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दरअसल : महत्वपूर्ण फिल्म है रोड टू संगम

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-अजय ब्रह्मात्‍मज पिछले दिनों मुंबई में आयोजित मामी फिल्म फेस्टिवल में अमित राय की फिल्म रोड टू संगम को दर्शकों की पसंद का अवार्ड मिला। इन दिनों ज्यादातर इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में दर्शकों की रुचि और पसंद को तरजीह देने के लिए आडियंस च्वॉयस अवार्ड दिया जाता है। ऐसी फिल्में दर्शकों को सरप्राइज करती हैं। सब कुछ अयाचित रहता है। पहले से न तो उस फिल्म की हवा रहती है और न ही कैटेगरी विशेष में उसकी एंट्री रहती है। रोड टू संगम सीमित बजट में बनी जरूरी फिल्म है। इसके साथ दो अमित जुड़े हैं। फिल्म के निर्माता अमित छेड़ा हैं और फिल्म के निर्देशक अमित राय हैं। यह फिल्म अमित राय ने ही लिखी है। उन्होंने एक खबर को आधार बनाया और संवेदनशील कथा गढ़ी। गांधी जी के अंतिम संस्कार के बाद उनकी अस्थियां अनेक कलशों में डालकर पूरे देश में भेजी गई थीं। एक अंतराल के बाद पता चला था कि गांधी जी की अस्थियां उड़ीसा के एक बैंक के लॉकर में रखी हुई हैं। कभी किसी ने उस पर दावा नहीं किया। अमित राय की फिल्म में उसी कलश की अस्थियों को इलाहाबाद के संगम में प्रवाहित करने की घटना है। गांधी जी की मृत्यु के बाद उनकी अस्थियां इलाहा

लोकतंत्र का प्रचार

-अजय ब्रह्मात्मज फिल्म स्टारों के इस भ्रम को बाजार अपने स्वार्थ की वजह से मजबूत करता है कि लोकप्रिय सितारों की संस्तुति से उत्पादों की बिक्री बढ़ती है। हालांकि अभी तक इस बात को लेकर कोई ठोस शोध और सर्वेक्षण उपलब्ध नहीं है कि फिल्म स्टारों के विज्ञापन किसी उत्पाद की बिक्री में कितने प्रतिशत का उछाल लाते हैं? सार्वजनिक जीवन में फिल्म स्टारों की उपयोगिता बढ़ी है। जनहित के कई विज्ञापनों में फिल्म स्टारों का उपयोग किया जा रहा है। सारे लोकप्रिय और बड़े स्टार ऐसे विज्ञापनों को अपना सामाजिक दायित्व मानते हैं। इस बार चुनाव की घोषणा के साथ ही आमिर खान समेत फिल्म बिरादरी के अनेक सदस्यों ने सक्रियता दिखाई। वे विभिन्न संस्थाओं के जागरूकता अभियानों से जुड़े। सभी इस बात को लेकर निश्चित थे कि मतदाताओं को जागरूक बनाने में फिल्म स्टार सफल रहेंगे। कुछ सिने स्टारों ने इस दिशा में काफी प्रयास भी किया। उन्होंने वोट देने से लेकर प्रत्याशियों के चुनाव तक में सावधानी बरतने तक की सलाह दी। एड व‌र्ल्ड के पंडितों की मदद से श्लोक गढ़े गए और विभिन्न माध्यमों से उनका गुणगान किया गया। रेडियो, टीवी, अखबार, बैनर और पोस्ट

फ़िल्म समीक्षा:8x10 तस्वीर

भेद खुलते ही सस्पेंस फिस्स नागेश कुकुनूर ने कुछ अलग और बड़ी फिल्म बनाने की कोशिश में अक्षय कुमार के साथ आयशा टाकिया को जोड़ा और एक नई विधा में हाथ आजमाने की कोशिश की। इस कोशिश में वे औंधे मुंह तो नहीं गिरे, लेकिन उनकी ताजा पेशकश पिछली फिल्मों की तुलना में कमजोर रही। कहा जा सकता है कि कमर्शियल कोशिश में वे कामयाब होते नहीं दिखते। नागेश वैसे निर्देशकों के लिए केस स्टडी हो सकते हैं, जो अपनी नवीनता से चौंकाते हैं। उम्मीदें जगाते हैं, लेकिन आगे चलकर खुद हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के कोल्हू में जुतने को तैयार हो जाते हैं। अपनी पहली फिल्म हैदराबाद ब्लूज से उन्होंने प्रभावित किया था। डोर तक वह संभले दिखते हैं। उसके बाद से उनका भटकाव साफ नजर आ रहा है। 8/10 तस्वीर में नागेश ने सुपर नेचुरल शक्ति, सस्पेंस और एक्शन का घालमेल तैयार किया है। जय पुरी की अपनी पिता से नहीं निभती। वह उनके बिजनेश से खुश नहीं है। पिता-पुत्र के बीच सुलह होने के पहले ही पिता की मौत हो जाती है। जय को शक है कि उसके पिता की हत्या की गई है। जय अपनी सुपर नेचुरल शक्ति से हत्या का सुराग खोजता है। उसके पास अद्भुत शक्ति है। वह तस्वीर के

