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Showing posts from January, 2008

कैरेक्टर में ढलने की जरूरत क्यों?

-अजय ब्रह्मात्मज यह खबर लोगों ने पढ़ी और देखी जरूर होगी। मधुर भंडारकर चाहते हैं कि उनकी फिल्म की नायिका किसी मॉडल की तरह छरहरी दिखे। इसी कारण वे प्रियंका चोपड़ा पर वजन कम करने का दबाव भी डाल रहे हैं। कहा जा रहा है कि शूटिंग के पहले प्रियंका को अपना वजन आठ किलोग्राम घटाना है। वे अभी तक आधे में पहुंची हैं। इस खबर के पीछे का सच यह है कि आजकल निर्देशक चरित्रों के अनुसार एक्टर के कायिक परिवर्तन पर बहुत जोर दे रहे हैं। दरअसल, एक्टर भी इससे आ रहे फर्क को महसूस करने के बाद ऐसे परिवर्तन के लिए सहज ही तैयार हो जा रहे हैं। ज्यादा पीछे न जाएं और पिछले साल की फिल्मों को याद करें, तो तीन एक्टर इस नए ट्रेंड के सबूत के तौर पर दिखते हैं। गुरु में अभिषेक बच्चन, ओम शांति ओम में शाहरुख खान और तारे जमीं पर में आमिर खान॥। सच तो यह है कि इन तीनों ने ही फिल्म के चरित्र के अनुसार अपना वजन बढ़ाने और घटाने के साथ ही शरीर पर अलग ढंग से मेहनत भी की। गुरु के मुख्य किरदार के लिए अभिषेक बच्चन को अपना वजन बढ़ाना पड़ा। मध्यांतर के बाद में वे काफी तोंदिले और मोटे दिखाई पड़ते हैं। तोंद तो विशेष मेकअप से बनाई गई थी, लेकिन

सिगरेट और शाहरुख़ खान

शाहरुख़ खान ने कहा कि फिल्मों में सिगरेट पीते हुए कलाकारों को दिखाना कलात्मक अधिकार में आता है और इस पर किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए.अगर आप गौर से उस समाचार को पढें तो पाएंगे कि एक पंक्ति के बयान से खेला गया है.फिल्म पत्रकारिता की यही सामाजिकता है। हमेशा बहस कहीं और मुड़ जाती है.सवाल फिल्मों में किरदारों के सिगरेट पीने का नहीं है.सवाल है कि आप उसे अपने प्रचार में क्यों इस्तेमाल करते हैं.क्या पोस्टर पर स्टार की सिगरेट पीती तस्वीर नहीं दी जाये तो फिल्म का प्रचार नहीं होगा ?चवन्नी ने देखा है कि एक ज़माने में पोस्टर पर पिस्तौल जरूर दिखता था.अगर फिल्म में हत्या या बलात्कार के दृश्य हैं तो उसे पोस्टर पर लाने की सस्ती मानसिकता से उबरना होगा. फिल्म के अन्दर किसी किरदार के चरित्र को उभारने के लिए अगर सिगरेट जरूरी लगता है तो जरूर दिख्यें.लेकिन वह चरित्र का हिस्सा बने,न कि प्रचार का। शाहरुख़ खान इधर थोड़े संयमित हुए हैं.पहले प्रेस से मिलते समय कैमरे के आगे वे बेशर्मों की तरह सिगरेट पीते रहते थे.इधर होश आने पर उन्होंने कैमरे के आगे सिगरेट से परहेज कर लिया है.चवन्नी को याद है एक बार किसी टॉक शो म

