों में हिन्दी में लिखने वालों के लेखन में सच्चाई के नाम पर वह शब्द जगह पाने लगे हैं जिन्हें पहले आप सड़क पर या मित्रों में ही सुनते थे. यह आलेख इसी बदलते वातावरण के बारे में है. चूँकि बात गालियों की हो रही है, इसलिए इस आलेख में कुछ अभद्र शब्दों का प्रयोग भी किया गया है, जिनसे अगर आप को बुरा लगे तो मैं उसके लिए क्षमा माँगता हूँ. अगर आप को अभद्र भाषा बुरी लगती है तो आप इस आलेख को आगे न ही पढ़ें तो बेहतर है. *** "नो वन किल्लड जेसिका" (No one killed Jessica) फ़िल्म के प्रारम्भ में जब टीवी पत्रकार मीरा हवाई ज़हाज़ में साथ बैठे कुछ बे

फिल्‍म समीक्षा : 7 खून माफ

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-अजय ब्रह्मात्‍मज विशाल भारद्घाज की हर फिल्म में एक अंधेरा रहता है, यह अंधेरा कभी मन को तो कभी समाज का तो कभी रिश्तों का होता है। 7 खून माफ में उसके मन के स्याहकोतों में दबी ख्वाहिशें और प्रतिकार है। वह अपने हर पति में संपूर्णता चाहती है। प्रेम, समर्पण और बराबरी का भाव चाहती है। वह नहीं मिलता तो अपने बचपन की आदत के मुताबिक वह राह नहीं बदलती, कुत्ते का भेजा उड़ा देती है। वह एक-एक कर अपने पतियों से निजात पाती है। फिल्म के आखिरी दृश्यों में वह अरूण से कहती है कि हर बीवी अपनी शादीशुदा जिंदगी में कभी-न-कभी आपने शौहर से छुटकारा चाहती है। विशाल भारद्घाज की 7 खून माफ थोड़े अलग तरीके से उस औरत की कहानी कह जाती है, जो पुरूष प्रधान समाज में वंचनाओं की शिकार है। सुजैन एक सामान्य लड़की है। सबसे पहले उसकी शादी मेजर एडविन से होती है। लंग्ड़ा और नपुंसक एडविन सुजैन पर शक करता है। उसकी स्वछंदता पर पाबंदी लगाते हुए सख्त स्वर में कहता है कि तितली बनन े की कोशिश मत करो। सुजैन उसकी हत्या कर देती है, इसी प्रकार जिम्मी, मोहम्मद, कीमत, निकोलाई और मधूसूदन एक-एक कर उसकी जिंदगी में आते हैं। इन स

हिंदी फिल्मों से गायब होते संवाद

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- अजय ब्रह्मात्मज हिंदी फिल्म में संवादों की बड़ी भूमिका होती है। इसमें संवादों के जरिये ही चरित्र और दृश्यों का प्रभाव बढ़ाया जाता है। चरित्र के बोले संवादों के माध्यम से हम उनके मनोभाव को समझ पाते हैं। विदेशी फिल्मों से अलग भारतीय फिल्मों, खास कर हिंदी फिल्मों में संवाद लेखक होते हैं। फिल्म देखते समय आप ने गौर किया होगा कि संवाद का क्रेडिट भी आता है। हिंदी फिल्मों की तमाम विचित्रताओं में से एक संवाद भी है। हिंदी फिल्मों की शुरुआत से ही कथा-पटकथा के बाद संवाद लेखकों की जरूरत महसूस हुई। शब्दों का धनी ऐसा लेखक, जो सामान्य बातों को भी नाटकीय अंदाज में पेश कर सके। कहते हैं कि सामान्य तरीके से कही बातों का दर्शकों पर असर नहीं होता। इधर की फिल्मों पर गौर करें तो युवा निर्देशक फिल्मों को नेचुरल रंग देने और उसे जिंदगी के करीब लाने की नई जिद में हिंदी फिल्मों की इस विशेषता से मुंह मोड़ रहे हैं। फिल्मों में आमफहम भाषा का चलन बढ़ा है। इस भाषा में अंग्रेजी के शब्दों का इस्तेमाल बढ़ा है। पहले संवादों में शब्दों से रूपक गढ़े जाते थे। बिंब तैयार किए जाते थे। लेखकों की कल्पनाशीलता इन संवादों में अर्थ