फ़िल्म समीक्षा:वफ़ा

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दर्दनाक अनुभव काका उर्फ राजेश खन्ना की फिल्म वफा से उम्मीद नहीं थी। फिर भी गुजरे जमाने के इस सुपर स्टार को देखने की लालसा थी। यह उत्सुकता भी थी कि वापसी की फिल्म में वह क्या करते हैं? हिंदी फिल्मों के पहले सुपर स्टार राजेश खन्ना ने कभी अपने अभिनय और अनोखी शैली से दर्शकों को दीवाना बना दिया था। दूज के चांद जैसी अपनी मुस्कराहट और सिर के झटकों से वह युवाओं को सम्मोहित करते थे। आरंभिक सालों में लगातार छह हिट फिल्मों का रिकार्ड भी उनके नाम है। फिर इस सुपरस्टार को हमने गुमनामी में खोते भी देखा। वफा से एक छोटी सी उम्मीद थी कि वह अमिताभ बच्चन जैसी नहीं तो कम से कम धर्मेंद्र जैसी वापसी करेंगे। लगा जवानी में दर्शकों के चहेते रहे राजेश खन्ना को प्रौढ़ावस्था में देखना एक अनुभव होगा। अनुभव तो हुआ, मगर दर्दनाक। एक अभिनेता, स्टार और सुपरस्टार के इस पतन पर। क्या वफा से भी घटिया फिल्म बनाई जा सकती है? फिल्म देखने के बाद बार-बार यही सवाल कौंध रहा है कि राजेश खन्ना ने इस फिल्म के लिए हां क्यों की? किसी भी फिल्म की क्रिएटिव टीम से पता चल जाता है कि वह कैसी बनेगी? अपने समय के तमाम मशहूर निर्माता-निर्देशको

दरअसल: गल करो, भाई गल करो, सारे मसले हल करो..

-अजय ब्रह्मात्मज भारत में मौजूद पाकिस्तानी कलाकार मुंबई में हुए ताज़ा हमले के कुछ दिनों के अंदर एक-एक कर अपने देश लौट गए। मुंबई में बने विरोधी माहौल को देखते हुए उन्होंने सही फैसला लिया। कहना मुश्किल है कि वे कितनी जल्दी फिर से अपने सपनों की तलाश में भारत आ पाएंगे! मुंबई की हिंदी फिल्म इंडस्ट्री का एक तबका तो शुरू से उनका विरोधी रहा है। उनका तर्क होता है कि क्या भारत में इतनी प्रतिभाएं नहीं हैं कि हम पाकिस्तान से कलाकारों को लाएं? एक सवाल यह भी पूछा जाता है कि वे हमारे कलाकारों को अपने यहां आने की इजाजत क्यों नहीं देते? दोनों तरह के सवालों में इसी जवाब की उम्मीद रहती है कि पाकिस्तान से हम अपने सांस्कृतिक संबंध खत्म कर लें। इस बार भी हमले के दस दिनों के अंदर हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के कुछ लोगों ने जुलूस निकाला और पाकिस्तानी कलाकारों को खदेड़ने की बात की। गौर करें, तो पाएंगे कि इस जुलूस में ज्यादातर असफल कलाकार शामिल हुए। शायद उन्हें यह महसूस होता है कि यदि पाकिस्तानी कलाकार नहीं रहेंगे, तो उन्हें काम मिल जाएगा। देखें, तो पाकिस्तानी कलाकारों ने हिंदी फिल्मों को नए स्वर और सुर दिए हैं। हाल-

