Sunday, April 9, 2017
कॉमन मैन अप्रोच है अक्षय कुमार का - सुभाष कपूर
Saturday, February 11, 2017
फिल्म समीक्षा : जॉली एलएलबी 2
Tuesday, February 7, 2017
मजेदार किरदार है जगदीश्वर मिश्रा- अक्षय कुमार
Sunday, June 14, 2015
मामूली लोग होते हैं मेरे किरदार -सुभाष कपूर
Thursday, April 17, 2014
राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों में युवा प्रतिभाएं छाईं
सर्वश्रेष्ठ निर्देशक के लिए पुरस्कृत ‘शाहिद’ के निर्देशक हंसल मेहता अपने पुरस्कार का श्रेय शाहिद आजमी को देते हैं। वे कहते हैं, ‘शाहिद आजमी के दृढ़ संघर्ष और जीवट ने मुझे इस फिल्म के लिए प्रेरित किया। भारतीय समाज में अल्पसंख्यकों के साथ हो रहे सामाजिक और सरकारी अत्याचार में शाहिद निहत्थे आरोपियों के साथ खड़े रहे। इसी के लिए उनकी जान गई। मैं यह पुरस्कार उनकी लड़ाई और यादों को समर्पित करता हूं। मेरे लिए अतिरिक्त खुशी की बात यह है कि मुझे उसी साल निर्देशन का पुरस्कार मिल रहा है, जिस साल मेरे गुरू और पथ निर्देशक गुलजार को दादा साहेब फालके पुरस्कार मिल रहा है। मैं उनके पांव छू कर पुरस्कार ग्रहण करने जाऊंगा।’ ‘शाहिद’ क लिए राजकुमार राव को सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार मिला है। वे यह पुरस्कार मलयाली फिल्म ‘पेरारियत्वर’ के अभिनेता सूरज वंजारा मूडु के साथ शेयर करेंगे। राजकुमार राव ‘शाहिद’ की भूमिका के लिए पहले ही प्रशंसित और पुरस्कृत हो चुके हैं। नेशनल अवार्ड मिलने की खुशी जाहिर करते हुए वे कहते हैं, ‘मैं हंसल का शुक्रगुजार हूं। उन्होंने मुझे शाहिद आजमी की बायोपिक में मुख्य किरदार निभाने का मौका दिया। पुरस्कार तो सभी की तरह मैं भी चाहता हूं, लेकिन मैंने इसकी अपेक्षा नहीं की थी। यही कहूंगा कि काम के प्रति ईमानदारी बनी रहे। मैं कभी बेईमानी ना करूं। मैंने पुरस्कार की सूचना सबसे पहले ‘डॉली के डॉली’ के निर्माता अरबाज खान और निर्देशक अभिषेक डोगरा को दी। परिवार में मां और बहनों से बातें हुईं।’
इस साल सुभाष कपूर की व्यंग्यात्मक फिल्म ‘जॉली एलएलबी’ हिंदी की सर्वश्रेष्ठ फिल्म घोषित हुई। इसी फिल्म के लिए सर्वश्रेष्ठ सहअभिनेता का पुरस्कार सौरभ शुक्ला को मिला है। सौरभ कहते हैं, ‘यह मेरा पहला नेशनल अवार्ड है। इसकी अलग महत्ता है। मुझे खुद से ज्यादा खुशी ‘जॉली एलएलबी’ के लिए है। उसे हिंदी की सर्वश्रेष्ठ फिल्म का अवार्ड मिला है। ‘जॉली एलएलबी’ के निर्देशक सुभाष कपूर अभी ‘गुड्डू रंगीला’ की शूटिंग कर रहे हैं। फोन पर वे बताते हैं। ‘मैं अपनी टीम और निर्माता के लिए खुश हूं। उन्होंने मुझ पर भरोसा किया और ऐसी फिल्म में मदद की। अच्छी बात है कि मेरी फिल्म को दर्शकों ने भी सराहा और अब यह फिल्म पुरस्कृत हो रही है। मेरा जोश और विश्वास बढ़ गया है।’
