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कॉमन मैन अप्रोच है अक्षय कुमार का - सुभाष कपूर

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कॉमन मैन अप्रोच है अक्षय कुमार का -सुभाष कपूर सबसे पहले तो मैं अक्षय कुमार को बधाई दूंगा। उन्‍हें सर्वश्रेष्‍ठ अभिनेता का राष्‍ट्रीय पुरस्‍कार मिलना खुशी की बात है। हिंदी फिल्‍म इंडस्‍ट्री में अक्षय कुमार ऐसे अभिनेता रहे हैं,जो बार-बार ‘ राइट ऑफ ’ किए जाते रहे हैं। फिल्‍मी पत्र-पत्रिकाओं में ऐसी घोषणाएं होती रही हैं। समय-समय पर कथित एक्‍सपर्ट उनके अंत की भविष्‍यवाणियां करते रहे हैं। उनके करिअर की श्रद्धांजलि लिखी गई है। अक्षय कुमार अपनी बातचीत में इसका जिक्र करते हैं। इन बातों को याद रखते हुए वे आगे बढ़ते रहे हैं। अच्‍छा है कि एक मेहनती और अच्‍छे अभिनेता की प्रतिभा को राष्‍ट्रीय पुरस्‍कार ने रेखांकित किया है। अभी वे जैसी फिल्‍में कर रहे हैं,जैसे किरदार चुन रहे हैं,जैसे नए विषयों पर ध्‍यान दे रहे हैं,वैसे समय में उनको यह पुरस्‍कार मिलना बहुत मानी रखता है। अक्षय कुमार बहुत ही सरल अभिनेता हैं। वे मेथड नहीं अपनाते। वे नैचुरल और नैसर्गिक अभिनेता हैं। ‘ जॉली एलएलबी 2 ’ के अनुभव से कह सकता हूं कि वे किरदार और फिल्‍म पर लंबे विचार-विमर्श में नहीं फंसते। अपने किरदार को द

फिल्‍म समीक्षा : जॉली एलएलबी 2

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फिल्‍म रिव्‍यू सहज और प्रभावपूर्ण जॉली एलएलबी 2 -अजय ब्रह्मात्‍मज सुभाष कपूर लौटे हैं। इस बार वे फिर से जॉली के साथ आए हैं। यहां जगदीश त्‍यागी नहीं,जगदीश्‍वर मिश्रा हैं। व्‍यक्ति बदलने से जॉली के मिजाज और व्‍यवहार में अधिक फर्क नहीं आया है। लखनऊ में वकालत कर रहे जगदीश्‍वर मिश्रा उर्फ जॉली असफल वकील हैं। मुंशी के बेटे जगदीश्‍वर मिश्रा शहर के नामी वकील रिजवी के पंद्रहवें सहायक हैं। हां,उनके इरादों में कमी नहीं है। वे जल्‍दी से जल्‍दी अपना एक चैंबर चाहते हैं। और चाहते हैं कि उन्‍हें भी कोई केस मिले। अपनी तरकीबों में विफल हो रहे जगदीश्‍वर मिश्रा की जिंदगी में आखिर एक मौका आता है। पिछली फिल्‍म की तरह ही उसी एक मौके से जॉली के करिअर में परिवर्तन आता है। अपनी सादगी,ईमानदारी और जिद के साथ देश और समाज के हित वह मुकदमा जीतने के साथ एक मिसाल पेश करते हैं। जॉली एक तरह से देश का वह आम नागरिक है,जो वक्‍त पड़ने पर असाधारण क्षमताओं का परिचय देकर उदाहरण बनता है। हमारा नायक बन जाता है। सुभाष कपूर की संरचना सरल और सहज है। उन्‍होंने हमारे समय की आवश्‍यक कहानी को अपने पक्ष और सोच के साथ

