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Showing posts from May, 2016

दुनिया में अच्‍छे लोग हैं - नागेश कुकुनूर

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-स्मिता श्रीवास्‍तव नागेश कुकनूर की अगली फिल्म ‘धनक’ है। ‘ धनक ’ का अर्थ इंद्रधनुष है। फिल्‍म को अंतरराष्‍ट्रीय स्‍तर पर काफी सराहाना मिली है। बर्लिन फिल्म फेस्टिवल में बच्चों की श्रेणी में सर्वश्रेष्ठ फिल्म का अवार्ड भी मिला। पेश है नागेश से की गई बातचीत के प्रमुख अंश : - ‘राकफोर्ड’ के बाद आपने बच्चों साथ फिल्म न बनाने की कसम खाई थी। फिर ‘ धनक ’ कैसे बनाई ? मैंने यह बात इसलिए कही थी क्‍योंकि सेट पर बच्चों को डील करना बेहद कठिन काम होता है। रॉकफोर्ड में ढेर सारे बच्चे थे। उन्हें मैनेज करना बहुत मुश्किल रहा। मेरे खुद के बच्चे अभी नहीं है। लिहाजा मैं उनकी आदतों का आदी नहीं हूं। बच्चों साथ काम करने के दौरान बहुत बातों का ख्याल रखना पड़ता है। उनका मन बहुत कोमल होता है। आपकी कही बातें उनके मन मस्तिष्क में बैठ जाती हैं। आपकी किस बात पर वे क्या सोचते हैं ? उसे उन्होंने किस प्रकार लिया ? यह समझना बहुत मुश्किल है। एक्‍टर साथ यह समस्‍याएं नहीं आतीं। वे आपसे सहमत या असहमत हो सकते हैं। लिहाजा बच्‍चों साथ सोच-विचार कर काम करना होता है। हालांकि मैं सेट पर बच्चों को पुचका

फिल्‍म समीक्षा : वेटिंग

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सुकून के दो पल -अजय ब्रह्मात्‍मज अवधि- 107 मिनट स्‍टार – साढ़े तीन स्‍टार  दो उम्‍दा कलाकारों को पर्दे पर देखना आनंददायक होता है। अगर उनके बीच केमिस्‍ट्री बन जाए तो दर्शकों का आनंद दोगुना हो जाता है। अनु मेनन की ‘ वेटिंग ’ देखते हुए हमें नसीरूद्दीन शाह और कल्कि कोइचलिन की अभिनय जुगलबंदी दिखाई पड़ती है। दोनों मिल कर हमारी रोजमर्रा जिंदगी के उन लमहों को चुनत और छेड़ते हैं,जिनसे हर दर्शक अपनी जिंदगी में कभी न कभी गुजरता है। अस्‍पताल में कोई मरणासन्‍न अवस्‍था में पड़ा हो तो नजदीकी रिश्‍तेदारों और मित्रों को असह्य वेदना सं गुजरना पड़ता है। अस्‍पताल में भर्ती मरीज अपनी बीमारी से जूझ रहा होता है और बाहर उसके करीबी अस्‍पताल और नार्मल जिंदगी में तालमेल बिठा रहे होते हैं। अनु मेनन ने ‘ वेटिंग ’ में शिव और तारा के रूप में दो ऐसे व्‍यक्तियों को चुना है। शिव(नसीरूद्दीन शाह) की पत्‍नी पिछले छह महीने से कोमा में है। डॉक्‍टर उम्‍मीद छोड़ चुके हैं,लेकिन शिव की उम्‍मीद बंधी हुई है। वह लाइफ सपोर्ट सिस्‍टम नहीं हटाने देता। वह डॉक्‍टर को दूसरे मरीजों की केस स्‍टडी बताता है,जह

फिल्‍म समीक्षा : फोबिया

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डर का रोमांच -अजय ब्रह्मात्‍मज अवधि-113 मिनट स्‍टार- तीन स्‍टार   डर कहां रहता है ? दिमाग में,आंखों में या साउंड में ? फिल्‍मों में यह साउंड के जरिए ही जाहिर होता है। बाकी इमोशन के लिए भी फिल्‍मकार साउंड का इस्‍तेमाल करते हैं। कोई भी नई फिल्‍म या अनदेखी फिल्‍म आप म्‍यूट कर के दखें तो आप पाएंगे कि किरदारों की मनोदशा को आप ढंग से समझ ही नहीं पाए। हॉरर फिल्‍मों में संगीत की खास भूमिका होती है। पवन कृपलानी ने ‘ फोबिया ’ में संगीत का सटीक इस्‍तेमाल किया है। हालांकि उन्‍हें राधिका आप्‍टे जैसी समर्थ अभिनेत्री का सहयोग मिला है,लेकिन उनकी तकनीकी टीम को भी उचित श्रेय मिलना चाहिए। म्‍यूजिक डायरेक्‍टर डेनियल बी जार्ज,एडिटर पूजा लाढा सूरती और सिनेमैटोग्राफर जयकृष्‍ण गुम्‍मडी के सहयोग से पवन कृपलानी ने रोमांचक तरीके से डर की यह कहानी रची है। महक पेंटर है। वह अपनी दुनिया में खुश है। एक रात एग्‍जीबिशन से लौटते समय टैक्‍सी ड्रायवर उसे अकेला और थका पाकर नाजायज फायदा उठाने की कोशिश करता है। वह उस हादसे को भूल नहीं पाती और एक मनोरोग का शिकार हो जाती है। बहन अनु और दोस्‍त