सिगरेट और शाहरुख़ खान

छोटे कद का उम्दा कलाकार

चवन्नी राजपाल यादव की बात कर रहा है। राजपाल यादव को पहली बार दर्शकों ने प्रकाश झा के सीरियल मुंगेरी के भाई नौरंगी लाल में देखा था.वे सभी को पसंद आये थे.लोगों ने पूछा भी था कि प्रकाश झा कहाँ से मुंगेरी लाल यानी रघुबीर यादव के छोटे भाई को खोज कर ले आये. शयद सरनेम की समानता के कारण ऐसा हुआ था और दोनों की कद-काठी भी मिलती थी.वैसे दोनों ही राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के छात्र रहे हैं। राजपाल को फिल्मों का पहला मौका इ निवास की फिल्म शूल में मिला.इस फिल्म में राजपाल यादव ने कुली का छोटा सा रोल किया था.राम गोपाल वर्मा को वह जंच गए.रामू ने उन्हें फिर जंगल में थोड़ा बड़ा रोल दिया.इस फिल्म में वह मुख्य खलनायक सुशांत सिंह से ज्यादा चर्चित हुए.देखते ही देखते राजपाल यादव के पास काम की कमी नहीं रही.उन दिनों राजपाल यादव से चवन्नी की लगातार मुलाकातें होती थीं या कम से कम हर फिल्म की रिलीज के समय बात होती थी कि फिल्म कैसी लगी? इधर राजपाल की फिल्मों की संख्या बढ़ती गयी और उसी अनुपात में वार्तालाप छोटी और कम होती गयी.अब केवल गाहे-बगाहे कभी बात हो जाती है.चवन्नी अपने परिचित कलाकारों की ऐसी व्यस्तता से खुश होता

फिल्मी चलन- एक प्रतिनिधि इंटरव्यू

इन दिनों फिल्म स्टार इंटरव्यू देने से भागते हैं.बेचारे पत्रकारों की समस्या का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता.आम तौर पर फिल्म पत्रकारों को ही दोषी माना जाता है और कहा जाता है कि उनके पास सवाल नहीं रहते.ऊपर से फिल्म बिरादरी के लोग शिक़ायत करते हैं कि हम से एक ही तरह के सवाल पूछे जाते हैं। चलिए आपको चवन्नी बताता है कि आम तौर पर ये इंटरव्यू कैसे होते हैं.मान लीजिये एक फिल्म 'मन के लड्डू' रिलीज हो रही है.इसमें कुछ बड़े कलाकार हैं.बड़ा बैनर और बड़ा निर्देशक भी है.फिल्म की रिलीज अगर १ मार्च है तो १५ फरवरी तक प्रोड्यूसर की तरफ से फिल्म का पी आर ओ एक मल्टी मीडिया सीडी भेजेगा.इस सीडी में चंद तस्वीरें,फिल्म की कहानी और फिल्म के कलाकारों की लिस्ट रहती है.इधर सीडी मिली नहीं कि अख़बारों में उसके आधार पर पहली झलक आने लगती है.न प्रोड्यूसर कुछ बताता है और न निर्देशक को फुरसत रहती है.अमूमन फिल्म की रिलीज के दो दिनों पहले तक फिल्म पर काम ही चल रहा होता है। बहरहाल,इसके बाद तय किया जाता है कि फिल्म के स्टार इंटरव्यू देंगे.पत्रकार से पूछा जाता है कि क्या आप इंटरव्यू करना चाहेंगे?अब कौन मना करेगा?बताया जा

शाहरुख़ खान को फ़्रांस का सम्मान

शाहरुख़ खान को कल रात फ़्रांस के राजदूत जेरोम बोनाफों ने फ़्रांस के प्रतिष्ठित insignia of officer in the order of arts & letters से सम्मानित किया.उन्हें यह सम्मान इसलिए दिया गया है कि उन्होंने कला और साहित्य के क्षेत्र में प्रसिद्धि पायी है और फ़्रांस एवं शेष दुनिया में उसे प्रचारित भी किया है.यह हिन्दी फिल्मों का जलवा है.शाहरुख़ खान को इतराने का यह मौका उसी हिन्दी फिल्म ने दिया है,जिसमें बोलने और बात करने से वे कतराते हैं.उस पर चवन्नी फिर कभी विस्तार से बताएगा। कल रात मुम्बई के एक पंचसितारा होटल में यह सम्मान दिया गया.फ़्रांस के राजदूत महोदय ने आश्वस्त किया कि भविष्य में हिन्दी एवं अन्य भारतीय भाषाओं की फिल्मों को ज्यादा तरजीह दी जायेगी.कोशिश रहेगी कि कान फिल्म महोत्सव में भारत की फिल्में आमंत्रित की जाएँ.राजदूत महोदय ने स्वीकार किया कि फ़्रांस अभी तक भारतीय फिल्मों को अधिक तवज्जो नहीं दे रहा था। इस अवसर पर शाहरुख़ खान ने फ्रांसीसी फिल्मों की तारीफ की और जोर देकर कहा कि हर दर्शक और फिल्मकार को फ़्रांस की फिल्में देखनी चाहिए.उन्होंने बगैर किसी शर्म के बताया कि वे दिल्ली में जवान