फ़िल्म समीक्षा:दसविदानिया

अवसाद में छिपा हास्य -अजय ब्रह्मात्मज अलग मिजाज की फिल्म को पसंद करने वालों के लिए दसविदानिया उपहार है। चालू फार्मूले और स्टार के दबाव से बाहर निकल कर कुछ निर्देशक ऐसी फिल्में बना रहे हैं। शशांत शाह को ऐसे निर्देशकों में शामिल किया जा सकता है। फिल्म का नायक 37 साल का है। शादी तो क्या उसकी जिंदगी में रोमांस तकनहीं है। चेखव की कहानियों और हिंदी में नई कहानी के दौर में ऐसे चरित्र दिखाई पड़ते थे। चालू फिल्मों में इसे डाउन मार्केट मान कर नजरअंदाज किया जाता है। अमर कौल एक सामान्य कर्मचारी है। काम के बोझ से लदा और मां की जिम्मेदारी संभालता अपनी साधारण जिंदगी में व्यस्त अमर। उसे एहसास ही नहीं है कि जिंदगी के और भी रंग होते हैं। हां, निश्चित मौत की जानकारी मिलने पर उसका दबा अहं जागता है। मरने से पहले वह अपनी दस ख्वाहिशें पूरी करता है। हालांकि इन्हें पूरा करने के लिए वह कोई चालाकी नहीं करता। वह सहज और सीधा ही बना रहता है। अमर कौल की तकलीफ रूलाती नहीं है। वह उदास करती हैं। सहानुभूति जगाती हैं। चार्ली चैप्लिन ने अवसाद से हास्य पैदा करने में सफलता पाई थी। दसविदानिया उसी श्रेणी की फिल्म है। कमी यही

दोस्ती का मतलब वफादारी है: अभिषेक बच्चन

अभिषेक बच्चन की नई फिल्म दोस्ताना दोस्ती पर आधारित है। आज रिलीज हो रही इस फिल्म के बारे में पेश है अभिषेक बच्चन से खास बातचीत- दोस्ती क्या है आप के लिए? मेरे लिए दोस्ती का मतलब वफादारी है। दोस्त आसपास हों, तो हम सुरक्षा और संबल महसूस करते हैं। क्या दोस्त अपने पेशे के ही होते हैं? दोस्त तो दोस्त होते हैं। जरूरी नहीं है कि वे आप के पेशे में ही हों। मेरे कई दोस्त ऐसे हैं,जिनका फिल्मों से कोई नाता नहीं है। दोस्त बनते हैं या बनाए जाते है? दोस्त बनाए जाते हैं। दोस्ती खुद-ब-खुद नहीं होती। दोस्ती की जाती है। उसके लिए कोशिश करनी पड़ती है। कौन सा रिश्ता ज्यादा मजबूत होता है? दोस्ती या खून का रिश्ता? यह व्यक्ति पर निर्भर करता है। मेरे और आपके या किसी और के अनुभव में फर्क हो सकता है। मैं रिश्तों को अलग-अलग करके नहीं देखता। दोस्त और दोस्ती को लेकर आप के अनुभव कैसे रहे हैं? मेरे ज्यादातर दोस्त बचपन के ही हैं। गोल्डी बहल,सिकंदर खेर,उदय चोपड़ा और रितिक रोशन सभी मेरे बचपन के दोस्त हैं। हम सभी एक ही स्कूल में पढ़ते थे। मैंने दोस्ती निभाई है और वे सभी दोस्त बने रहे हैं। कोई गैरफिल्मी दोस्त भी है? बिल्कुल।

दरअसल:दीवाली पर हुए बॉक्स ऑफिस धमाके

-अजय ब्रह्मात्मज इस साल दीवाली के मौके पर रिलीज हुई गोलमाल रिट‌र्न्स और फैशन का बॉक्स ऑफिस कलेक्शन अच्छा रहा। दोनों फिल्मों को लेकर ट्रेड सर्किल में पहले से ही पॉजिटिव बातें चल रही थीं। कहा जा रहा था कि रिलीज के दिन गोलमाल रिट‌र्न्स का पलड़ा भारी होता दिखा। उसका कलेक्शन ज्यादा हुआ। फैशन भी बहुत पीछे नहीं रही। दोनों फिल्मों के धमाकों से बॉक्स ऑफिस पर छाई खामोशी टूटी है। हालांकि आने वाले हफ्तों में ही यह पता चलेगा कि दोनों की वास्तविक कमाई कितनी रही! अगर सिर्फ लाभ के नजरिए से देखें, तो गोलमाल रिट‌र्न्स सभी के लिए फायदेमंद साबित होती दिख रही है। निर्माता, वितरक और प्रदर्शक सभी को फायदा हो रहा है। फिल्म बिजनेस में अब नए व्यापारी आ गए हैं। इरोज और इंडियन फिल्म्स जैसी कॉरपोरेट कंपनियां फिल्म निर्माण में शामिल नहीं होतीं। वे फिल्में पूरी होने के बाद खरीद लेती हैं। ऐसे में निर्माता भी एकमुश्त रकम पाने के बाद संतुष्ट हो जाता है। उसे फिल्म के चलने या न चलने की फिक्र ही नहीं सताती। गोलमाल रिट‌र्न्स और सिंह इज किंग के उदाहरण से इसे समझा जा सकता है। दोनों फिल्में पूरी होने के बाद इंडियन फिल्म्स ने