फिल्‍म समीक्षा : वीरप्‍पन

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लौटे हैं रामू                -अजय ब्रह्मात्‍मज एक अंतराल के बाद रामगोपाल वर्मा हिंदी फिल्‍मों में लौटे हैं। उन्‍होंने अपनी ही कन्‍नड़ फिल्‍म ‘ किंलिंग वीरप्‍पन ’ को थोड़े फेरबदल के साथ हिंदी में प्रस्‍तुत किया है। रामगोपाल वर्मा की फिल्‍मोग्राफी पर गौर करें तो अपराधियों और अपराध जगत पर उन्‍होंने अनेक फिल्‍में निर्देशित की हैं। अंडरवर्ल्‍ड और क्रिमिनल किरदारों पर फिल्‍में बनाते समय जब रामगोपाल वर्मा अपराधियों के मानस को टटोलते हैं तो अच्‍छी और रोचक कहानी कह जाते हैं। और जब वे अपराधियों के कुक्त्‍यों और क्रिया-कलापों में रमते हैं तो उनकी फिल्‍में साधारण रह जाती हैं। ‘ वीरप्‍पन ’ इन दोनों के बीच अटकी है। ‘ वीरप्‍पन ’ कर्नाटक और तमिलनाडु के सीमावर्ती जंगलों में उत्‍पात मचा रखा था। हत्‍या,लूट,अपहरण,हाथीदांत और चंदन की तस्‍करी आदि से उसने आतंक फैला रखा था। कर्नाटक और तमिलनाडु के एकजुट अभियान के पहले वह चकमा देकर दूसरे राज्‍य में प्रवेश कर जाता था। दोनों राज्‍यों के संयुक्‍त अभियान के बाद ही उसकी गतिविधियों पर अंकुश लग सका। आखिरकार आपरेशन कोकुन के तहत 2004 में उसे मारा जा

उदासियों के वो पांच दिन- विक्‍की कोशल

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-अमित कर्ण विक्की कौशल नवोदित कलाकार हैं। उन्होंने अब तक दो फिल्में ‘मसान’ व ‘जुबान’ की हैं। दोनों दुनिया के प्रतिष्ठित फिल्म फेस्टिवल की शान रही है। ‘मसान’ के बाद अब उनकी ‘रमन राघव 2 .0 ’ भी कान फिल्म फेस्टिवल में चयनित हुई है। - कभी ऐसा ख्‍याल आता है कि क्यों ने फ्रांस में बस जाऊं। नहीं ऐसे विचार मन में कभी नहीं आते हैं। वहां गया या बसा भी तो कुछ दिनों बाद ही मुझे घर की दाल चाहिए होगी, जो वहां तो मिलने से रही। हां, वहां की आबोहवा मुझे पसंद है। उसमें रचनात्‍मकता घुली हुई है। लगता है वहां के लोग पैदाइशी रचनात्‍मक होते हैं। कान में पिछली बार ‘मसान’ के लिए जब नाम की घोषणा हुई तो लगा कि कदम जमीं पर नहीं हैं। दोनों के बीच कुछ पनीली सी चीज है, जिस पर तैरता हुआ मैं मंच तक जा रहा हूं। वह पल व माहौल सपना सा लगने लगा था। सिनेमा को बतौर क्राफ्ट वहां बड़ी गंभीरता से लिया जाता है। वहां सिने प्रेमियों को एक मुकम्मल व प्रतिस्पर्धी सिने माहौल दिया जाता है। -वहां फिल्मों की प्रीमियर के बाद क्या कुछ होता है। विश्‍वसिनेमा के विविधभाषी फिल्मकार कैसे संवाद स्‍थापित करते हैं। प्रीमियर