चोली में फुटबाल

माफ़ करें अगर ऐसे गानों और गब्बर सिंह जैसी फिल्मों से भोजपुरी सिनेमा आगे बढ़ रहा है तो बहुत गड़बड़ है.कहीं भोजपुरी सिनेमा किसी गड्ढे में गिरकर तो आगे नहीं बढ़ रहा है.भोजपुरी फिल्मों में अश्लील गीतों और उसी के मुताबिक अश्लील मुद्राओं पर बहुत जोर रहता है।क्या सचमुच दर्शक यही चाहते हैं? चवन्नी की समझ में एक बात आ रही है कि भोजपुरी सिनेमा के दर्शक मुख्य रुप से पुरुष हैं.उनकी अतृप्त यौन आकांक्षाओं को उकसा कर पैसे बटोरे जा रहे हैं.यह अच्छी बात नहीं है.भोजपुरी इलाक़े के बुद्धिजीवियों को हस्तक्षेप करना चाहिए.वक़्त आ गया है कि हम भोजपुरी सिनेमा की मर्यादा तय करें और उसे इतना शिष्ट बनायें कि परिवार की बहु-बेटियाँ भी उसे देख सकें। शीर्षक में आये शब्द गब्बर सिंह नाम की फिल्म के हैं.इसमें चोली में बाल,फुटबाल और वोलीबाल जैसे शब्दों का तुक भिडा़या गया है.इस गाने में फिल्म के दोनो नायक और लिलिपुट जैसे वरिष्ठ कलाकार अश्लील तरीके से नृत्य करते नज़र आये हैं.कृपया इस तरफ ध्यान दें और अपनी आपत्ति दर्ज करें। भोजपुरी सिनेमा को गंगा,बियाह,गवना,बलमा,सैयां आदि से बाहर आने का समय आ गया है.बाबु मनोज तिवारी और बाब

कॉमेडी, थ्रिलर और एक्शन यानी संडे

-अजय ब्रह्मात्मज कॉमेडी, थ्रिलर और एक्शन तीनों को उचित मात्रा में मिला कर रोहित शेट्टी ने अपने किरदारों के साथ ऐसा घोला कि एक मनोरंजक फिल्म तैयार हो गई है। रोहित ने पारंपरिक तरीके से एक-एक कर अपने प्रमुख किरदारों को पेश किया है। किरदारों को स्थापित करने के बाद उनके ट्रैक आपस में मिलना शुरू करते हैं। शुरू में एक कंफ्यूजन बनता है, जो इंटरवल तक सस्पेंस में तब्दील हो जाता है। फिल्म के शुरू में चेजिंग होती है। उस समय हीरो राजवीर चांदनी चौक की गलियों, मुंडेरों और छतों पर दौड़ता-छलांग लगाता दिखाई पड़ता है। फिल्म के अंत में भी चेज है, लेकिन वह कारों में हैं। कारें नाचती हुई पलटती हैं। कारों को उड़ाने, पलटाने और ध्वस्त कराने में रोहित को आनंद आता है। सहर (आयशा टाकिया) और राजवीर (अजय देवगन) की इस प्रेम कहानी में कुमार (इरफान खान) और बल्लू (अरशद वारसी) भी आते हैं। सहर की जिंदगी से एक संडे मिसिंग है और फिल्म का सस्पेंस इसी संडे से जुड़ा है। इरफान खान ने स्ट्रगलिंग एक्टर का सुंदर काम किया है। आखिरकार वे भोजपुरी फिल्मों के सिंगिंग स्टार बन जाते हैं, लेकिन इस उपलब्धि को छोटी नजर से पेश किया गया है। फ