मजेदार किरदार है जगदीश्‍वर मिश्रा- अक्षय कुमार

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-अजय ब्रह्मात्‍मज मंगलवार को जगदीश्‍वर मिश्रा फिल्‍मसिटी में ‘ द कपिल शर्मा शो ’ की शूटिंग कर रहे थे। लखनऊ के जगदीश्‍वर मिश्रा वकील की वेशभूषा में ही थे। कपिल शर्मा को भी पहली बार समझ में आया कि किसी वकील से मजाकिया जिरह करने में भी पसीने छूट सकते हैं। यह अलग बात है कि कपिल शर्मा की मेहनत का यह पसीना छोटे पर्दे पर हंसी बन कर बिखरेगा। शो से निकलत ही जगदीश्‍वर मिश्रा प्रशंकों से घिर गए। जो पास में थे,वे सेल्‍फी लेने लगे और जो दूर थे वे उनकी तस्‍वीरें उतारने लगे। जगदीश्‍वर मिश्रा की पैनी निगाहों से कोई बचा नहीं रहा। वे सभी का अभिनंदन कर रहे थे। इस बीच चलते-चलते ड्रेसमैन ने उनका काला कोट उतार दिया। जगदीश्‍वर मिश्रा ने कमीज ढीली की और परिचित मुस्‍कराहट के साथ अक्षय कुमार में तब्‍दील हो गए। आप सभी को पता ही है कि सुभाष कपूर की नर्द फिल्‍म ‘ जॉली एलएलबी2 ’ में अक्षय कूमार वकील जगदीश्‍वर मिश्रा की भूमिका निभा रहे हैं। वे पहली बार वकील का किरदार निभा रहे हैं। अनुशासित और समय के पाबंद अक्षय कुमार फिल्‍मों की रिलीज के पहले कुछ ज्‍यादा व्‍यस्‍त हो जाते हैं। उन्‍होंने इंटरव्‍यू के ल

मामूली लोग होते हैं मेरे किरदार -सुभाष कपूर

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- अजय ब्रह्मात्‍मज मैंने ‘ फंस गए रे ओबामा ’ खत्‍म करने के समय ही ‘ गुड्डू रंगीला ’ की स्क्रिप्‍ट लिखनी शुरू कर दी थी। बात ढंग से आगे नहीं बढ़ रही थी तो मैंने उसे छोड़ दिया और ‘ जॉली एलएलबी ’ पर काम शुरू कर दिया था। उस फिल्‍म को पूरी करने के दौरान ही मुझे ‘ गुड्डू रंगीला ’ का वैचारिक धरातल मिल गया। उसके बाद तो उसे पूरा करने में देर नहीं लगी। मैं स्क्रिप्‍ट जल्‍दी लिखता हूं। पत्रकारिता की मेरी अच्‍छी ट्रेनिंग रही है। समय पर स्‍टोरी हो जाती है। ‘ ग़ुड्डू रंगीला ’ के निर्माण में अमित साध के एक्‍सीडेंट की वजह से थोड़ी अड़चन आई , लेकिन फिल्‍म अब पूरी हो गई है। मुझे खुशी है कि मैं अपने काम से संतुष्‍ट हूं। जरूरी है वैचारिक धरातल मेरे लिए फिल्‍म का वैचारिक धरातल होना जरूरी है। आप मेरी फिल्‍मों में देखेंगे कि कोई न कोई विचार जरूर रहता है। मैं किसी घटना या समाचार से प्रेरित होता हूं। उसके बाद ही मेरे किरदार आते हैं। ‘ गुड्डू रंगीला ’ की शुरूआत के समय मेरे विचार स्‍पष्‍ट नहीं थे। यह तो तय था कि हरियाणा की पृष्‍ठभूमि रहेगी और उसमें खाप पंचायत की भी उल्‍लेख रहेगा। अटकने के

राष्‍ट्रीय फिल्‍म पुरस्‍कारों में युवा प्रतिभाएं छाईं

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-अजय ब्रह्मात्‍मज  फिल्मों के नेशनल अवार्ड के लिए इस साल ‘शाहिद’, ‘जॉली एलएलबी’, ‘थिप ऑफ थीसियस’ और ‘काफल’ के साथ ‘चेन्नई एक्सप्रेस’, ‘धूम 3’ ‘कृष 3’ जैसी फिल्में भी विचारार्थ थीं। सईद अख्तर मिर्जा के नेतृत्व में गठित निर्णायक मंडल ने हिंदी फिल्मों की उपधारा की फिल्मों को गुणवत्ता और कलात्मकता की दृष्टि से पुरस्कारों के योग्य समझा। यही वजह है कि ‘शाहिद’,‘जॉली एल एल बी’ और  ‘शिप ऑफ थिसियस’ और को दो-दो पुरस्कार मिले। पुरस्कारों की भीड़ में आज भी सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के फिल्म फेस्टिवल निदेशालय के अधीन जरी नेशनल अवार्ड का महत्व बना हुआ है। देश भर के फिल्म कलारों और तकनीशियनों को इसकी प्रतीक्षा रहती है। इस बार युवा और योग्य फिल्मकारों, कलाकारों और तकनीशियनों को पुरस्कृत किया है।     सर्वश्रेष्ठ निर्देशक के लिए पुरस्कृत ‘शाहिद’ के निर्देशक हंसल मेहता अपने पुरस्कार का श्रेय शाहिद आजमी को देते हैं। वे कहते हैं, ‘शाहिद आजमी के दृढ़ संघर्ष और जीवट ने मुझे इस फिल्म के लिए प्रेरित किया। भारतीय समाज में अल्पसंख्यकों के साथ हो रहे सामाजिक और सरकारी अत्याचार में शाहिद निहत्थे आरोपियों के