नेशनल फिल्म अवार्ड में सर्वश्रेष्ठ लोकप्रिय फिल्म का पुरस्कार राकेश ओमप्रकाश मेहरा की ‘भाग मिल्खा भाग’ को मिला है। सर्वश्रेष्ठ बाल फिल्म बतुल मुख्तियार की ‘काफल’ है, जिसका निर्माण चिल्ड्रेन फिल्म सोसायटी ने किया है। हिंदी में बनी कमल स्वरूप की ‘रंगभूमि’ को सर्वश्रेष्ठ गैरफीचर फिल्म का पुरस्कार मिला। इस फिल्म में दादा साहेब फालके के जीवन के संघर्ष और विजय का चित्रण है। सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का पुरस्कार ‘लायर्स डाइस’ की गीतांजलि थापा को मिला है।
पुरस्कारों की सूची से यह भान होता है कि निर्णायक मंडल ने सभी भाषाओं में नई प्रतिभाओं की फिल्मों को प्राथमिकता दी है। उन्होंने भारतीय सिनेमा में कथ्य और शिल्प में हो रहे परिवत्र्तनों को महत्व देते हुए दिग्गजों की मुख्यधारा की फिल्मों को दरकिनार किया। फिर भी ‘द लंचबॉक्स’ को किसी पुरस्कार के योग्य न समझना असमंजस पैदा करता है। यह फिल्म देश-विदेश में दर्शकों और समीक्षकों द्वारा अत्यंत सराही गई।
Monday, August 5, 2013
संग-संग : सुभाष कपूर-डिंपल खरबंदा
Thursday, May 2, 2013
21वीं सदी का सिनेमा



Friday, March 15, 2013
फिल्म रिव्यू : जॉली एलएलबी
Thursday, March 14, 2013
व्यंग्य निर्देशक सुभाष कपूर
-अजय ब्रह्मात्मज
बाहर से आए निर्देशक के लिए यह बड़ी छलांग है। खबर है कि सुभाष कपूर विधू विनोद चोपड़ा और राज कुमार हिरानी की ‘मुन्नाभाई ... ’ सीरिज की अगली कड़ी का निर्देशन करेंगे। पिछले हफ्ते आई इस खबर ने सभी को चौंका दिया। ‘मुन्नाभाई एमबीबीएस’ और ‘लगे रहो मुन्नाभाई’ के बाद ‘मुन्नाभाई चले अमेरिका’ की घोषणा हो चुकी थी। उसके फोटो शूट भी जारी कर दिए गए थे। राजकुमार हिरानी उस फिल्म को शुरू नहीं कर सके। स्क्रिप्ट नहीं होने से फिल्म अटकी रह गई। इस बीच राजकुमार हिरानी ने ‘3 इडियट’ पूरी कर ली। उसकी अपार और रिकार्ड सफलता के बाद वे फिर से आमिर खान के साथ ‘पीके’ बनाने में जुट गए हैं। इसी दरम्यान सुभाष कपूर को ‘मुन्नाभाई ....’ सीरिज सौंपने की खबर आ गई।
सुभाष कपूर और विधु विनोद चोपड़ा के नजदीकी सूत्रों की मानें तो यह फैसला अचानक नहीं हुआ है। राजकुमार हिरानी की व्यस्तता को देखते हुए यह जरूरी फैसला लेना ही था। ‘मुन्नाभाई ...’ सीरिज में दो फिल्में कर लेने के बाद राजकुमार हिरानी अन्यमनस्क से थे। शायद वे इस सीरिज से ऊब गए हों या नए विषयों का हिलोर उन्हें बहा ले जाता हो। ‘मुन्नाभाई ...’ के मुन्ना और सर्किट की जोड़ी को दर्शक नई स्थितियों और परिवेश में देखने के लिए लालायित हैं। संजय दत्त के पास अभी कोई बेहतर फिल्म भी नहीं है। ‘जिला गाजियाबाद’ जैसी फिल्म में हम ने संजय दत्त और अरशद वारसी को एक साथ देखा, लेकिन उनके बीच मुन्ना-सर्किट की केमिस्ट्री नहीं दिखी। स्पष्ट है कि दोनों ‘मुन्नाभाई ...’ सीरिज में ही जमते हैं।
