फिल्म समीक्षा - अनारकली ऑफ आरा
फिल्म रिव्यू ’ मर्दों ’ की मनमर्जी की उड़े धज्जी अनारकली ऑफ आरा -अमित कर्ण 21 वीं सदी में आज भी बहू , बेटियां और बहन घरेलू हिंसा , बलात संभोग व एसिड एटैक के घने काले साये में जीने को मजबूर हैं। घर की चारदीवारी हो या स्कूल-कॉलेज व दफ्तर चहुंओर ‘ मर्दों ’ की बेकाबू लिप्सा और मनमर्जी औरतों के जिस्म को नोच खाने को आतुर रहती है। ऐसी फितरत वाले बिहार के आरा से लेकर अमेरिका के एरिजोना तक पसरे हुए हैं। लेखक-निर्देशक अविनाश दास ने उन जैसों की सोच वालों पर करारा प्रहार किया है। उन्होंने आम से लेकर कथित ‘ नीच ’ माने जाने वाले तबके तक को भी इज्जत से जीने का हक देने की पैरोकारी की है। इसे बयान करने को उन्होंने तंज की राह पकड़ी है। इस काम में उन्हें कलाकारों , गीतकारों , संगीतकारों व डीओपी का पूरा सहयोग मिला है। उनकी नज़र नई पीढ़ी के ग़ुस्से और नाराज़गी से फिल्म को लैस करती है। अविनाश दास ने अपने दिलचस्प किरदारों अनारकली , उसकी मां , रंगीला , हीरामन , धर्मेंद्र चौहान , बुलबुल पांडे व अनवर से कहानी में एजेंडापरक जहान गढा है। हरेक की ख्वाहिशें , महत्वाकांक्षाएं व ला