दरअसल:छोटी सफलता को बड़ी कामयाबी न समझें

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-अजय ब्रह्मात्मज पिछले दिनों सीमित बजट की कुछ फिल्मों को अच्छी सराहना मिली। संयोग से वे महानगरों के मल्टीप्लेक्स थिएटरों में सप्ताहांत के तीन दिनों से ज्यादा टिकीं और उनका कुल व्यवसाय लागत से ज्यादा रहा। तीन-चार फिल्मों की इस सफलता को अब नया ट्रेंड बताने वाले पंडित बड़ी भविष्यवाणियां कर रहे हैं। वे बता रहे हैं कि अब छोटी फिल्मों का जमाना आ गया है। इन भविष्य वक्ताओं में एक निर्माता भी हैं। चूंकि वे कवि, पेंटर और पत्रकार भी हैं, इसलिए अपनी धारणा को तार्किक बना देते हैं। उन्होंने इस लेख में अपनी जिन फिल्मों के नाम गिनाए हैं, उनकी न तो सराहना हुई थी और न ही उन्हें कामयाब माना गया। आमिर से लेकर ए वेडनेसडे की सराहना और कामयाबी के बीच हल्ला और अगली और पगली जैसी असफल फिल्में भी आई हैं। हां, चूंकि इन फिल्मों की लागत कम थी, इसलिए नुकसान ज्यादा नहीं हुआ। आमिर, मुंबई मेरी जान और ए वेडनेसडे जैसी फिल्मों का उदाहरण देते समय हमें यह भी देखने की जरूरत है कि इनके निर्माता कौन हैं? लोग गौर करें कि बड़ी फिल्मों के निर्माताओं और निर्माण कंपनियों ने ही छोटी फिल्मों के लिए एक शाखा खोल ली है। वे कुछ फिल्में इ

फ़िल्म समीक्षा:गोलमाल रिट‌र्न्स

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पिछली फिल्म की कामयाबी को रिपीट करने के लोभ से कम ही डायरेक्टर व प्रोड्यूसर बच पाते हैं। रोहित शेट्टी और अष्ट विनायक इस कोशिश में पिछली कामयाबी को बॉक्स ऑफिस पर भले ही दोहरा लें लेकिन फिल्म के तौर पर गोलमाल रिट‌र्न्स पहली गोलमाल से कमजोर है। ऐसी फिल्मों की कोई कहानी नहीं होती। एक शक्की बीवी है और उसका शक दूर करने के लिए पति एक झूठ बोलता है। उस झूठ को लेकर प्रसंग जुड़ते हैं और कहानी आगे बढ़ती है। कहानी बढ़ने के साथ किरदार जुड़ते हैं और फिर फिल्म में लतीफे शामिल किए जाते हैं। कुछ दर्शकों को बेसिर-पैर की ऐसी फिल्म अच्छी लग सकती है लेकिन हिंदी की अच्छी कॉमेडी देखने वाले दर्शकों को गोलमाल रिट‌र्न्स खास नहीं लगेगी। अजय देवगन संवादों के माध्यम से अपना ही मजाक उड़ाते हैं। तुषार कपूर गूंगे की भूमिका में दक्ष होते जा रहे हैं। मालूम नहीं एक कलाकार के तौर पर यह उनकी खूबी मानी जाएगी या कमी? फिल्म में अरशद वारसी की एनर्जी प्रभावित करती है। श्रेयस तलपड़े हर फिल्म में यह जरूर बता देते हैं कि वे अच्छे मिमिक्री आर्टिस्ट हैं। उन्हें इस लोभ से बचने की जरूरत है। गानों के फिल्मांकन में रोहित ने अवश्य भव्यता

