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फिल्म समीक्षा : गोल्ड

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फिल्म समीक्षा : गोल्ड  एक और जीत  -अजय ब्रह्मात्मज  इस फिल्म में अक्षय कुमार हैं और इसके पोस्टर पर भी वे ही हैं. उनकी चर्चा बाद में. 'गोल्ड' के बारे में प्रचार किया गया है कि यह 1948 में लंदन में आयोजित ओलिंपिक में आजाद भारत की पहली जीत की कहानी है.तपन दास के निजी प्रयास और उदार वाडिया के सहयोग से यह संभव हो सका था.तपन दस 1936 के उस विख्यात मैच के साक्षी थे,जब बर्लिन में बिटिश इंडिया ने गोल्ड जीता था.तभी इम्तियाज़ और तपन दास ने सोचा था कि किसी दिन जीत के बाद भारत का तिरंगा लहराएगा.आखिरकार 22 सालों के बाद यह सपना साकार हुआ,लेकिन तब इम्तियाज़ पाकिस्तानी टीम के कप्तान थे और तपन दास भारतीय टीम के मैनेजर.तपन दास भारत के पार्टीशन की पृष्ठभूमि में मुश्किलों और अपमान के बावजूद टीम तैयार करते हैं और गोल्ड लाकर 200 सालों कि अंग्रेजों कि ग़ुलामी का बदला लेते हैं. 'गोल्ड' जैसी खेल फ़िल्में एक उम्मीद से शुरू होती है. बीच में निराशा,कलह,मारपीट और अनेक रोचक मोड़ों से होते हुए फतह की ओर बढती है.सभी खेल फ़िल्में या खिलाडियों के जीवन पर आधारित फिल्मों का मूल मंत्र हिंदी फ

अब मेरे पास लोगों के सवालों के जवाब हैंः अभिनेता विनीत कुमार सिंह

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-अजय ब्रह्मात्मज विनीत कुमार सिंह को एक उभरता हुआ अभिनेता कहना ठीक नहीं होगा। वे पिछले करीब 18 वर्षों से हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में सक्रिय हैं। कई फिल्मों में छोटे-छोटे किरदार निभाने के बाद अब जाकर इंडस्ट्री में उनकी खास पहचान बनी है।  विनीत कुमार सिंह ने करीब 18 साल पहले एक टैलेंट हंट के जरिये मुंबई फिल्म इंडस्ट्री में कदम रखा था। उन्होंने बहुत सारे छोटे-छोटे किरदार निभाये, फिल्म ‘चेन कुली की मेन कुली की’ (2007) का सहायक निर्देशन भी किया, लेकिन उनकी अलग पहचान बनी फिल्म ‘बॉम्बे टॉकीज’ (2013) और ‘गैंग्स ऑफ वासीपुर’ (2012) से। उसके बाद जब अनुराग कश्यप की ‘अग्ली’ (2013) का कान फिल्म फेस्टिवल में प्रदर्शन हुआ तो लोगों ने उनके अभिनय की काफी सराहना की। लेकिन अब भी वे बतौर अभिनेता कमर्शियल सफलता से दूर थे। लेकिन ये साल उनके लिए बहुत खुशकिस्मत रहा। ‘मुक्काबाज’ में उनके अभिनय और पटकथा को ना सिर्फ सराहा गया बल्कि फिल्म ने बॉक्स ऑफिस पर भी अच्छा प्रदर्शन किया। उसके बाद आई सुधीर मिश्र की ‘दास देव’, जिसका प्रदर्शन तो औसत रहा, लेकिन विनीत ने अपने सशक्त अभिनय से फिल्म में एक