शुरू हो फिल्मों की पढ़ाई

-अजय ब्रह्मात्मज अब स्कूल, कॉलेज और यूनिवर्सिटी में फिल्मों को पाठ्यक्रम में शामिल करने का वक्त आ गया है। दरअसल, आज फिल्में हमारे दैनिक जीवन का हिस्सा बन गई हैं। हर व्यक्ति फिल्में देखता है और यही वजह है कि फिल्में और उनके स्टार हमारी बातचीत और विमर्श का हिस्सा बन गए हैं। फिल्मों के इस प्रसार और प्रभाव के बावजूद अभी तक सामाजिक स्तर पर फिल्मों के प्रति हमारा रवैया सहज नहीं हो पाया है, क्योंकि इसे एक विषय के तौर पर पाठ्यक्रम में शामिल करने को हम तैयार नहीं हैं। कुछ विश्वविद्यालयों में स्वतंत्र कोर्स या किसी कोर्स के हिस्से के तौर पर सिनेमा की पढ़ाई आरंभ जरूर हो गई है, लेकिन यह पर्याप्त नहीं है। इन दिनों हर तरह की प्रतियोगिता की परीक्षाओं में सिनेमा से संबंधित सवाल पूछे जाते हैं। इन प्रतियोगी परीक्षाओं के विद्यार्थी अपने सामान्य ज्ञान या उपलब्ध सीमित जानकारियों के आधार पर ही जवाब देते हैं। अभी तक कोई व्यवस्थित पुस्तक या संदर्भ स्रोत नहीं है, जहां से विधिवत और क्रमिक जानकारी ली जा सके। फिल्मों पर आ रही पुस्तकें मुख्य रूप से स्टार या फिल्म पर ही केंद्रित होती हैं, क्योंकि ट्रेंड, इतिहास और

रिया की पार्टी में नहीं आएंगे रुश्दी

चवन्नी कल रात से ही परेशान था .उसे बताया गया था कि रिया सेन की जन्मदिन पार्टी में सलमान रुश्दी आ रहे है.मायानगरी मुम्बई के लिए यह बड़ी घटना है और चवन्नी को इस पर नज़र रखनी चाहिए.चवन्नी ने अपना चश्मा साफ किया और कल रात जल्दी सो गया ताकि ताज़ा दिमाग से पूरे मामले को देख और समझ सके.सलमान रुश्दी सिर्फ लिख कर ही परेशान नहीं करते.वे देख कर भी दुखी करते हैं.अब इसी प्रसंग को लें.पद्मा लक्ष्मी से बिछुड़े अभी कुछ ही महीने हुए होंगे और जनाब रिया सेन के रसिक हो गए। हुआ यों कि परमेश्वर गोदरेज की एक पार्टी में शामिल होने के लिए वे मुम्बई आये थे.बड़े लोगों की उस पार्टी में कई बड़ी हस्तियाँ थीं.वहीं अपनी सेन सिस्टर्स रिया और राइमा भी थीं.दोनों आकर्षक हैं,जवान हैं और नैन मटक्का करने में उन्हें ज्यादा परेशानी नहीं होती.वास्तव में चवन्नी की मध्यवर्गीय बिरादरी की यह समस्या है कि कोई पुरुष किसी स्त्री से थोडा अंतरंग हो जाता है तो खबर फैल जाती है कि आग लगने वाली है,क्योंकि धुआं दिखा है.चवन्नी को लगता है कि यह धुआं उन पत्रकारों के दिमाग में रहता है जो भावनात्मक रुप से असुरक्षित ज़िंदगी जी रहे होते हैं.उस पर अलग

दिल्ली,लाहौर और मुम्बई पर बन रही फिल्में

भारत और पाकिस्तान के ये तीन महानगर हैं.लाहौर तो किसी ज़माने में शिक्षा और संस्कृति के साथ व्यापर का भी केन्द्र हुआ करता था.देश के विभाजन के साथ पंजाब का भी विभाजन हुआ और लाहौर लहूलुहान हो गया.आज तक लाहौर रिस रहा है.उस पर कभी और चर्चा करेगा चवन्नी...लेकिन चवन्नी क्यों चर्चा करे? चवन्नी को पता चला है कि लाहौर की पृष्ठभूमि पर हिन्दी में तीन फिल्मों की तैयारी चल रही है.इनमें से दो फिल्मों की कहानी तो हीरामंडी के इर्द-गिर्द घूमती हैं और तीसरी का संबंध विभाजन से है.पूजा भट्ट की फिल्म हीरामंडी पर ही केन्द्रित है और इस में आशुतोष राणा फिर से एक खतरनाक खलनायक की भूमिका निभाने जा रहे हैं.उम्मीद है कि फ़रवरी में इस फिल्म की शूटिंग आरंभ हो जायेगी.संजय लीला भंसाली ने भी एक फिल्म प्लान की है.उनकी फिल्म में मुमकिन है रानी मुख़र्जी शीर्ष भूमिका निभाएं,संजय के व्यक्तित्व की तरह यह फिल्म अभी तक रहस्य में है.मालूम नहीं कब शुरू होगी फिल्म?लाहौर पर बन रही तीसरी फिल्म होगी राज कुमार संतोषी की.घोषणाएं करने में अव्वल संतोषी की फिल्म असगर वजाहत के नाटक जिस लाहौर नइ देख्या ... पर आधारित है.इस फिल्म के लिए संतो

