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फिल्‍म समीक्षा : इसक

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असंगत प्रेम की असंगत कहानी -अजय ब्रह्मात्‍मज     मनीष तिवारी की ‘इसक’ देखते समय और देख कर निकलने के बाद भी याद नहीं रहता कि फिल्म का मुख्य विषय और उद्देश्य क्या था? प्रचार और घोषणा के मुताबिक बनारस की पृष्ठभूमि में यह शेक्सपियर के ‘रोमियो जूलियट’ पर रची गई फिल्म है। कुछ दृश्यों में ही यह फिल्म रोमांटिक लगी है। कभी दो परिवारों के कलह तो कभी बिजनेश को लेकर चल रही छल-कपट ़ ़ ़इतना ही नहीं बनारस में दक्षिण भारतीय नक्सल नेता के नेतृत्व में लड़ा जा रहा आंदोलन ़ ़ क़ुल मिलाकर ‘इसक’ एक ऐसी खिचड़ी बन गई है, जो हर कौंर में पिछले स्वाद को कुचल देती है। कमजोर फिल्में निराश करती हैं, लेकिन ‘इसक’ तो हताश करती है। क्या मिले हुए मौके को ऐसे गंवाया जा सकता है?     समस्या यह है कि अभी ठीक ढंग से स्थापित नहीं हो सके विशाल भारद्वाज और अनुराग कश्यप की शैलियों की नकल में मनीष तिवारी अपनी पहली फिल्म ‘दिल दोस्ती एटसेट्रा’ की सादगी और गहराई भी भूल गए हैं। न तो यह फिल्म इश्क की दास्तान है और न ही दो परिवारों के झगड़े की कहानी ़ ़ ़ दाल-भात में मूसलचंद बने रवि किशन के किरदार की यही नियति होनी थी। अपने उम्दा

फिल्‍म समीक्षा : बजाते रहो

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-अजय ब्रह्मात्‍मज दिल्ली में ठग रहते हैं। 'दिल्ली का ठग' से लेकर 'बजाते रहो' तक में हम उन्हें अलग-अलग रूपों में हिंदी फिल्मों में देखते रहे हैं। 'बजाते रहो' का ठग सबरवाल एक बैंक का मालिक है। वह चंद सालों में रकम बढ़ाने का झांसा देकर 15 करोड़ रुपए जमा करता है। देनदारी के समय रकम नहीं लौटा पाने की स्थिति में वह साफ मुकर जाता है। गाज एक कर्मचारी पर गिरती है। वे इस बेइज्जती को बर्दाश्त नहीं कर पाते। फिल्म की कहानी यहीं से शुरू होती है। सबरवाल काइयां, शातिर और मृदुभाषी ठग है। फ्रॉड और झांसे के दम पर उसने अपना बिजनेस फैला रखा है। कर्मचारी का परिवार मुसीबत में आने के बाद अनोखे किस्म से बदला लेता है। परिवार के सभी सदस्य मिल कर सबरवाल को चूना लगाने की युक्ति में जुट जाते हैं। वे अपनी तिकड़मों से इसमें सफल भी होते हैं। 'बजाते रहो' मजेदार कंसेप्ट की फिल्म है, लेकिन लेखक-निर्देशक ने इस कंसेप्ट को अधिक गहराई से नहीं चित्रित किया है। उनके पास समर्थ कलाकारों की अच्छी टीम थी। फिर भी आधे-अधूरे का एहसास बना रह जाता है। किरदारों की विस्तार नहीं दिया ग

फिल्‍म समीक्षा : जिला गाजियाबाद

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-अजय ब्रह्मात्मज इसी हफ्ते रिलीज हुई 'काय पो चे' से ठीक उलट है 'जिला गाजियाबाद'। सब कुछ बासी, इतना बासी की अब न तो उसमें स्वाद रहा और न उबाल आता है। हाल-फिलहाल में हिट हुई सभी मसाला फिल्मों के मसाले लेकर बनाई गई एक बेस्वाद फिल्म ़ ़ ़ कोई टेस्ट नहीं, कोई एस्थेटिक नहीं। बस धूम-धड़ाका और गोलियों की बौछार। बीच-बीच में गालियां भी। निर्माता विनोद बच्चन और निर्देशक आनंद कुमार ने मानो तय कर लिया था कि अधपकी कहानी की इस फिल्म में वे हाल-फिलहाल में पॉपुलर हुई फिल्मों के सारे मसाले डाल देंगे। दर्शकों को कुछ तो भा जाए। एक्शन, आयटम नंबर, गाली-गलौज, बेड सीन, गोलीबारी, एक्शन दृश्यों में हवा में ठहरते और कुलांचे मारते लोग, मोटरसायकिल की छलांग, एक बुजुर्ग एक्टर का एक्शन, कॉलर डांस ़ ़ ़ 'जिला गाजियाबाद' में निर्माता-निर्देशक ने कुछ भी नहीं छोड़ा है। हालांकि उनके पास तीन उम्दा एक्टर थे - विवेक ओबेराय, अरशद वारसी और रवि किशन, लेकिन तीनों के किरदार को उन्होंने एक्शन में ऐसा लपेटा है कि उनके टैलेंट का कचूमर निकल गया है। तीनों ही कलाकार कुछ दृश्यों में शानदार

