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फिल्‍म समीक्षा - महायोद्धा राम

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रावण के नजरिए से महायोद्धा राम -अजय ब्रह्मात्‍मज हिंदी में एनीमेशन फिल्‍में कम बनती हैं। एलीमेशन को मुख्‍य रूप से कार्टून और विज्ञापनों तक सीमित कर दिया गया है। कुछ सालों पहले एक साथ कुछ फिल्‍में आई थीं। उन्‍हें भी बच्‍चों को ध्‍यान में रख कर बनाया गया था। यही बात ‘ महायोद्धा राम ’ के बारे में भी कही जा सकती है। रोहित वैद के निर्देशन में बनी इस एनीमेशन फिल्‍म में राम की कहानी है। रामलीला देख चुके और रामचरित मानस पढ़ चुके दर्शकों को यह एनीमेशन फिल्‍म देखते हुए उलझन हो सकती है। एक तो लेखक ने ‘ महायोद्धा राम ’ की कहानी रावण के नजरिए से लिखी है। फिल्‍म देखते हुए प्रसंग और घटनाओं के चित्रण में रावण की साजिश दिखाई गई है। राम के बाल काल से लेकर अंतिम युद्ध तक रावण की क्रिया और राम की प्रतिक्रिया है। रावण को पहले ही दृश्‍य में राक्षस बता दिया जाता है और राम को अवतार बताया गया है। राक्षस किसी भी तरह अवतार के इहलीला समाप्‍त करना चाहता है। रामकथा के क्रम और कार्य व्‍यापार में भी तब्‍दीली की गई है। किरदारों के एनीमेशन स्‍वरूप गढ़ने में कल्‍पना का अधिक सहारा नहीं लिया गया है।

कान में भारत का डंका : नीरज घेवन की मसान

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-अजय ब्रह्मात्मज     नीरज घेवन की फिल्म ‘मसान’ इस साल कान फिल्म फेस्टिवल के अनसर्टेन रिगार्ड खंड में प्रदर्शित होगी। 2010 में विक्रमादित्य मोटवाणी की फिल्म ‘उड़ान’ भी इसी खंड के लिए चुनी गई थी। कान फिल्म फेस्टिवल में सुंदरियों की परेड की तस्वीरें तो हम विस्तार से छपते और देखते हैं, लेकिन युवा फिल्मकारों की उपलब्धियों पर हमारा ध्यान नहीं जाता। नीरज घेवन की फिल्म ‘मसान’ की पृष्ठभूमि बनारस की है। यह श्मशान के इर्द-गिर्द चल रहे कुछ किरदारों की तीन कहानियों का संगम है।     नीरज घेवन खुद को ‘दिल से भैया’ कहते हैं। उनका दिल बनारस में लगता है। मराठी मां-बाप की संतान नीरज का जन्म हैदराबाद में हुआ। वहीं आरंभिक पढ़ाई-लिखाई हुई। पारिवारिक और सामाजिक दवाब में उन्होंने इंजीनियरिंग की पढ़ाई की। फिर एमबीए किया और फिर मोटी पगार की एक नौकरी भी कर ली। कॉलेज के दिनों में एफटीआईआई से आए एक समर नखाटे के लिए फिल्म संबंधी एक लेक्चर का ऐसा असर रह गया कि सालों बाद वह सिनेमा में रुचि के अंकुर की तरह फूटा। फिल्मों के मशहूर ब्लॉग ‘पैशन फॉर सिनेमा’ से परिचय हुआ। सिनेमा की रुचि शब्दों में ढलने लगी। आत्मविश्वास क

फिल्‍म समीक्षा : शांघाई-वरूण ग्रोवर

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वरूण ग्रोवर ने शांघाई की यह पर लिखी है। उनसे पूछे बगैर मैंने उसे चवन्‍नी के पाठकों के लिए यहां पोस्‍ट किया है। moifightclub.wordpress.com/2012/06/11/%E0%A4%9C%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A5%87-%E0%A4%AD%E0%A5%80-%E0%A4%A6%E0%A5%8B-%E0%A4%B6%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%98%E0%A4%BE%E0%A4%88/ आनंद लें। नोट: इस लेख में कदम-कदम पर spoilers हैं. बेहतर यही होगा कि फिल्म देख के पढ़ें. (हाँ, फिल्म देखने लायक है.) आगे आपकी श्रद्धा. मुझे नहीं पता मैं लेफ्टिस्ट हूँ या राइटिस्ट. मेरे दो बहुत करीबी, दुनिया में सबसे करीबी, दोस्त हैं. एक लेफ्टिस्ट है एक राइटिस्ट. (वैसे दोनों को ही शायद यह categorization ख़ासा पसंद नहीं.) जब मैं लेफ्टिस्ट के साथ होता हूँ तो undercover-rightist होता हूँ. जब राइटिस्ट के साथ होता हूँ तो undercover-leftist. दोनों के हर तर्क को, दुनिया देखने के तरीके को, उनकी political understanding को, अपने अंदर लगे इस cynic-spray से झाड़ता रहता हूँ. दोनों की समाज और राजनीति की समझ बहुत पैनी है, बहुत नयी भी. अपने अपने क्षेत्र में दोनों शायद सबसे revolutionary, सबसे संजीदा विचार ले