संग-संग : सुभाष कपूर-डिंपल खरबंदा

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हमसफर -अजय ब्रह्मात्मज जॉली एलएलबी के निर्देशक सुभाष कपूर ने पत्रकारिता से करिअर आरंभ किया। उन्हीं दिनों डिंपल से उनेी मुलाकात हुई। दोनों पहले दोस्त,फिर प्रेमी और आखिरकार पति-पत्नी बन गए। उनके सुखी दांपत्य का सीधा रहस्य है परस्पर विश्वास और एक-दूसरे की क्षमताओं को बढ़ावा देना। दोनों दिल्ली से मुंबई आ गए हैं। मुलाकात और परिचय सुभाष कपूर - पहली मुलाकात हमारी होम टीवी में हुई। जहां ये पहले से काम कर रही थीं। मुझे तारीख तक याद है। 2 जनवरी 1995 को हम मिले थे। करण थापर के साथ ऑफिस में मेरा पहला दिन था। पहले दिन जिन चार-पांच लोगों से मिला उनमें से एक डिंपल भी थीं। मुझे एक चीज बहुत स्ट्राइकिंग लगी थी। इनके टेबल पर जेम्स बांड की फिल्म ‘टुमोरो नेवर डाइज’ का दीवार से उखाड़ा पोस्टर लगा हुआ था। इन्होंने जिंस और जैकेट-टी शर्ट वगैरह पहन रखा था। गोरी-चिट्टी छोटे बालों की सुंदर लडक़ी को देख कर मैं दंग रह गया था। मैं तो हिंदी मीडियम से पढ़ कर आया था। ऐसी लड़कियां कहां देखता? डिंपल - मैं करनाल की हूं। मेरा परिवार पहले वहीं था। बाद में हमलोग दिल्ली चले आए। तकरीबन 14 साल की उम्र में दिल्

21वीं सदी का सिनेमा

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- अजय ब्रह्मात्मज             समय के साथ समाज बदलता है। समाज बदलने के साथ सभी कलारूपों के कथ्य और प्रस्तुति में अंतर आता है। हम सिनेमा की बात करें तो पिछले सौ सालों के इतिहास में सिनेमा में समाज के समान ही गुणात्मक बदलाव आया है। 1913 से 2013 तक के सफर में भारतीय सिनेमा खास कर हिंदी सिनेमा ने कई बदलावों को देखा। बदलाव की यह प्रक्रिया पारस्परिक है। आर्थिक , सामाजिक और राजनीतिक बदलाव से समाज में परिवर्तन आता है। इस परिवर्तन से सिनेमा समेत सभी कलाएं प्रभावित होती हैं। इस परिप्रेक्ष्य में हिंदी सिनेमा को देखें तो अनेक स्पष्ट परिवर्तन दिखते हैं। कथ्य , श्ल्पि और प्रस्तुति के साथ बिजनेस में भी इन बदलावों को देखा जा सकता है। हिंदी सिनेमा के अतीत के परिवर्तनों और मुख्य प्रवृत्तियों से सभी परिचित हैं। मैं यहां सदी बदलने के साथ आए परिवर्तनों के बारे में बातें करूंगा। 21 वीं सदी में सिनेमा किस रूप और ढंग में विकसित हो रहा है ?             सदी के करवट लेने के पहले के कुछ सालों में लौटें तो हमें निर्माण और निर्देशन में फिल्म बिरादरी का स्पष्ट वर्चस्व दिखता है। समाज के सभी क्षेत्रों क