सलाम सलीम बाबा

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चवन्नी ने यह पोस्ट पिछले साल १२ अक्टूबर को लिखी थी.चवन्नी को ख़ुशी है कि यह फिल्म ऑस्कर में श्रेष्ठ वृत्तचित्र के लिए नामांकित हुई है.चलिए उम्मीद करें कि इसे अन्तिम पुरस्कार भी मिले। नोर्थ कोलकाता में रहते हैं सलीम बाबा. दस साल की उम्र से वे सिनेमाघरों के बाहर फेंके फिल्मों के निगेटिव जमा कर उन्हें चिपकाते हैं और फिर चंद मिनटों की फिल्म टुकड़ियों की तरह अपने अ।सपास के बच्चों को दिखाते हैं. यह उनका पेशा है. यही उनकी अ।जीविका है. ऐसे ही फिल्में दिखाकर वे पांच बच्चों के अपने परिवार का भरण-पोषण कर रहे हैं.चवन्नी को पता चला कि टिम स्टर्नबर्ग ने उन पर 14 मिनट की एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म 'सलीम बाबा' बनायी है. यह डॉक्यूमेंट्री फिल्म ऑस्कर भेजी गयी थी. खुशी की बात है कि 'सलीम बाबा' अंतिम अ।ठ की सूची में अ। गयी है. अगर ज्यूरी को पसंद अ।ई तो यह नामांकित भी होगी. 'सलीम बाबा' का पूरा नाम सलीम मोहम्मद है. उन्हे अपने पिता से यह प्रोजेक्टर विरासत में मिला है. इसे हाथ से चलाया जाता है. सलीम बाबा की फिल्में देखने बच्चे जमा होते हैं. सिनेमाघरों में जाकर फिल्में देख पाने में असमर्थ ब

७०% मत मिले अमिताभ बच्चन को

पिछले दिनों चवन्नी ने आप कि राय मांगी थी कि आप अशोक की भूमिका में अमिताभ बच्चन और अजय देवगन में किसे देखना चाहेंगे?इस बार आप की हिस्सेदारी उत्साहजनक रही.चवन्नी के पाठकों में से जिन सभी ने मतदान दिए,उन में से ७० प्रतिशत ने अमिताभ बच्चन के पक्ष में मतदान किया.अजय देवगन को केवल ३०% मतदाता ही अशोक की भूमिका में देखना चाहते हैं। अगर आप ने मतदान नहीं किया था और अब अपनी राय देना चाहते हैं तो स्वागत है.आप टिप्पणी के रुप में अपनी राय पोस्ट करें.