सुभाष कपूर के चुने जाने की बात कर रहा था। विधु विनोद चोपड़ा और राजकुमार हिरानी दोनों चाहते थे कि फिल्म के निर्देशन की जिम्मेदारी किसी को दी जाए। इस सिलसिले में वे पहले हबीब फैजल से मिले। उन्हें लगा था कि युवा निर्देशक ‘मुन्नाभाई ...’ सीरिज के साथ न्याय कर सकेंगे। बातचीत और विमर्श में उनसे संतुष्ट नहीं होने पर फिर ‘फरारी की सवारी’ के निर्देशक राजेश मापुसकर के बारे में सोचा गया। राजेश मापुसकर पहले राजकुमार हिरानी के सहयोगी थे और उन्होंने विधु विनोद चोपड़ा के लिए ही ‘फरारी की सवारी’ बनाई थी। उन पर भी सहमति नहीं बनी। तभी फिल्म पत्रकार और समीक्षक अनुपमा चोपड़ा ने सुभाष कपूर का नाम सुझाया। अनुपमा चोपड़ा के पति हैं विधु विनोद चोपड़ा। अनुपमा को ‘फंस गया रे ओबामा’ अच्छी लगी थी। उन्होंने यह भी बताया कि सुभाष कपूर की ‘जॉली एलएलबी’ आ रही है। अनुपमा के सुझाव पर चोपड़ा और हिरानी ने पहले ‘फंस गया रे ओबामा’ और फिर अप्रदर्शित ‘जॉली एलएलबी’ देखी। उन्हें सुभाष कपूर की शैली और व्यंग्य की धार पसंद आई। उन्होंने तय कर लिया कि सुभाष कपूर को ही लेंगे।
सुभाष कपूर ने हिंदी से एमए किया है। हिंदी से एम ए का विशेष उल्लेख इसलिए कर रहा हूं कि आम तौर पर हिंदी पढ़े व्यक्ति की एक रूढि़वादी और पिछड़ी छवि है। माना जाता है कि जो विद्यार्थी किसी और विषय में प्रवीण नहीं होते वे मजबूरी में हिंदी और मराठी चुनते हैं। सुभाष कपूर ने पढ़ाई के दिनों में छात्र आंदोलन और थिएटर गतिविधियों में हिस्सा लिया। वे वामपंथी रुझान के व्यक्ति हैं। टीवी और प्रिंट की पत्रकारिता करने के बाद उन्होंने मुंबई का रुख किया। इरादा था कि हिंदी में फिल्में बनाएंगे। उनकी पहली फिल्म ‘से सलाम इंडिया’ क्रिकेट के विषय पर थी। वह आई और चली गई, फिर भी इंडस्ट्री में उन्हें नोटिस किया गया। अगली फिल्म ‘फंस गया रे ओबामा’ थी। इस फिल्म के लिए कलाकार जुटाने में सुभाष कपूर को भारी मशक्कत करनी पड़ी। संजय मिश्र को केंद्रीय भूमिका में लेकर फिल्म बनी। यह फिल्म चली और खूब पसंद की गई। अगली फिल्म ‘जॉली एलएलबी’ 15 मार्च को रिलीज हो रही है। यह पश्चिमी उत्तर प्रदेश के एक असफल वकील जॉली की कहानी है। समाज और सत्ता पर एक साथ चोट करती सुभाष कपूर की फिल्में सीधे तौर पर कोई उद्घोष या नारा नहीं लगातीं। उनकी फिल्मों में आम जीवन के प्रसंगों का मनोरंजन रहता है। हमारे आसपास के किरदार हमारी ही भाषा में चुटीली बातें करते हैं और हमें घायल कर देते हैं।
उम्मीद है कि सुभाष कपूर अपनी धार बनाए रखेंगे और ‘मुन्नाभाई ...’ सीरिज को मनोरंजक मजबूती के सथ आगे बढ़ाएंगे।
Friday, December 3, 2010
फिल्म समीक्षा : फंस गए रे ओबामा

