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Showing posts from September, 2018

फिल्म लॉन्ड्री : आज़ादी के पहले की बोलती ऐतिहासिक फ़िल्में

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फिल्म लॉन्ड्री ऐतिहासिक फ़िल्में आज़ादी के पहले की बोलती फ़िल्में -अजय ब्रह्मात्मज ऐतिहासिक फिल्मों को इतिहास के तथ्यात्मक साक्ष्य के रूप में नहीं देखा जा सकता.इतिहासकारों की राय में ऐतिहासिक फिल्मे किस्सों और किंवदंतियों के आधार पर रची जाती हैं.उनकी राय में ऐतिहासिक फ़िल्में व्यक्तियों , घटनाओं और प्रसंगों को कहानी बना कर पेश करती हैं. उनमें ऐतिहासिक प्रमाणिकता खोजना व्यर्थ है. ऐतिहासिक फिल्मों के लेखक विभिन्न स्रोतों से वर्तमान के लिए उपयोगी सामग्री जुटते हैं. फिल्मों में वर्णित इतिहास अनधिकृत होता है.फ़िल्मकार इतिहास को अपने हिसाब से ट्रिविअलाइज और रोमांटिसाइज करके उसे नास्टैल्जिया की तरह पेश करते हैं. कुछ फ़िल्मकार पुरानी कहानियों की वर्तमान प्रासंगिकता पर ध्यान देते हैं.बाकी के लिए यह रिश्तों और संबंधों का ‘ओवर द टॉप ’ चित्रण होता है,जिसमें वे युद्ध और संघर्ष का भव्य फिल्मांकन करते हैं.इतिहास की काल्पनिकता का बेहतरीन उदहारण ‘बाहुबली ’ है. हाल ही में करण जौहर ने ‘तख़्त ’ के बारे में संकेत दिया कि यह एक तरह से ‘कभी ख़ुशी कभी ग़म ’ का ही ऐतिहासिक परिवेश में रूपांतरण होगा.फिल

फिल्म समीक्षा : बत्ती गुल मीटर चालू

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फिल्म समीक्षा बत्ती गुल मीटर चालू -अजय ब्रह्मात्मज श्रीनारायण सिंह की पिछली फिल्म ‘टॉयलेट एक प्रेमकथा' टॉयलेट की ज़रुरत पर बनी प्रेरक फिल्म थी.लोकप्रिय स्टार अक्षय कुमार की मौजूदगी ने फिल्म के दर्शक बढ़ा दिए थे.पीछ फिल्म की सफलता ने श्रीनारायण सिंह को फिर से एक बार ज़रूरी मुद्दा उठाने के लिए प्रोत्साहित किया.इस बार उन्होंने अपने लेखको सिद्धार्थ-गरिमा के साथ मिल कर बिजली के बेहिसाब ऊंचे बिल को विषय बनाया.और पृष्ठभूमि और परिवेश के लिए उत्तराखंड का टिहरी गढ़वाल शहर चुना. फिल्म शुरू होती है टिहरी शहर के तीन मनचले(एसके,नॉटी और सुंदर ) जवानों के साथ.तीनो मौज-मस्ती के साथ जीते है. एसके(शाहिद कपूर) चालाक और स्मार्ट है.और पेशे से वकील है.नॉटी(श्रद्धा कपूर) शहर की ड्रेस डिज़ाइनर है.वह खुद को मनीष मल्होत्रा से कम नहीं समझती.छोटे शहरों की हिंदी फिल्मों में सिलाई-कटाई से जुड़ी नौजवान प्र्र्धि में मनीष मल्होत्रा बहुत पोपुलर हैं.भला हो हिंदी अख़बारों का. आशंकित हूँ की कहीं ‘सुई धागा' में वरुण धवन भी खुद को मनीष मल्होत्रा न समझते हों.खैर,तीसरा सुंदर(दिव्येन्दु शर्मा) अपना व्यवसाय ज़माने की

फिल्म समीक्षा : मंटो

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फिल्म समीक्षा मंटो -अजय ब्रह्मात्मज नंदिता दास की ‘मंटो' 1936-37 के आसपास मुंबई में शुरू होती है. अपने बाप द्वारा सेठों के मनोरंजन के लिए उनके हवाले की गयी बेटी चौपाटी जाते समय गाड़ी में देविका रानी और अशोक कुमार की ‘अछूत कन्या' का मशहूर गीत ‘मैं बन की चिड़िया’ गुनगुना रही है.यह फिल्म का आरंभिक दृश्यबंध है. ‘अछूत कन्या' 1936 में रिलीज हुई थी. 1937 में सआदत हसन मंटो की पहली फिल्म ‘किसान कन्या’ रिलीज हुई थी. मंटो अगले 10 सालों तक मुंबई के दिनों में साहित्यिक रचनाओं के साथ फिल्मों में लेखन करते रहे. उस जमाने के पोपुलर स्टार अशोक कुमार और श्याम उनके खास दोस्त थे. अपने बेबाक नजरिए और लेखन से खास पहचान बना चुके मंटो ने आसान जिंदगी नहीं चुनी. जिंदगी की कड़वी सच्चाइयां उन्हें कड़वाहट से भर देती थीं. वे उन कड़वाहटों को अपने अफसानों में परोस देते थे.इसके लिए उनकी लानत-मलामत की जाती थी. कुछ मुक़दमे भी हुए. नंदिता दास ने ‘मंटो’ में उनकी जिंदगी की कुछ घटनाओं और कहानियों को मिलाकर एक मोनोग्राफ प्रस्तुत किया है. इस मोनोग्राफ में मंटो की जिंदगी और राइटिंग की झलक मात्र है. इस फिल