धोबी घाट का एक सबटेक्सचुअल पाठ - राहुल सिंह

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युवा कथाकार-आलोचक राहुल सिंह वैसे तो पेशे से प्राध्यापक हैं, लेकिन प्राध्यापकीय मिथ को झुठलाते हुए पढते-लिखते भी हैं। खासकर समसामयिकता राहुल के यहां जरूरी खाद की तरह इस्तेमाल में लायी जाती है। चाहे उनकी कहानियां हों या आलोचना, आप उनकी रचनाशीलता में अपने आसपास की अनुगूंजें साफ सुन सकते हैं। अभी हाल ही में प्रदर्शित ‘धोबीघाट’ पर राहुल ने यह जो आलेख लिखा है, अपने आपमें यह काफी है इस स्थापना के सत्यापन के लिए। आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है, क्या यह अलग से कहना होगा! धोबी घाट का एक सबटेक्सचुअल पाठ राहुल सिंह अरसा बाद किसी फिल्म को देखकर एक उम्दा रचना पढ़ने सरीखा अहसास हुआ। किरण राव के बारे में ज्यादा नहीं जानता लेकिन इस फिल्म को देखने के बाद उनके फिल्म के अवबोध (परसेप्शन) और साहित्यिक संजीदगी (लिटररी सेन्स) का कायल हो गया। मुझे यह एक ‘सबटेक्स्चुअल’ फिल्म लगी जहाँ उसके ‘सबटेक्सट’ को उसके ‘टेक्सट्स’ से कमतर करके देखना एक भारी भूल साबित हो सकती है। मसलन फिल्म का शीर्षक ‘धोबी घाट’ की तुलना में उसका सबटाईटल ‘मुम्बई डायरीज’ ज्यादा मानीखेज है। सनद रहे, डायरी नहीं डायरीज। डायरीज में जो बहुवचनात्मकता

राजकपूर के जीवन और फिल्मों की अंतरंग झलक

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-अजय ब्रह्मात्‍मज हिंदी फिल्मों पर हिंदी में अपर्याप्त लेखन हुआ है। प्रकाशकों की उदासीनता से लेखक निष्क्रिय हैं। चंद लेखक अपना महात्वाकांक्षी लेखन समुचित पारिश्रमिक नहीं मिलने की वजह से दरकिनार कर देते हैं। जयप्रकाश चौकसे पिछले कई सालों से हिंदी फिल्मों पर नियमित लेखन कर रहे हैं। दैनिक भास्कर में पर्दे के पीछे नाम से उनका पॉपुलर स्तंभ काफी पढ़ा जाता है। गौर करें तो हिंदी फिल्मों में मुख्य रूप से तीन तरह का लेखन होता है। पहली श्रेणी में सिद्धांतकार लेखक आते हैं। वे देश-विदेश में प्रचलित तकनीकी सिनेमाई सिद्धांतों की अव्यावहारिक खोज करते हैं। दूसरे प्रकार के लेखक फिल्मों का मूल्यांकन साहित्यिक मानदंडों के आधार पर करते हैं। दुर्भाग्य से चंद साहित्यकार इस श्रेणी में चर्चित हैं। वे अजीब किस्म की भावगत आलोचना और विश्लेषण से सिनेमा से सम्यक आकलन नहीं कर पाते। तीसरी श्रेणी जयप्रकाश चौकसे जैसे लेखकों की है, जो हिंदी सिनेमा की वास्तविक समझ रखते हैं और व्यावहारिक लेखन करते हैं। अगर आप जयप्रकाश चौकसे को नियमित पढ़ते हों तो उनकी सादगी और स्पष्टता के कायल होंगे। चौकसे के पास संस्मरणों का खजाना है। अप