आमिर खान ने सिगरेट छोड़ी और उठाए चार और कदम

आमिर खान ने अपने ब्लोग पर आज ही लिखा है कि उनहोंने आखिरकार सिगरेट पीने की बुरी आदत छोड़ दी.आपको याद होगा कि तारे ज़मीन पर की रिलीज के समय तनाव में उनहोंने सिगरेट पीनी शुरू कर दी थी.आज सुबह के पोस्ट में उनहोंने साफ लिखा है कि वे पांच कदम उठा कर अपनी दिनचर्या नियमित करने जा रहे हैं। पहला कदम-सिगरेट की लत से तौबा.फिल्म सितारों से प्रभावित होने वाले किशोरों के लिए यह सबक है कि आप धूम्रपान की आदत एकबारगी छोड़ सकते हैं.बताने की ज़रूरत नहीं कि चवन्नी ने भी एकबारगी अपनी ३५-४० सिगरेट की आदत ८ साल पहले छोड़ी थी.हाँ,चवन्नी को दिल का झटका लगा था.चवन्नी नहीं चाहता कि उसके पाठकों को कोई झटका लगे.आप चवन्नी से नहीं तो आमिर खान से तो सीख सकते हैं। दूसरा कदम-अपनी दिनचर्या दुरूस्त करने के लिए आमिर जल्दी सोने पर अमल करेंगे.यह एक बेहतर तरीका है कि आप सवेरे उठ कर जल्दी-जल्दी अपने काम शुरू कर दें। तीसरा कदम-आमिर का तीसरा कदम है कि वे नियमित रुप से कसरत करेंगे.आमिर ४२ के हो चुके हैं और एक्टिंग करते है.जाहिर है उनके लिए सेहतमंद होने के साथ ही चुस्त और आकर्षक दिखना ज़रूरी है। चौथा कदम-फिर से पौष्टिक bhojan पर ध्य

एक तमाचे की झनझनाहट

एक तमाचे की ऐसी झनझनाहट की उम्मीद गोविन्दा ने तो नहीं ही की होगी.चवन्नी गोविंदा से कई दफा मिल चुका है.शोहरत की अपनी चालाकियों के बावजूद गोविंदा के अन्दर आज भी विरार का छोरा मौजूद है.निश्चित ही उस छोरे ने बदमाशी कर रहे प्रशंसक को तमाचा जड़ा होगा और अब उसका खामियाजा नेता गोविंदा झेल रहा है.अभिनेता गोविंदा को ज्यादा फर्क नहीं पड़ता.दूसरे अभिनेताओं ने बड़ी-बड़ी गलतियाँ की हैं और फिर भी शान से दांत निपोरे घूमते नज़र आते हैं। चवन्नी ने गोविंदा को उस दौर में भी करीब से देखा है,जब वे हाथ मिलाने तक से हिचकिचाते थे,उन्हें यह वहम रहता था कि कोई उनकी जान के पीछे पड़ा है और उन्हें कोई ज़हर न दे दे.गोविंदा ने विवश होकर ही तमाचा मर होगा. वैसे चवन्नी का कोई इरादा नहीं है कि वह गोविंदा के बचाव में तर्क जुटाए। फिल्म कलाकारों को करीब से देखनेवाले जानते हैं कि कई बार प्रशंसक अजीब सी बदतमीजियां करते हैं.चवन्नी शहर का नाम नहीं लेना चाहता.वह एक बार रितिक रोशन के साथ वहाँ गया था.उसने देखा कि ५०-५५ की उम्र की औरतें,जो रितिक की माँ से छोटी नहीं होंगी...उस उम्र की महिलायें रितिक को चिकोटी काट रही हैं.चवन्नी को रि

बांबे टू बैंकाक की बकवास ट्रिप

-अजय ब्रह्मात्मज हैदराबाद ब्लू जैसी फिल्म से करियर आरंभ कर हिंदी में इकबाल और डोर जैसी फिल्में निर्देशित कर चुके नागेश कुकनूर आखिरकार हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के कुचक्र के शिकार हो ही गए। अपने सुर से हट कर उन्होंने नई तान छेड़ी और उसमें बुरी तरह से असफल रहे। बांबे टू बैंकाक नागेश की अब तक की सबसे कमजोर फिल्म है। बावर्ची शंकर सिंह (श्रेयस तलपड़े) रेस्तरां में छूट गए हैंडबैग में मोटी रकम देख कर लालच में आ जाता है। वह पैसे चुरा कर भागता है। गफलत में वह एयरपोर्ट पहुंच जाता है। फिर मौका पाकर बचने के लिए वह बैंकाक जा रहे डाक्टरों के प्रतिनिधि मंडल में शामिल हो जाता है। डॉक्टर भाटवलेकर बन कर बैंकाक पहुंचे शंकर की समस्याएं दोतरफा हैं। एक तो उसे डॉक्टरी का कोई ज्ञान नहीं है और दूसरे पहली नजर में ही उसे एक थाई लड़की जासमीन (लेना) भा जाती है, जो उसकी भाषा नहीं समझती। अनेक गलतफहमियों के बीच दोनों का प्यार पल्लवित होता है। इस फिल्म में एक अलग ट्रैक अंडरव‌र्ल्ड डान जैम उर्फ जमाल खान (विजय मौर्या) का भी चलता है। शंकर उसी के पैसे लेकर भागा है। बांबे टू बैंकाक में द्विभाषी संवाद हैं। कभी थाई, कभी हिंदी और