गजनी में गजब ढाएंगे आमिर खान

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-अजय ब्रह्मात्मज पिछले साल 'तारे जमीन पर' में दर्शकों ने आमिर खान को निकुंभ सर की सीधी-सादी भूमिका में देखा था। अब 'गजनी' में वे हैरतअंगेज एक्शन करते नजर आएंगे। गजनी के लिए उनके माथे पर कटे का निशान तो सभी ने देख रखा है। लेकिन, उनकी बाडी के बारे में किसी को पता नहीं था। 'गजनी' में आमिर उभरे 'बाइसेप्स' और 'शोल्डर्स' के साथ दर्शकों के सामने होंगे। दैनिक जागरण से खास बातचीत में आमिर ने नए लुक और 'गजनी' के बारे में विस्तार से बताया। उन्होंने कहा, 'मैं लंबे अंतराल के बाद एक्शन फिल्म कर रहा हूं। फिल्म के निर्देशक मुरुगदास ने मुझे सलाह दी थी कि एक्शन हीरो होने के नाते मैं अपनी बाडी बनाऊं। ऐसी बाडी बनाने में डेढ़-दो साल लगते हैं।' आमिर ने कहा, 'मैंने तारे जमीन पर के पोस्ट प्रोडक्शन के समय से ही अपने शरीर पर काम शुरू कर दिया था। उन दिनों रोजाना तीन-चार घंटे की एक्सरसाइज के बाद मैं थक कर चूर हो जाता था। लेकिन, फिल्म के लिए यह करना जरूरी था।' आमिर ने कहा, 'फिर मुझे दुनिया की नजरों से भी इस बाडी को छिपा कर रखना था। मैं उन दिनों

फ़िल्म समीक्षा:कर्ज्ज्ज्ज़

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पुरानी कर्ज से कमतर -अजय ब्रह्मात्मज सतीश कौशिक रीमेक फिल्मों के उस्ताद हैं। ताजा कोशिश में उन्होंने सुभाष घई की कर्ज को हिमेश रेशमिया के साथ पेश किया है। कहानी के क्लाइमेक्स से पहले के ड्रामा में कुछ बदलाव है। 28 साल के बाद बनी फिल्म के किरदारों में केवल बाहरी परिवर्तन किए गए हैं उनके स्वभाव और कहानी के सार में कोई बदलाव नहीं है। सतीश कौशिक और हिमेश ने हमेशा विनम्रता से स्वीकार किया है कि दोनों ही सुभाष घई व ऋषि कपूर की तुलना में कमतर हैं। पुनर्जन्म की इस कहानी में छल, कपट, प्रेम, विद्वेष और बदले की भावना पर जोर दिया गया है। यह शुद्ध मसाला फिल्म है। 25-30 वर्ष पहले ऐसी फिल्में दर्शक खूब पसंद करते थे। ऐसे दर्शक आज भी हैं। निश्चित ही उनके बीच कर्ज पसंद की जाएगी। फिल्म का संगीत, हिमेश की एनर्जी और उर्मिला मातोंडकर का सधा निगेटिव अंदाज इसे रोचक बनाए रखता है। यह हिंसात्मक बदले से अधिक भावनात्मक बदले की कहानी है। पुरानी कर्ज की तरह यह कर्ज भी संगीत प्रधान है। हिमेश ने पुराने संगीत को रखते हुए अपनी तरफ से नई धुनें जोड़ी हैं। धुनें मधुर लगती हैं लेकिन उनके साथ पिरोए शब्द चुभते हैं। तंदूरी ना