एगो चुम्मा...पर हुआ विवाद

ख़बर पटना से मिली है.चवन्नी के एक दोस्त हैं पटना में.फिल्मों और फिल्मों से संबंधित गतिविधियों पर पैनी नज़र रखते हैं.टिप्पणी करते हैं। उन्होंने ने बताया की पटना में पिछले दिनों एक भोजपुरी फ़िल्म के प्रचार के लिए मनोज तिवारी और रवि किशन पहुंचे.फ़िल्म का नाम है - एगो चुम्मा देले जइह हो करेजऊ। भोजपुरी के इस मशहूर गीत को सभी लोक गायकों ने गाया है.अब इसी नाम से एक फ़िल्म बन गई है.उस फ़िल्म में मनोज तिवारी और रवि किशन दोनों भोजपुरी स्टार हैं.साथ में भाग्यश्री भी हैं.इस फ़िल्म के प्रचार के लिए आयोजित कार्यक्रम में मनोज ने मंच से कहा की इस फ़िल्म का नाम बदल देना चाहिए.भोजपुरी संस्कृति के हिसाब से यह नाम उचित नहीं है,लेकिन रवि भइया को इसमें कोई परेशानी नहीं दिखती.मनोज हों या रवि दोनों एक- दूसरे पर कटाक्ष करने का कोई मौका नहीं चूकते.सुना है कि बात बहुत बढ़ गई.मनोज ने अगला वार किया कि रवि भइया की असल समस्या मेरी मूंछ है.कहते रवि किशन ने मंच पर ही कहा कि तुम्हारा मूंछ्वे कबाड़ देंगे। मनोज तिवारी और रवि किशन की नोंक-झोंक से आगे का मामला है यह.भोजपुरी फिल्मों में भरी मात्रा में अश्लीलता रहती है.भोज

चोली में फुटबाल

माफ़ करें अगर ऐसे गानों और गब्बर सिंह जैसी फिल्मों से भोजपुरी सिनेमा आगे बढ़ रहा है तो बहुत गड़बड़ है.कहीं भोजपुरी सिनेमा किसी गड्ढे में गिरकर तो आगे नहीं बढ़ रहा है.भोजपुरी फिल्मों में अश्लील गीतों और उसी के मुताबिक अश्लील मुद्राओं पर बहुत जोर रहता है।क्या सचमुच दर्शक यही चाहते हैं? चवन्नी की समझ में एक बात आ रही है कि भोजपुरी सिनेमा के दर्शक मुख्य रुप से पुरुष हैं.उनकी अतृप्त यौन आकांक्षाओं को उकसा कर पैसे बटोरे जा रहे हैं.यह अच्छी बात नहीं है.भोजपुरी इलाक़े के बुद्धिजीवियों को हस्तक्षेप करना चाहिए.वक़्त आ गया है कि हम भोजपुरी सिनेमा की मर्यादा तय करें और उसे इतना शिष्ट बनायें कि परिवार की बहु-बेटियाँ भी उसे देख सकें। शीर्षक में आये शब्द गब्बर सिंह नाम की फिल्म के हैं.इसमें चोली में बाल,फुटबाल और वोलीबाल जैसे शब्दों का तुक भिडा़या गया है.इस गाने में फिल्म के दोनो नायक और लिलिपुट जैसे वरिष्ठ कलाकार अश्लील तरीके से नृत्य करते नज़र आये हैं.कृपया इस तरफ ध्यान दें और अपनी आपत्ति दर्ज करें। भोजपुरी सिनेमा को गंगा,बियाह,गवना,बलमा,सैयां आदि से बाहर आने का समय आ गया है.बाबु मनोज तिवारी और बाब