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Showing posts from November, 2014

श्रद्धांजलि : सितारा देवी

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बोटी-बोटी थिरकती थी सितारा देवी की -अजय ब्रह्मात्मज सितारा देवी नहीं रहीं। 72 साल की भरपूर जिंदगी जीने के बाद वह चिरनिद्रा में सो गईं। अपने उत्साह,जोश,ऊर्जा और नृत्य की वजह से वह हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में सभी की चहेती रहीं। उन्होंने अपनी शर्तों पर जिंदगी जी और नृत्य के लिए समर्पित रहीं। बनारस के सुखदेव महाराज की बेटी सितारा देवी ने बचपन से ही कथक का अभ्यास किया। तत्कालीन बनारस में उनके घर से आती घुंघरुओं की आवाज पर पड़ोसियों ने आपत्ति भी की,लेकिन उनके पिता ने किसी की नहीं सुनी। वे कहा करते थे कि अगर राधा ने कृष्ण के लिए नृत्य किया तो उनकी बेटियां क्यों नहीं नृत्य कर सकतीं? उनके पिता ने कथक को धार्मिक परिप्रेक्ष्य दिया। वे उसे कोठों से मंच पर ले आए। सितारा देवी ने बाद में कथक शैली में तांडव और लास्य तक की प्रस्तुति की। पिता के प्रोत्साहन से सितारा देवी ने हमेशा अपने मन की बात सुनी। उन्होंने कभी जमाने की परवाह नहीं की। चूंकि वह दीपावली के दिन पैदा हुई थीं,इसलिए उनका नाम धनलक्ष्मी रखा गया था। प्यार से उन्हें सभी धन्नो कहते थे। बाद में उनके पिता ने ही उन्हें सितारा नाम दिया। गुरू रवींद्र

खानाबदोश अभिनेता आदिल हुसैन

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-अजय ब्रह्मात्मज हिंदी फिल्मों के दर्शकों ने आदिल हुसैन को सबसे पहले अभिषेक चौबे की फिल्म ‘इश्किया’ में देखा था। अभिषेक चौबे ने उनका नाटक ओथेलो देख रखा था। उन्हें विद्याधर शर्मा की भूमिका के लिए आदिल हुसैन जैसा ही इंटेंस एक्टर चाहिए था। आरंभिक झिझक के बाद आदिल हुसैन मान गए थे। उसके बाद वे ‘इंग्लिश विंग्लिश’ के सतीश गोडबोले, ‘लुटेरा’ के केएन सिंह और ‘एक्सपोज’ के किरदारों में दिखे। उन सभी किरदारों में वे ग्रे शेड की डार्क भूमिकाओं में थे। अपनी बन रही इमेज से अलग भूमिका में वे डॉ.चंद्रप्रकाश द्विवेद्वी की ‘जेड प्लस’ में दिखेंगे। इस फिल्म में उन्होंने असलम खान की भूमिका निभाई है, जो फतेहपुर कस्बे में पंक्चर की दुकान चलाता है। इसी शहर में पीपल वाले पीर की दरगाह है। दरगाह में जिस दिन का वह खादिम है, उसी दिन प्रधानमंत्री का आगमन होता है। दोनों की मुलाकात में भाषा की दिक्कत से गफलत पैदा होती है। असलम को प्रधानमंत्री की जेड प्लस सुरक्षा मिल जाती है। उनके रहम से असलम की जिंदगी की दिनचर्या बदल जाती है।     इन दिनों आदिल हुसैन ज्यादातर समय ‘जेड प्लस’ से संबंधित इंटरव्यू और प्रचार में निक

रंग रसिया - फिल्मी पर्दे को कैनवस में बदलता सिनेमा : मृत्युंजय प्रभाकर

रंग रसिया जब से देखी थी तब से मेरे भीतर एक खास तरह की बेचैनी घर कर गई थी। मुझे इस फिल्म पर लिखना ही था। इस बीच कई सांसारिक बाधाएं बीच में आईं जिनके कारण लिखना संभव नहीं हो पा रहा था लेकिन इस फिल्म के ऊपर अपनी बात दर्ज करने का मौका मैं किसी भी तरह जाया नहीं करना चाहता था। सो लिख रहा हूं या कहें मेरे अंदर का चेतस मुझसे लिखवा ले रहा है।   ‘ रंग रसिया ’ पर लिखने या कुछ कहने से पहले मैं यह साफ कर देना चाहता हूं कि मैं इसे एक महान फिल्म की श्रेणी में नहीं रखता। वैश्विक तो छोड़ दीजिए भारत में बनी महान फिल्मों की श्रेणी में भी इसे नहीं रखा जा सकता। हां , इसे एक बेहतर फिल्म मानने में कोई गुरेज नहीं है। ‘ मिडल आॅफ द रोड सिनेमा ’ की श्रेणी में बनी फिल्मों में एक बेहतर फिल्म जो आम दर्शकों को भी ध्यान में रखकर बनाई गई है। ‘ मिडल आॅफ द रोड सिनेमा ’ कला और व्यावसायिक फिल्मों के बीच की एक ऐसी श्रेणी है जिसे दोनों वर्गों को