दरअसल : रमन राघव के साथ अनुराग कश्‍यप

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-अजय ब्रह्मात्‍मज अनुराग कश्‍यप ने ‘ बांबे वेलवेट ’ की असफलता की कसक को अपने साथ रखा है। उसे एक सबक के तौर पर वे हमेशा याद रखेंगे। उन्‍होंने हिंदी फिल्‍मों के ढांचे में कुछ नया और बड़ा करने की कोशिश की थी। मीडिया और फिल्‍म समीक्षकों ने ‘ बांबे वेलवेट ’ को आड़े हाथों लिया। फिल्‍म रिलीज होने के पहले से हवा बन चुकी थी। तय सा हो चुका था कि फिल्‍म के फेवर में कुछ नहीं लिखना है। ‍यह क्‍यों और कैसे हुआ ? उसके पीछे भी एक कहानी है। स्‍वयं अनुराग कश्‍यप के एटीट्यूड ने दर्जनों फिल्‍म पत्रकारों और समीक्षकों को नाराज किया। हिंदी फिल्‍म इंडस्‍ट्री और फिल्‍म पत्रकारिता में दावा तो किया जाता है कि सब कुछ प्रोफेशनल है,लेकिन मैंने बार-बार यही देखा कि ज्‍यादातर चीजें पर्सनल हैं। व्‍यक्तिगत संबंधों,मान-अपमान और लाभ-हानि के आधार पर फिल्‍मों और फिल्‍मकारों का मूल्‍यांकन होता है। इसमें सिर्फ मीडिया ही गुनहगार नहीं है। फिल्‍म इंडस्‍ट्री का असमान व्‍यवहार भी एक कारक है। कहते हैं न कि जैसा बोएंगे,वैसा ही काटेंगे। बहरहाल, ‘ बांबे वेलवेट ’ की असफलता को पीछे छोड़ कर अनुराग कश्‍यप ने ‘ रमन राघव 2.

सिस्‍टम की खामियों की पड़ताल

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तारणहार बनते कैरेक्‍टर कलाकार

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-अमित कर्ण हाल की कुछ फिल्‍मों पर नजर डालते हैं। खासकर ‘ बजरंगी भाईजान ’ , ‘ दिलवाले ’ , ‘मसान’, ‘ बदलापुर ’ , ‘ मांझी- द माउंटेनमैन ’ , ‘ हंटर ’ , पर। उक्‍त फिल्‍मों में एक कॉमन पैटर्न है। वह यह कि उन्‍हें लोकप्रिय करने में जितनी अहम भूमिका नामी सितारों की थी, उससे कम उन फिल्‍मों के ‘कैरेक्‍टर आर्टिस्‍ट‘ की नहीं थी। ‘ बजरंगी भाईजान ’ और ‘ बदलापुर ’ से नवाजुद्यीन सिद्यीकी का काम गौण कर दें तो वे फिल्‍में उस प्रतिष्‍ठा को हासिल नहीं कर पाती, जहां वे आज हैं। ‘मसान’ के किरदार आध्‍यात्मिक सफर की ओर ले जा रहे होते हैं कि बीच में पंकज त्रिपाठी आते हैं। शांत और सौम्‍य चित्‍त इंसान के किरदार में दिल को छू जाते हैं। ‘ दिलवाले ’ में शाह रुख-काजोल की मौजूदगी के बावजूद दर्शक बड़ी बेसब्री से संजय मिश्रा का इंतजार कर रहे होते हैं। थोड़ा और पीछे चलें तो ‘नो वन किल्‍ड जेसिका’ में सिस्‍टम के हाथों मजबूर जांच अधिकारी और ‘तनु वेड्स मनु रिटर्न्‍स’ में दत्‍तों के भाई बने राजेश शर्मा की अदाकारी अाज भी लोगों के जहन में है। ‘विकी डोनर’ की बिंदास दादी कमलेश गिल और सिंगल मदर बनी डॉली अहलूवालिय

मनोरोग के इलाज में शर्म कैसी - राधिका आप्‍टे

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- स्मिता श्रीवास्‍तव राधिका आप्टे सधे व सटीक कदम बढ़ा रही हैं। वह शॉर्ट फिल्म , थिएटर , वेब सीरीज और फिल्मों में संतुलन बना कर चल रही हैं। साउथ में भी सक्रिय हैं। हाल में उन्होंने रजनीकांत के साथ तमिल फिल्म की शूटिंग पूरी की है। 29 मई को उनकी फिल्म ‘ फोबिया ’ रिलीज हो रही। यह एग्रोफोबिया पर आधारित है। इस बीमारी से पीडि़त शख्स को अपने आसपास के माहौल से जुड़ी किसी भी सामाजिक स्थिति का सामना करने में घबराहट होती है। भीड़भाड़ वाली जगहों पर जाने से डरता है। वैसे लोगों को हमेशा डर सताता रहता है कि घर से बाहर निकलते ही बाहर की दुनिया उसे खत्म कर देगी। फिल्म के निर्देशक ‘ रागिनी एमएमएस ’ व ‘ डर: एट द मॉल ’ बना चुके पवन कृपलानी हैं।         राधिका कहती हैं ,‘ फोबिया एक लडक़ी महक की कहानी है। वह पेंटर है। मुंबई में अकेले रहती है। आत्मनिर्भर है। बहुत आत्मविश्वासी हैं। उसके साथ एक हादसा हो जाता है। उसकी वजह से वह एग्रोफोबिया से पीडि़त हो जाती है। हमारे देश में लोग इस बीमारी से ज्यादा वाकिफ नहीं हैं। अगर किसी को पैनिक अटैक आ जाए तो उसे पागल समझने लगते हैं। फिल्म के लिए पवन कृपलानी ने