फिल्म समीक्षा:पटियाला हाउस

-अजय ब्रह्मात्मज परगट सिंह कालों उर्फ गट्टू उर्फ काली.. एक ही किरदार के ये तीन नाम हैं। इस किरदार को पटियाला हाउस में अक्षय कुमार ने निभाया है। अक्षय कुमार पिछली कई फिल्मों में खुद को दोहराते और लगभग एक सी भाव-भंगिमा में नजर आते रहे हैं। निर्देशक भले ही प्रियदर्शन, साजिद खान या फराह खान रहे हों, लेकिन उनकी कामेडी फिल्मों का घिसा-पिटा फार्मूला रहा है। पटियाला हाउस में एक अंतराल के बाद अक्षय कुमार कुछ अलग रूप-रंग में नजर आते हैं। उनके प्रशंसकों को यह तब्दीली अच्छी लग सकती है। निर्देशक निखिल आडवाणी ने इस फिल्म में मसालों और फार्मूलों का इस्तेमाल करते हुए एक नई छौंक डाली है। उसकी वजह से पटियाला हाउस नई लगती है। परगट सिंह कालों साउथ हाल में पला-बढ़ा एक सिख युवक है। क्रिकेट में उसकी रुचि है। किशोर उम्र में ही वह अपने टैलेंट से सभी को चौंकाता है। इंग्लैंड की क्रिकेट टीम में उसका चुना जाना तय है। तभी एक नस्लवाली हमले में साउथ हाल के सम्मानीय बुजुर्ग की हत्या होती है। प्रतिक्रिया में परगट सिंह कालों के बातूनी फैसला सुनाते हैं कि वह इंग्लैंड के लिए नहीं खेलेगा। परगट सिंह कालों अब सिर्

बनारसी अंदाज में सनी देओल

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-अजय ब्रह्मात्‍मज धोती-कमीज में चप्पल पहने बनारस की गलियों में टहलते सनी देओल को देख कर आप चौंक सकते हैं। उनका लुक भी बनारस के पडों की तरह है। वास्तव में सनी देओल ने यह लुक डॉ. चद्रप्रकाश द्विवेदी की फिल्म 'मोहल्ला अस्सी' के लिए लिया है। क्रासवर्ड एंटरटेनमेंट के बैनर तले बन रही इस फिल्म के निर्माता लखनऊ के विनय तिवारी हैं। हिंदी प्रदेश के विनय तिवारी की यह पहली फिल्म है। उन्होंने काशीनाथ सिह का उपन्यास 'काशी का अस्सी' पढ़ रखा था, इसलिए जब डॉ. चद्रप्रकाश द्विवेदी ने उनके सामने इसी उपन्यास पर फिल्म बनाने का प्रस्ताव रखा, तो वह सहज ही तैयार हो गए। मुंबई की फिल्मसिटी में मदिर के सामने 'मोहल्ला अस्सी' का सेट लगा है। पप्पू के चाय की दुकान के अलावा आसपास की गलियों को हूबहू बनारस की तर्ज पर तैयार किया गया है। किसी बनारसी को मुंबई में अस्सी मोहल्ला देखकर एकबारगी आश्चर्य हो सकता है। पिछले दिनों काशीनाथ सिह स्वय सेट पर पहुंचे, तो सेट देख कर दंग रह गए। स्थान की वास्तविकता ने उन्हें आकर्षित किया। अपने उपन्यास के किरदारों को सजीव देखकर वह काफी खुश हुए थे। फिल्म निर्माण की प्र

हर फिल्म में होती हूं मैं एक अलग स्त्री: ऐश्वर्या राय बच्चन

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-अजय ब्रह्मात्‍मज ऐश्वर्या राय बच्चन ने इन प्रचलित धारणाओं को झुठला दिया है कि हिंदी फिल्मों में हीरोइनों की उम्र पांच साल से अधिक नहीं होती और शादी के बाद हीरोइनों को फिल्में मिलनी बंद हो जाती हैं। यह भी एक धारणा है कि सफल स्त्रियों का दांपत्य और पारिवारिक जीवन सुखी नहीं होता। वह सार्वजनिक जीवन में एक अभिनेत्री व आइकन के तौर पर नए उदाहरण पेश कर रही हैं। अवसरों को चुनना और उसका सामयिक एवं दूरगामी सदुपयोग करना ही व्यक्ति को विशेष बनाता है। इसी लिए वह हिंदी फिल्म इंडस्ट्री की एक खास स्त्री हैं। शुरुआती दौर 1994 में मिस व‌र्ल्ड चुने जाने के बाद तय हो चुका था कि करियर के रूप में फिल्मों में ही आना है। तीन साल बाद 1997 में वह मणिरत्नम की तमिल फिल्म इरूवर में आई तो आलोचकों ने कहा कि कोई हिंदी फिल्म नहीं मिली होगी। शुरुआती दिनों के इस फैसले के बारे में ऐश्वर्या बताती हैं, तब यश चोपडा और सुभाष घई मेरे साथ फिल्में करना चाह रहे थे, लेकिन मैंने मणिरत्नम की तमिल फिल्म इरूवर चुनी। मेरे बारे में पूर्वाग्रह थे कि मॉडल है, खूबसूरत चेहरा है, मिस व‌र्ल्ड है और अच्छा डांस करती है। फिल्म से पहले ही मेरे स