सिनेमालोक : विनीत का लाजवाब गुस्सा

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मित्रों, लोकमत समाचार में मेरा नया कॉलम सिनेमालोक आरंभ हुआ है.आप के प्यार और प्रतिक्रिया का इंतज़ार रहेगा.  सिनेमालोक विनीत का लाजवाब गुस्सा -अजय ब्रह्मात्‍मज पिछले हफ्ते रिलीज हुई अनुराग कश्‍यप निर्देशित ‘मुक्‍काबाज’ में दर्शकों ने विनीत कुमार सिंह को नोटिस किया। उत्‍तर प्रदेश के बैकड्रॉप बनी इस फिल्‍म में अनुराग कश्‍यप ने स्‍‍थानीय राजनीतिक और सामाजिक विसंगतियों के बीच एक बेरोजगार युवक के बॉक्‍सर बनने की कहानी है। वह तमाम अवरोधों और बाधाओं के बीच जूझता है। अपनी जिद और कुछ शुभचिंतकों के सपोर्ट से बॉक्‍सर बनने का ख्‍वाब पूरा करता है,लेकिन....। इस लेकिन में फिल्‍म का क्‍लाइमेक्‍स है। हम फिल्‍म में मुख्‍य भूमिका अभिनेता विनीत कुमार सिंह ने निभाई है। सभी समीक्षाओं में विनीत कुमार सिंह की अदाकारी की तारीफ हुई है। अगर आप ट्वीटर पर उनका नाम सर्च करें तो तारीफ के अनेक ट्वीट मिल जाएंगे। फिल्‍म देखने के बाद शबाना आजमी ने अनुराग कश्‍यप की आत्‍मविश्‍वास के साथ वापसी का स्‍वागत करते हुए विनीत के लिए कुछ शब्‍द अलग से कहे। उन्‍होंने कहा कि मैंने भारतीय सिनेमा में अमिताभ बच्‍चन के

फिल्म समीक्षा : मुक्काबाज़

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सामाजिक विसंगतियों पर जोरदार मुक्‍का -अजय ब्रह्मात्‍मज ‘मुक्‍काबाज़’ रिलीज हो चुकी है। देखने वालों में से अधिकांश ने देख भी ली होगी। फिल्‍म पर आ रही समीक्षकों की प्रतिक्रियाएं सकारात्‍मक हैं। फिल्‍म में वे बहुत कुछ पा रहे हैं। कुछ बातों से वे हैरान हैं। और कुछ बातों से परेशान भी हैं। हिंदी फिल्‍मों में धर्म,जाति,वर्ण व्‍यवस्‍था और भेदभाव की मानसिकता कहानी का हिस्‍सा बन कर कम ही आती है। एक दौर था,जब श्‍याम बेनेगल के नेतृत्‍व में तमाम फिल्‍मकार सामजिक विसंगतियों पर जरूरी फिल्‍में बना रहे थे। उसमें स्‍पष्‍ट प्रतिबद्धता दिखती थे। नारे और सामाजिक बदलाव की आकांक्षा की अनुगूंज सुनाई पड़ती थी। ऐसी कोशिशों में फिल्‍म की भारतीय मनोरंजक परंपरा और दर्शकों की आह्लादित संतुष्टि कहीं छूट जाती थी। कई बार लगता था कि सब कुछ किताबी हो रहा है। तब वक्‍त था। हम सिद्धातों से शरमाते नहीं थे। यह 21 वीं सदी है। पिछले तीन सालों से देश में दक्षिणपंथी सोच की सरकार है। उनके अघोषित मूक संरक्षण में अंधराष्‍ट्रवाद और भगवा सोच का जोर बढ़ा है। ऐसे परिदृश्‍य में मुखर ‘मुक्‍काबाज़’ का आना साहसी बात है। अनुराग

फिल्‍म समीक्षा : अग्‍ली

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- अजय ब्रह्मात्‍मज  अग्ली अग्ली है सब कुछ अग्ली अग्ली हैं सपने अग्ली अग्ली हैं अपने अग्ली अग्ली हैं रिश्ते अग्ली अग्ली हैं किस्तें अग्ली अग्ली है दुनिया अब तो बेबी सबके संग हम खेल घिनौना खेलें मौका मिले तो अपनों की लाश का टेंडर ले लें बेबी लाश का टेंडर ले लें क्योंकि अग्ली अग्ली है सब कुछ।     अनुराग कश्यप की फिल्म 'अग्ली' के इस शीर्षक गीत को चैतन्य की भूमिका निभा रहे एक्टर विनीत कुमार सिंह ने लिखा है। फिल्म निर्माण और अपने किरदार को जीने की प्रक्रिया में कई बार कलाकार फिल्म के सार से प्रभावित और डिस्टर्ब होते हैं, लेकिन उनमें से कुछ ही भूमिका निभाने की उधेड़बुन को यों प्रकट कर पाते हैं। दरअसल, इस गीत के बोल में अनुराग कश्यप की फिल्म का सार है। फिल्म के थीम को गीतकार गौरव सोलंकी ने भी अपने गीतों में सटीक अभिव्यक्ति दी है। वे लिखते हैं, जिसकी चादर हम से छोटी, उसकी चादर छीन ली, जिस भी छत पर चढ़ गए हम, उसकी सीढ़ी तोड़ दी...या फिल्म के अंतिम भाव विह्वल दृश्य में बेटी के मासूम सवालों में उनके शब्द संगदिल दर्शकों के सीने में सूइयों की तरह चुभते हैं। इन दि