बेहतरीन फिल्में सतह पर मजा देती हैं और अगर गहरे उतरें तो ज्यादा मजा देती हैं। फंस गए रे ओबामा देखते हुए आप सतह पर सहज ही हंस सकते हैं, लेकिन गहरे उतरे तो इसके व्यंग्य को भी समझ कर ज्यादा हंस सकते हैं। इसमें अमेरिका और ओबामा का मजाक नहीं उड़ाया गया है। वास्तव में दोनों रूपक हैं, जिनके माध्यम से मंदी की मार का विश्वव्यापी असर दिखाया गया है।
अमेरिकी ओम शास्त्री से लेकर देसी भाई साहब तक इस मंदी से दुखी और परेशान हैं। सुभाष कपूर ने सीमित बजट में उपलब्ध कलाकारों के सहयोग से अमेरिकी सब्जबाग पर करारा व्यंग्य किया है। अगर आप समझ सकें तो ठीक वर्ना हंसिए कि भाई साहब के पास थ्रेटनिंग कॉल के भी पैसे नहीं हैं।
सच कहते हैं कि कहानियां तो हमारे आसपास बिखरी पड़ी हैं। बारीक नजर और स्वस्थ दिमाग हो तो कई फिल्में लिखी जा सकती हैं। प्रेरणा और शूटिंग के लिए विदेश जाने की जरूरत नहीं है। महंगे स्टार, आलीशान सेट और नयनाभिरामी लोकेशन नहीं जुटा सके तो क्या.. अगर आपके पास एक मारक कहानी है तो वह अपनी गरीबी में भी दिल को भेदती हैं। क्या सुभाष कपूर को ज्यादा बजट मिलता और कथित स्टार मिल जाते तो फंस गए रे ओबामा का मनोरंजन स्तर बढ़ जाता? इसका जवाब सुभाष कपूर दे सकते हैं। दर्शक के तौर पर हमें फंस गए रे ओबामा अपनी सादगी, गरीबी और सीमा में ही तीक्ष्ण मनोरंजन दे रही है।
सिंपल सी कहानी है। आप्रवासी ओम शास्त्री गण कृत्वा, घृतम पीवेत की आधुनिक अमेरिकी कंज्यूमर जीवन शैली के आदी हो चुके हैं। मंदी की मार में अचानक सब बिखरता है तो उन्हें अपनी पैतृक संपत्ति का खयाल आता है। वे भारत पहुंचते हैं। यहां मंदी के मारे बेचारे छोटे अपराधी उन्हें मोटा मुर्गा समझ कर उठा लेते हैं। बाद में पता चलता है ओम शास्त्री की अंटी में तो धेला भी नहीं है। यहीं से मजेदार चक्कर शुरू होता है और हम एक-एक कर दूसरे अपराधियों से मिलते जाते हैं। हर अगला अपराधी पहले से ज्यादा शातिर और चालाक है, लेकिन उन सभी से अधिक स्मार्ट निकलते हैं ओम शास्त्री। वे खुद पर अपराधियों के ही दांव चलते हैं और अपना उल्लू सीधा करते जाते हैं।
फंस गए रे ओबामा उत्तर भारत के अपराध जगत के स्ट्रक्चर में नेताओं की मिलीभगत को भी जाहिर कर देती है। यह कोरी कल्पना नहीं है। यही वास्तविकता है। सुभाष कपूर बधाई के पात्र हैं कि वे अर्थहीन हो रही कामेडी के इस दौर में नोकदार बात कहने में सफल रहे। इसमें निश्चित ही उनके लेखन की मूल भूमिका है। उनके किरदारों को संजय मिश्र, रजत कपूर, मनु ऋषि, अमोल गुप्ते, सुमित निझावन और नेहा धूपिया ने अच्छी तरह से निभाया है। संजय मिश्र, मनु ऋषि और रजत कपूर विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। तीनों ने अपने किरदारों को अभिनय से अतिरिक्त आयाम दिया है।
खयाल ही नहीं आया कि फिल्म में गाने नहीं हैं।
**** चार स्टार