हमारा काम सिर्फ मनोरंजन करना है: विक्रम भट्ट

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-अजय ब्रह्मात्‍मज आपका जन्म मुंबई का है। फिल्मों से जुडाव कैसे और कब हुआ? मेरे दादाजी का नाम था विजय भट्ट। वे प्रसिद्ध प्रोडयूसर-डायरेक्टर रहे हैं। हिमालय की गोद में, गूंज उठी शहनाई, हरियाली और रास्ता बैजू बावरा जैसी बडी पिक्चरें बनाई। मेरे पिता प्रवीण भट्ट कैमरामैन थे। मैं डेढ साल की उम्र से ही फिल्म के सेट पर जा रहा था। अंकल अरुण भट्ट डायरेक्टर व स्टोरी राइटर थे, पापा कैमरामैन थे तो दादा डायरेक्टर। घर में दिन-रात फिल्मों की चर्चा होती थी। बचपन से फिल्म इन्फॉर्मेशन और ट्रेड गाइड पत्रिकाएं देखता आ रहा हूं घर में। ऐसे माहौल में फिल्मों से इतर कुछ और सोचने की गुंजाइश थी ही कहां। हालांकि मेरे चचेरे भाई फिल्मों से नहीं जुडे। मुझे शुरू से यह शौक रहा। कहानियां सुनाने का शौक मुझे बहुत था। सुना है कि कॉलेज के दिनों में आपने और बॉबी देओल ने मिलकर फिल्म बनाई थी? तब केवल सोलह की उम्र थी मेरी। मैंने निर्देशन दिया और बॉबी ने एक्ट किया। कब फैसला किया कि डायरेक्टर ही बनना है, एक्टर नहीं? सात साल का था, तभी फैसला कर लिया था कि डायरेक्टर ही बनूंगा। इतनी कम उम्र में करियर का फैसला कम ही लोग करते हैं शाय

सेंसर बोर्ड की चिंताएं

-अजय ब्रह्मात्‍मज पिछले दिनों शर्मिला टैगोर ने मुंबई में फिल्म निर्माताओं के साथ लंबी बैठक की। अनौपचारिक बातचीत में उन्होंने अपने विचार शेयर किए और निर्माताओं की दिक्कतों को भी समझने की कोशिश की। मोटे तौर पर सेंसर बोर्ड से संबंधित विवादों की वजहों का खुलासा किया। उन्होंने निर्माताओं को उकसाया कि उन्हें सरकार पर दबाव डालना चाहिए ताकि बदलते समय की जरूरत के हिसाब से 1952 के सिनेमेटोग्राफ एक्ट में सुधार किया जा सके। उन्होंने बताया कि उनकी टीम ने विशेषज्ञों की सलाह के आधार पर दो साल पहले ही कुछ सुझाव दिए थे, किंतु सांसदों के पास इतना वक्त नहीं है कि वे उन सुझावों पर विचार-विमर्श कर सकें। उनके इस कथन पर निर्माताओं को हंसी आ गई। केंद्र के स्वास्थ्य मंत्रालय ने सीबीएफसी (सेंट्रल बोर्ड ऑफ फिल्म सर्टिफिकेशन) को हिदायत दी थी कि किसी भी फिल्म में धूम्रपान के दृश्य हों, तो उसे ए सर्टिफिकेट दिया जाए। सीबीएफसी ने अभी तक इस पर अमल नहीं किया है, क्योंकि सीबीएफसी सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के अधीन आता है और उसने ऐसी कोई सिफारिश नहीं की है। शर्मिला टैगोर ने उड़ान और नो वन किल्ड जेसिका के उदाहरण देकर समझा