विशाल भारद्वाज की पटाखा

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विशाल भारद्वाज की पटाखा - अजय ब्रह्मात्मज पहले दीपिका पादुकोण की पीठ की परेशानी और फिर इरफ़ान खान के कैंसर की वजह से विशाल भारद्वाज को अगली फिल्म की योजना टालनी पड़ी.वे दुसरे कलाकारों के साथ उस फिल्म को नहीं बनाना कहते हैं.अभी के दौर में यह एक बड़ी घटना है , क्योंकि अभी हर तरफ ‘ तू नहीं और सही , और नहीं कोई और सही ’ का नियम चल रहा है.विशाल ने उसके साथ ही ‘ छूरियां ' के बारे में भी सोच रखा था.चरण सिंह पथिक की कहने ‘ दो बहनें ' पर आधारित इस फिल्म की योजना लम्बे समय से बन रही थी.संयोग ऐसा बना कि ‘ छूरियां ’ ही बैक बर्नर से  ‘ पटाखा ' बन कर सामने आ गयी. विशाल भारद्वाज ‘ पटाखा ' के साथ फिर से ‘ मकड़ी ' और ‘ मकबूल ' के दौर की सोच और संवेदना में लौटे हैं.सीमित बजट में समर्थ कलाकारों को लेकर मनमाफिक फिल्म बनाओ और सृजन का आनद लो. ‘ पटाखा ' में राधिका मदान , सान्या मल्होत्रा और सुनील ग्रोवर मुख्य भूमिकाओं में हैं.तीनों फिल्मों के लिहाज से कोई मशहूर नाम नहीं हैं.सुनील ग्रोवर कॉमेडी शो में विभिन्न किरदारों के रूप में आकर दर्शकों को हंसाते रहे हैं.खुद उन

सिनेमालोक : भट्ट साहब की संगत

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सिनेमालोक भट्ट साहब की संगत ( महेश भट्ट की 70 वें जन्मदिन पर खास) - अजय ब्रह्मात्मज कुछ सालों पहले तक महेश भट्ट से हफ्ते में दो बार बातें और महीने में दो बार मुलाकातें हो जाती थीं.आते-जाते उनके दफ्तर के पास से गुजरते समय कभी अचानक चले जाओ तो बेरोक उनके कमरे में जाने की छूट थी. यह छूट उन्होंने ने ही दी थी. हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के बात-व्यवहार को समझने की समझदारी उनसे मिली है.उनके अलावा श्याम बेनेगल ने मेरी फिल्म पत्रकारिता के आरंभिक दिनों में अंतदृष्टि दी. फिलहाल महेश भट्ट की संगत के बारे में.इसी हफ्ते गुरुवार 20 सितम्बर को उनका 70 वां जन्मदिन है. भट्ट साहब से मिलना तो 1982( अर्थ) और 1984( सारांश) में ही हो गया था. दिल्ली में रहने के दिनों में इन फिल्मों की संवेदना ने प्रभावित किया था.समानांतर सिनेमा की दो सक्षम अभिनेत्रियों(शबाना आज़मी और स्मिता पाटिल) की यह फिल्म वैवाहिक रिश्ते में स्त्री पक्ष को दृढ़ता से रखती है.घर छोड़ते समय पूजा का जवाब ऐसे रिश्तों को झेल रही तमाम औरतों को नैतिक ताकत दे गया था.इस एक फिल्म ने शबाना आज़मी को समकालीन अभिनेत्रियों में अजग जगह दिला दी थी.कई

