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बलराज साहनी पर विष्णु खरे

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चवन्‍नी के पाठकों के लिए बुद्धू-बक्‍सा से साभार...  [शायद मुट्ठी भर से भी कम लोगों को इसका भान होगा कि ठीक आज से बलराज साहनी की जन्मशती शुरू हो रही है. इस मौके पर विष्णु खरे ने एक बहुत संगठित और जानकारियों से भरा हुआ आलेख लिखा है, जो आज के 'नवभारत टाईम्स' में प्रकाशित है. हिन्दी सिनेमा के ठप्पों को बेहद लफ्फाज़ी और बेतुके तरीकों से याद करने का प्रचलन हिन्दी में चल पड़ा है, जिससे सिनेमा लेखन का जो नुकसान होना होता है वह हो ही रहा है, साथ ही साथ सिनेमा का भी हो रहा है. फ़िर भी, इस विषयान्तर तर्क को सही मानते हुए बुद्धू-बक्सा विष्णु खरे की इस अनन्य अनुमति को आभार के साथ आपके साथ साझा करता है.] संभव है आज की औसत युवा पीढ़ी उनका नाम और चेहरा न जानती हो, शायद जानना भी न चाहती हो क्योंकि उसके काबिल न हो, लेकिन चालीस साल पहले, जब वह साठ वर्ष के होने ही जा रहे थे, बल्रराज साहनी (1 मई 1913 – 13 अप्रैल 1973) के नितांत असामयिक और अन्यायपूर्ण निधन ने देश के करोड़ों सिने-दर्शकों को स्तब्ध और बेहद रंज़ीदा कर दिया था. त्रासद विडंबना यह थी कि एम.एस.सत्यु की कालजयी फिल्म “गर्म