विश्वप्रिय अमिताभ बच्चन

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जन्मदिन 11 अक्टूबर पर विशेष... सम्राट अशोक के जीवन के एक महत्वपूर्ण प्रसंग पर डॉ।चंद्रप्रकाश द्विवेदी की अगली फिल्म है। इसमें अशोक की भूमिका अमिताभ बच्चन निभा रहे हैं। बिग बी के जन्मदिन (11 अक्टूबर) के मौके पर डॉ।द्विवेदी ने हमें अमिताभ बच्चन के बारे में बताया। इस संक्षिप्त आलेख में द्विवेदी ने भारतीय इतिहास के महानायक अशोक और भारतीय सिनेमा के महानायक अमिताभ बच्चन की कई समानताओं का उल्लेख किया है। बिग बी लोकप्रियता, पहचान और स्वीकृति की जिस ऊंचाई पर हैं, वहां उन्हें विश्वप्रिय अमिताभ बच्चन की संज्ञा दी जा सकती है। पश्चिम के साहित्यकार एचजी वेल्स ने अपनी एकपुस्तक में सम्राट अशोक का उल्लेख किया है। उनके उल्लेख का आशय यह है कि अगर विश्व के सम्राटों की आकाशगंगा हो, तो उसमें जो सबसे चमकता हुआ सितारा होगा, वह अशोक हैं। यह अभिप्राय ऐसे लेखक और चिंतक का है, जो अशोक को भारत के बाहर से देख रहा है। जापान में सोकोतु नामक राजा हुए। उन्हें जापान का अशोक कहा जाता है। गौरतलब है कि राजा सोकोतु ने अशोक की तरह ही घोषणाएं जारी की थीं। दक्षिण-पूर्व एशिया में जहां-जहां बौद्ध धर्म है, वहां-वहां बौद्ध धर्म के

फ़िल्म समीक्षा: हैलो

दर्शकों को बांधने में विफल -अजय ब्रह्मात्मज दावा है कि वन नाइट एट काल सेंटर को एक करोड़ से अधिक पाठकों ने पढ़ा होगा। निश्चित ही यह हाल-फिलहाल में प्रकाशित सर्वाधिक लोकप्रिय उपन्यास रहा है। इसी उपन्यास पर अतुल अग्निहोत्री ने हैलो बनाई है। इस फिल्म के लेखन में मूल उपन्यास के लेखक चेतन भगत शामिल रहे हैं, इसलिए वे शिकायत भी नहीं कर सकते कि निर्देशक ने उनकी कहानी का सत्यानाश कर दिया। फिल्म लगभग उपन्यास की घटनाओं तक ही सीमित है, फिर भी यह दर्शकों को उपन्यास की तरह बांधे नहीं रखती। अतुल अग्निहोत्री किरदारों के उपयुक्त कलाकार नहीं चुन पाए। सोहेल खान की चुहलबाजी उनके हर किरदार की गंभीरता को खत्म कर देती है। हैलो में भी यही हुआ। शरमन जोशी पिछले दिनों फार्म में दिख रहे थे। इस फिल्म में या तो उनका दिल नहीं लगा या वे किरदार को समझ नहीं पाए। अभिनेत्रियों के चुनाव और उनकी स्टाइलिंग में समस्या रही। गुल पनाग, ईशा कोप्पिकर और अमृता अरोड़ा तीनों से ही कुछ दृश्यों के बाद ऊब लगने लगती है। उनकेलिबास पर ध्यान नहीं दिया गया। ले-देकर दिलीप ताहिल और शरत सक्सेना ही थोड़ी रुचि बनाए रखते हैं। जाहिर सी बात है कि द

दरअसल:गांव और गरीब गायब हैं हिंदी फिल्मों से

-अजय ब्रह्मात्मज बाजार का पुराना नियम है कि उसी वस्तु का उत्पादन करो, जिसकी खपत हो। अपने संभावित ग्राहक की रुचि, पसंद और जरूरतों को ध्यान में रखकर ही उत्पादक वस्तुओं का निर्माण और व्यापार करते हैं। कहने के लिए सिनेमा कला है, लेकिन यह मूल रूप से लाभ की नीति का पालन करता है। खासकर उपभोक्ता संस्कृति के प्रचलन के बाद हिंदी फिल्म इंडस्ट्री ने अपनी पूरी शक्ति वैसी फिल्मों के उत्पादन में लगा दी है, जिनसे सुनिश्चित कमाई हो। निर्माता अब उत्पादक बन गए हैं। माना जा रहा है कि हिंदी फिल्म इंडस्ट्री की अधिकांश कमाई मुंबई और दिल्ली जैसे शहरों और विदेशों से होती है। नतीजतन फिल्मों के विषय निर्धारित करते समय इन इलाकों के दर्शकों के बारे में ही सोचा जा रहा है। यह स्थिति खतरनाक होने के बावजूद प्रचलित हो रही है। पिछले दिनों फिल्मों पर चल रही एक संगोष्ठी में जावेद अख्तर ने इन मुद्दों पर बात की, तो ट्रेड सर्किल ने ध्यान दिया। हिंदी पत्र-पत्रिकाओं और हिंदी पत्रकारों की चिंता के इस विषय पर फिल्म इंडस्ट्री अभी तक गंभीर नहीं थी, लेकिन जावेद अख्तर के छेड़ते ही इस विषय पर विचार आरंभ हुआ। लोग बैठकों में ही सही, ले