फ़िल्म समीक्षा : वन्स अगेन

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फ़िल्म  समीक्षा  वन्स अगेन  -शोभा शमी वो खट से फोन रखती थी....... तारा.  वो फोन पर दूसरी तरफ आंखे मींचे टूं टूं टूं सुनता था........ अमर. तारा हर बार जब यूं फोन रखती है तब बुरा सा क्यों लगता है? हर कॉल पर लगता है कि अरे इतनी छोटी बात. अभी तो कुछ कहा ही नहीं. कोई ऐसी बात जो कुछ जता सके. ये एक दूसरे से कुछ कहते क्यों नहीं! कुछ नहीं कहते ऐसा जो शायद उन्हें कह देना था. या शायद यही खूबसूरती है कि वो कुछ नहीं कहते.  एक अजीब सी तसल्ली है उन दोनों के फोन कॉल्स में. जो प्रेम में पड़े किन्हीं दो लोगों में आसानी से दिख जाती है. एक इच्छा जो उनके चेहरे पर साफ पढ़ी जा सकती है. बहुत बारीक. बहुत महीन. उन फोन कॉल्स में ऐसी कोई बात नहीं है सिवाए उस चाहना के जो बिना कुछ कहे सबकुछ कहती जाती है.  दरअसल पूरी फिल्म ही ऐसी है जो कुछ नहीं कहती. जो प्रेम, चाहत और इच्छाओं की बात आखिर में करती है और बीच सारा वक्त उस प्रेम को बुनती रहती है.  और ये असल जीवन के इतनी करीब महसूस होता है कि ऐसा लगता है कि अपनी एक किश्त की डायरी पलट ली हो पूरी.  फिल्म जैसे स्मृतियों के रंग में है. हमारी अपनी स्मृत

फिल्म लॉन्ड्री : ऐतिहासिक फिल्मों का अतीत

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फिल्म लॉन्ड्री ऐतिहासिक फिल्मों का अतीत ( मूक फिल्मों   के दौर की ऐतिहासिक फिल्मों पर एक नज़र ) - अजय ब्रह्मात्मज हाल-फिलहाल में अनेक ऐतिहासिक फिल्मों की घोषणा हुई है.इन फिल्मों के निर्माण की प्रक्रिया विभिन्न चरणों में है. संभवत: सबसे पहले कंगना रनोट की ‘ मणिकर्णिका ’ आ जाएगी. इस फिल्म के निर्देशक दक्षिण के कृष हैं.फिल्म के लेखक विजयेंद्र प्रसाद हैं. विजयेंद्र प्रसाद ने ‘ बाहुबली 1-2' की कहानी लिखी थी. ‘ बाहुबली ’ की जबरदस्त सफलता ने ही हिंदी के फिल्मकारों को ऐतिहासिक फिल्मों के निर्माण के प्रति जागरूक और प्रेरित किया है.बाज़ार भी सप्पोर्ट में खड़ा है. करण जौहर की ‘ तख़्त ’ की घोषणा ने ऐतिहासिक फिल्मों के प्रति जारी रुझान को पुख्ता कर दिया है.दर्शक इंतजार में हैं. निर्माणाधीन घोषित ऐतिहासिक फिल्मों की सूची बनाएं तो उनमें ‘ मणिकर्णिका ’ और ‘ तख़्त ’ के साथ धर्मा प्रोडक्शन की कलंक , यशराज फिल्म्स   की ‘ शमशेरा ', यशराज की ही ‘ पृथ्वीराज ’, अजय देवगन की ‘ तानाजी ’, आशुतोष गोवारिकर की   पानीपत , अक्षय कुमार की केसरी , नीरज पांडे की ‘ चाणक्य ’ शामिल होंगी

फिल्म समीक्षा : गली गुलियाँ

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फिल्म समीक्षा गली गुलियाँ -अजय ब्रह्मात्मज दिल्ली के चांदनी चौक की तंग गलियों में से एक गली गुलियाँ  से गुजरें तो एक  पुराने जर्जर मकान में खुद्दुस मिलेगा. बिखरे बाल, सूजी आंखें,मटमैले पजामे-कमीज़ में बदहवास खुद्दुस बाहरी दुनिया से कटा हुआ इंसान है. उसने अपनी एक दुनिया बसा ली है. गली गुलियाँ में उसने जहां-तहां सीसीटीवी कैमरे लगा रखे हैं. वह अपने कमरे में बैठा गलियों की गतिविधियों पर नजर रखता है. वह एक बेचैनी व्यक्ति है. उसे एक बार पीछे के मकान से मारपीट और दबी सिसकियों की आवाज सुनाई पड़ती है. गौर से सुनने पर उसे लगता है कि बेरहम पिता अपने बेटे की पिटाई करता है. खुद्दुस उसके बारे में विस्तार से नहीं जान पाता. उसकी बेचैनी बढ़ती जाती है. वह अपनी  बेचैनी को खास दोस्त गणेशी से शेयर करता है. अपने कमरे में अकेली जिंदगी जी रहे खुद्दुस  का अकेला दोस्त गणेशी ही उसकी नैतिक  और आर्थिक मदद करता रहता है. वह उसे डांटता-फटकारता और कमरे से निकलने की हिदायत देता है.खुद्दुस एक बार हाजत में बंद होता है तो वही उसे छुदाता है.पता चलता है कि गली गुलियाँ से निकल चुके अपने ही छोटे भाई से उसकी नहीं निभत