फिल्‍म रिव्‍यू : जॉली एलएलबी

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-अजय ब्रह्मात्‍मज तेजिन्दर राजपाल - फुटपाथ पर सोएंगे तो मरने का रिस्क तो है। जगदीश त्यागी उर्फ जॉली - फुटपाथ गाड़ी चलाने के लिए भी नहीं होते। सुभाष कपूर की 'जॉली एलएलबी' में ये परस्पर संवाद नहीं हैं। मतलब तालियां बटोरने के लिए की गई डॉयलॉगबाजी नहीं है। अलग-अलग दृश्यों में फिल्मों के मुख्य किरदार इन वाक्यों को बोलते हैं। इस वाक्यों में ही 'जॉली एलएलबी' का मर्म है। एक और प्रसंग है, जब थका-हारा जॉली एक पुल के नीचे पेशाब करने के लिए खड़ा होता है तो एक बुजुर्ग अपने परिवार के साथ नमूदार होते हैं। वे कहते हैं साहब थोड़ा उधर चले जाएं, यह हमारे सोने की जगह है। फिल्म की कहानी इस दृश्य से एक टर्न लेती है। यह टर्न पर्दे पर स्पष्ट दिखता है और हॉल के अंदर मौजूद दर्शकों के बीच भी कुछ हिलता है। हां, अगर आप मर्सिडीज, बीएमडब्लू या ऐसी ही किसी महंगी कार की सवारी करते हैं तो यह दृश्य बेतुका लग सकता है। वास्तव में 'जॉली एलएलबी' 'ऑनेस्ट ब्लडी इंडियन' (साले ईमानदार भारतीय) की कहानी है। अगर आप के अंदर ईमानदारी नहीं बची है तो सुभाष कपूर की 'जॉली एलएलबी'

व्यंग्य निर्देशक सुभाष कपूर

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-अजय ब्रह्मात्मज     बाहर से आए निर्देशक के लिए यह बड़ी छलांग है। खबर है कि सुभाष कपूर विधू विनोद चोपड़ा और राज कुमार हिरानी की ‘मुन्नाभाई  ... ’ सीरिज की अगली कड़ी का निर्देशन करेंगे। पिछले हफ्ते आई इस खबर ने सभी को चौंका दिया। ‘मुन्नाभाई एमबीबीएस’ और ‘लगे रहो मुन्नाभाई’ के बाद ‘मुन्नाभाई चले अमेरिका’ की घोषणा हो चुकी थी। उसके फोटो शूट भी जारी कर दिए गए थे। राजकुमार हिरानी उस फिल्म को शुरू नहीं कर सके। स्क्रिप्ट नहीं होने से फिल्म अटकी रह गई। इस बीच राजकुमार हिरानी ने ‘3 इडियट’ पूरी कर ली। उसकी अपार और रिकार्ड सफलता के बाद वे फिर से आमिर खान के साथ ‘पीके’ बनाने में जुट गए हैं। इसी दरम्यान सुभाष कपूर को ‘मुन्नाभाई ....’ सीरिज सौंपने की खबर आ गई।     सुभाष कपूर और विधु विनोद चोपड़ा के नजदीकी सूत्रों की मानें तो यह फैसला अचानक नहीं हुआ है। राजकुमार हिरानी की व्यस्तता को देखते हुए यह जरूरी फैसला लेना ही था। ‘मुन्नाभाई ...’ सीरिज में दो फिल्में कर लेने के बाद राजकुमार हिरानी अन्यमनस्क से थे। शायद वे इस सीरिज से ऊब गए हों या नए विषयों का हिलोर उन्हें बहा ले जाता हो। ‘मुन्नाभाई ...’ के म

फिल्‍म समीक्षा : फंस गए रे ओबामा

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-अजय ब्रह्मात्‍मज बेहतरीन फिल्में सतह पर मजा देती हैं और अगर गहरे उतरें तो ज्यादा मजा देती हैं। फंस गए रे ओबामा देखते हुए आप सतह पर सहज ही हंस सकते हैं, लेकिन गहरे उतरे तो इसके व्यंग्य को भी समझ कर ज्यादा हंस सकते हैं। इसमें अमेरिका और ओबामा का मजाक नहीं उड़ाया गया है। वास्तव में दोनों रूपक हैं, जिनके माध्यम से मंदी की मार का विश्वव्यापी असर दिखाया गया है। अमेरिकी ओम शास्त्री से लेकर देसी भाई साहब तक इस मंदी से दुखी और परेशान हैं। सुभाष कपूर ने सीमित बजट में उपलब्ध कलाकारों के सहयोग से अमेरिकी सब्जबाग पर करारा व्यंग्य किया है। अगर आप समझ सकें तो ठीक वर्ना हंसिए कि भाई साहब के पास थ्रेटनिंग कॉल के भी पैसे नहीं हैं। सच कहते हैं कि कहानियां तो हमारे आसपास बिखरी पड़ी हैं। बारीक नजर और स्वस्थ दिमाग हो तो कई फिल्में लिखी जा सकती हैं। प्रेरणा और शूटिंग के लिए विदेश जाने की जरूरत नहीं है। महंगे स्टार, आलीशान सेट और नयनाभिरामी लोकेशन नहीं जुटा सके तो क्या.. अगर आपके पास एक मारक कहानी है तो वह अपनी गरीबी में भी दिल को भेदती हैं। क्या सुभाष कपूर को ज्यादा बजट मिलता और कथित स्टार मिल