फ़िल्म समीक्षा:द्रोण

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४०० वीं पोस्ट बड़े पर्दे पर तिलिस्म -अजय ब्रह्मात्मज स्पेशल इफेक्ट और एक्शन की चर्चा के कारण द्रोण को अलग नजरिए से देखने जा रहे दर्शकों को निराशा होगी। यह शुद्ध भारतीय कथा परंपरा की फिल्म है, जिसे निर्माता-निर्देशक सही तरीके से पेश नहीं कर सके। यह न तो सुपरहीरो फिल्म है और न ही इसे भारत की मैट्रिक्स कहना उचित होगा। यह ऐयारी और तिलिस्म परंपरा की कहानी है, जो अधिकांश हिंदी दर्शकों के मानस में है। दूरदर्शन पर प्रसारित हो चुके चंद्रकांता की लोकप्रियता से जाहिर है कि दर्शक ऐसे विषय में रुचि लेते हैं। शायद निर्देशक गोल्डी बहल को भारतीय परंपरा के तिलिस्मी उपन्यासों की जानकारी नहीं है। यह एक तिलिस्मी कहानी है, जिसे व्यर्थ ही आधुनिक परिवेश देने की कोशिश की गई। द्रोण एक ऐसे युवक की कहानी है, जिसके कंधे पर सदियों पुरानी परंपरा के मुताबिक विश्व को सर्वनाश से बचाने की जिम्मेदारी है। उसका नाम आदित्य है। वह राजस्थान के राजघराने की संतान है। उसकी मदद सोनिया करती है, क्योंकि सोनिया के परिवार पर द्रोण को बचाने की जिम्मेदारी है। अपनी जिम्मेदारियों को निभाने की भूमिका में आते ही दोनों वर्तमान से एक तिलिस

फ़िल्म समीक्षा:रामचंद पाकिस्तानी

पाकिस्तान से आई एक सहज फ़िल्म -अजय ब्रह्मात्मज पाकिस्तान की फिल्म रामचंद पाकिस्तानी पिछले कुछ समय से चर्चा में है। यह फिल्म विदेशों मेंकई फिल्म समारोहों में दिखाई जा चुकी है। इस फिल्म का महत्व सिनेमाई गुणवत्ता से अधिक इस बात के लिए है कि यह पाकिस्तानी सिनेमा में आ रहे बदलाव की झलक देती है। भारतीय दर्शकों ने कुछ समय पहले पाकिस्तान की खुदा के लिए देखी थी। इस बार मेहरीन जब्बार ने एक सच्ची घटना को लगभग ज्यों का त्यों फिल्मांकित कर दिया है। भारतीय सीमा के करीब रहने वाला रामचंद एक छोटी सी बात पर अपनी मां से नाराज होकर निकलता है। उसे अंदाजा नहीं रहता और वह भारतीय सीमा में प्रवेश कर जाता है। रामचंद को सीमा पार करते देख उसका पिता उसके पीछे भागता है। वह भी भारतीय सीमा में आ जाता है। भारत में सीमा पर तैनात सुरक्षा अधिकारी उन्हें गिरफ्तार कर लेते हैं। दोनों बाप-बेटे खुद को निर्दोष साबित करने में असफल रहते हैं। उन्हें जेल में डाल दिया जाता है। दोनों के नाम किसी रजिस्टर में नहीं दर्ज किए जाते। उन्हें अपनी एक छोटी सी भूल के लिए लगभग सात साल भारतीय जेल में रहना पड़ता है। उधर रामचंद की मां की जिंदगी बि

