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फैंटम के पीछे की सोच

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-अजय ब्रह्मात्‍मज मुंबई में आए दिन फिल्मों की लॉन्चिंग, फिल्म कंपनियों की लॉन्चिंग या फिल्म से संबंधित दूसरे किस्म के इवेंट होते रहते हैं। इनका महत्व कई बार खबरों तक ही सीमित रहता है। मुहूर्त और घोषणाओं की परंपरा खत्म हो चुकी है। कॉरपोरेट घराने शो बिजनेस से तमाशा हटा रहे हैं। वे इस तमाशे को विज्ञापन बना रहे हैं। उनके लिए फिल्में प्रोडक्ट हैं और फिल्म से संबंधित इवेंट विज्ञापन...। सारा जोर इस पर रहता है कि फिल्म की इतनी चर्चा कर दो कि पहले ही वीकएंड में कारोबार हो जाए। पहले हफ्ते में ही बड़ी से बड़ी फिल्मों का कारोबार सिमट गया है। इस परिप्रेक्ष्य में मुंबई के यशराज स्टूडियो में नई प्रोडक्शन कंपनी फैंटम की लॉन्चिंग विशेष रूप से उल्लेखनीय है। यश चोपड़ा, यशराज फिल्म्स और यशराज स्टूडियो हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में कामयाबी के साथ खास किस्म की फिल्मों के एक संस्थान के रूप में विख्यात है। पिता यश चोपड़ा और पुत्र आदित्य चोपड़ा के विजन से चल रहे इस संस्थान के साथ हिंदी फिल्म इंडस्ट्री का लंबा इतिहास जुड़ा है। सफल और मशहूर यश चोपड़ा की फिल्मों ने ही समकालीन हिंदी सिनेमा की दिशा और जमीन तैयार की है।

फ़िल्म समीक्षा:न्यूयार्क

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दोस्ती, प्यार, आतंकवाद व अमेरिका -अजय ब्रह्मात्मज कबीर खान सजग फिल्मकार हैं। पहले काबुल एक्सप्रेस और अब न्यूयार्क में उन्होंने आतंकवाद के प्रभाव और पृष्ठभूमि में कुछ व्यक्तियों की कथा बुनी है। हर बड़ी घटना-दुर्घटना कुछ व्यक्तियों की जिंदगी को गहरे रूप में प्रभावित करती है। न्यूयार्क में 9/11 की पृष्ठभूमि और घटना है। इस हादसे की पृष्ठभूमि में हम कुछ किरदारों की बदलती जिंदगी की मुश्किलों को देखते हैं। उमर (नील नितिन मुकेश) पहली बार न्यूयार्क पहुंचता है। वहां उसकी मुलाकात पहले माया (कैटरीना कैफ) और फिर सैम (जान अब्राहम) से होती है। तीनों की दोस्ती में दो प्रेम कहानियां चलती हैं। उमर को लगता है कि माया उससे प्रेम करती है, जबकि माया का प्रेम सैम के प्रति जाहिर होता है। हिंदी फिल्मों की ऐसी स्थितियों में दूसरा हीरो त्याग की मूर्ति बन जाता है। यहां भी वही होता है, लेकिन बीच में थोड़ा एक्शन और आतंकवाद आता है। आतंकवाद की वजह से फिल्म का निर्वाह बदल जाता है। स्पष्ट है कि उमर और सैम यानी समीर मजहब से मुसलमान हैं। उन पर अमेरिका की खुफिया एजेंसी एफबीआई को शक होता है। कहते हैं 9/11 के बाद अमेरिका म

क्या अपनी फिल्में देखते हैं यश चोपड़ा?

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-अजय ब्रह्मात्मज फिल्म टशन की रिलीज और बॉक्स ऑफिस पर उसके बुरे हश्र के बाद यही सवाल उठ रहा है कि क्या यश चोपड़ा अपनी फिल्में देखते हैं? चूंकि वे स्वयं प्रतिष्ठित निर्देशक हैं और धूल का फूल से लेकर वीर जारा तक उन्होंने विभिन्न किस्म की सफल फिल्में दर्शकों को दी हैं, इसलिए माना जाता है कि वे भारतीय दर्शकों की रुचि अच्छी तरह समझते हैं। फिर ऐसा क्यों हो रहा है कि यशराज फिल्म्स की पांच फिल्मों में से चार औसत से नीचे और सिर्फ एक औसत या औसत से बेहतर फिल्म हो पा रही है। ऐसा तो नहीं हो सकता कि रिलीज के पहले ये फिल्में उनकी नजरों से नहीं गुजरी हों! क्या यश चोपड़ा की सहमति से इतनी बेकार फिल्में बन रही हैं? नील एन निक्की, झूम बराबर झूम जैसी फिल्मों को देखकर कोई भी अनुभवी निर्देशक उनका भविष्य बता सकता है? खास कर यश चोपड़ा जैसे निर्देशक के लिए तो यह सामान्य बात है, क्योंकि पिछले 60 सालों में उन्होंने दर्शकों की बदलती रुचि के अनुकूल कामयाब फिल्में दी हैं। वीर जारा उनकी कमजोर फिल्म मानी जाती है, लेकिन टशन और झूम बराबर झूम के साथ उसे देखें, तो कहना पड़ेगा कि वह क्लासिक है। दिल तो पागल है के समय यश चोपड