फ़िल्म समीक्षा:हम बाहुबली

औरों से बेहतर यह फिल्म भोजपुरी में बनी है। भोजपुरी सिनेमा ने पिछले कुछ सालों में हिंदी दर्शकों के बीच खास स्थान बना लिया है। हम बाहुबली भोजपुरी सिनेमा में आए उछाल का संकेत देती है। अनिल अजिताभ के निर्देशन में बनी यह फिल्म जाहिर करती है कि अगर लेखक-निर्देशक थोड़ा ध्यान दें और निर्माता पूरा सहयोग दें तो भोजपुरी फिल्मों की फूहड़ता खत्म हो सकती है। हम बाहुबली की कथाभूमि दर्शकों ने प्रकाश झा की फिल्मों में देखी है। इस समानता की वजह यह हो सकती है कि अनिल लंबे समय तक प्रकाश के मुख्य सहयोगी रहे। इसके अलावा हम बाहुबली के लेखन में शैवाल का सहयोग रहा। शैवाल ने प्रकाश के लिए दामुल और मृत्युदंड लिखी है। अपनी पहली फिल्म में अनिल अजिताभ उम्मीद जगाते हैं। उन्होंने बिहार के परिवेश को राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में चित्रित किया है और बाहुबली बनने के कारणों और परिस्थितियों को भी रखा है। हम बाहुबली भोजपुरी फिल्मों में प्रचलित नाच-गानों से नहीं बच पाई है। कुछ गाने ज्यादा लंबे हो गए हैं और वे कथा प्रवाह में बाधक बनते हैं। कलाकारों की बात करें तो दिनेश लाल निरहुआ की ऊर्जा प्रभावित करती है। अमर उपाध्याय खोए से दि

दरअसल:स्वागत है सज्जनपुर में

-अजय ब्रह्मात्मज माफ करें, स्तंभ का शीर्षक वेलकम टू सज्जनपुर का अनुवाद नहीं है। सज्जनपुर यहां उस विषय का द्योतक है, जिसे हिंदी फिल्म इंडस्ट्री ने हाशिए पर डाल रखा है। ग्लोबल होने के इस दौर में हिंदी सिनेमा ने गांव को भुला दिया है। लंबे समय से न गांव की गोरी दिखी और न ग्रामीण परिवेश। ठीक है कि पनघट की जगह नलकूप आ गए हैं और मोबाइल और मोटरसाइकिल गांव में पहुंच गए हैं, लेकिन भाषा, संस्कृति, लहजा, भावनाओं का ताना-बाना अब भी अलग है। गांव से जुड़ी सारी चीजों को देशज, ग्रामीण और डाउन मार्केट का दर्जा देकर दरकिनार करने का चलन बढ़ा है। याद करें कि पिछली बार कब आपने साइकिल देखी थी, पजामा पहने लोगों को देखा था, सिर पर आंचल रखे औरत देखी थी और खेत-खलिहान के साथ खपरैल घर। ..और कब डपोरशंख संबोधन सुना था? बातचीत में ग्रामीण लहजे को अभद्र और असभ्य माना जाता है। बातचीत में सहज रूप से आने वाली गालियों को अश्लील कहा जाता है और मुहावरे तो अब सिर के ऊपर से गुजर जाते हैं। मजे की बात यह है कि देश का शिक्षित समाज इतनी तेजी से अपनी भाषाई संस्कृति और परंपराओं से कट रहा है कि आम बोलचाल में देशज शब्दों के अर्थ उस

फ़िल्म समीक्षा:वेलकम टू सज्जनपुर

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सहज हास्य का सुंदर चित्रण -अजय ब्रह्मात्मज श्याम बेनेगल की गंभीर फिल्मों से परिचित दर्शकों को वेलकम टू सज्जनपुर छोटी और हल्की फिल्म लग सकती है। एक गांव में ज्यादातर मासूम और चंद चालाक किरदारों को लेकर बुनी गई इस फिल्म में जीवन के हल्के-फुल्के प्रसंगों में छिपे हास्य की गुदगुदी है। साथ ही गांव में चल रही राजनीति और लोकतंत्र की बढ़ती समझ का प्रासंगिक चित्रण है। बेनेगल की फिल्म में हम फूहड़ या ऊलजलूल हास्य की कल्पना ही नहीं कर सकते। लाउड एक्टिंग, अश्लील संवाद और सितारों के आकर्षण को ही कामेडी समझने वाले इस फिल्म से समझ बढ़ा सकते हैं कि भारतीय समाज में हास्य कितना सहज और आम है। सज्जनपुर गांव में महादेव अकेला पढ़ा-लिखा नौजवान है। उसे नौकरी नहीं मिलती तो बीए करने के बावजूद वह सब्जी बेचने के पारिवारिक धंधे में लग जाता है। संयोग से वह गांव की एक दुखियारी के लिए उसके बेटे के नाम भावपूर्ण चिट्ठी लिखता है। बेटा मां की सुध लेता है और महादेव की चिट्ठी लिखने की कला गांव में मशहूर हो जाती है। बाद में वह इसे ही पेशा बना लेता है। चिट्ठी लिखने के क्रम में महादेव के संपर्क में आए किरदारों के जरिए हम गां