फिल्मों के बाद सीरियल के रिमेक

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-अजय ब्रह्मात्मज लगभग बीस साल पहले दूरदर्शन के दिनों में रामानंद सागर के धारावाहिक रामायण और बी।आर. चोपड़ा के महाभारत के प्रसारण ने इतिहास रचा था। कहते हैं, महाभारत और रामायण के प्रसारण के समय मुहल्ले और गलियां सूनी हो जाती थीं। चूंकि टीवी उस वक्त तक घर-घर नहीं पहुंचा था, इसलिए पड़ोसी परिवारों के लोग एक साथ बैठकर इन पौराणिक धारावाहिकों का आनंद उठाते थे। पिछले बीस वर्षो में दर्शकों और टीवी कार्यक्रमों में भारी बदलाव आ चुका है, लेकिन लगता है टीवी मनोरंजन का इतिहास खुद को दोहराने की स्थिति में आ गया है। बड़े जोर-शोर से एक नए चैनल पर रामायण का प्रसारण होने जा रहा है और महाभारत की तैयारियां चल रही हैं। नए रामायण से हम नवीनता या प्रयोग की उम्मीद नहीं कर सकते, क्योंकि इसे सागर आ‌र्ट्स के बैनर के तहत ही बनाया जा रहा है। हां, बीस साल पहले इसके निर्देशक रामानंद सागर थे। अब निर्देशन की कमान उनके पोते शक्ति सागर ने संभाली है। कहना मुश्किल है कि कहानी और प्रस्तुति के स्तर पर कितना परिवर्तन होगा। वैसे, शक्ति सागर ने बताया है कि पिछली बार जो चीजें छूट गई थीं, इस बार वे सारी चीजें दिखाई जाएंगी। सवाल

एकलव्य बाहर हो गया एकैडमी से

सुबह-सुबह एकैडमी की लिस्ट आ गयी.एकैडमी के विदेशी भाषा श्रेणी में फिल्म भेजने के लिए जो मारकाट मची थी,उस से आप सभी परिचित हैं.धर्म और एकलव्य ऐसे टकराए थे मानो एकैडमी में फिल्म नहीं गयी तो फिल्म ही बनाना बेकार है.पता नहीं अब कौन मातम मना रहा होगा.शाम तक लोगों की प्रतिक्रियाएं आ जायेंगी। फिलहाल आप को बता दें के इस साल ६३ देशों की फिल्मों को एंट्री मिली थी,उनमें से ९ पहले चरण में नामांकित की गयी हैं.२२ जनवरी को इनमें से ५ की अन्तिम सूची जारी की जायेगी। 1.Austria, “The Counterfeiters,” Stefan Ruzowitzky, director 2.Brazil, “The Year My Parents Went on Vacation,” Cao Hamburger, director 3.Canada, “Days of Darkness,” Denys Arcand, director 4.Israel, “Beaufort,” Joseph Cedar, director 5.Italy, “The Unknown,” Giuseppe Tornatore, director 6.Kazakhstan, “Mongol,” Sergei Bodrov, director 7.Poland, “Katyn,” Andrzej Wajda, director 8.Russia, “12,” Nikita Mikhalkov, director 9.Serbia, “The Trap,” Srdan Golubovic, director चलिए हम सभी इन फिल्मों को देखने का इन्तेजाम करें.इसे शर्म कहें या विडम्बना कि भ

असली-नकली सलमान खान

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आप की नज़रों से भला असली और नकली सलमान खान छुप सकते हैं.दोनों तस्वीरें देखने के बाद तो समझ ही गए होंगे.कैसा ज़माना आ गया है.असली सलमान खान नकली सलमान खान के आगे-पीछे खड़ा है ... हा हा हा हा .........

'अशोक' बनेंगे अमिताभ बच्चन और अजय देवगन

एक हैं डॉ चंद्रप्रकाश द्विवेदी...उन्होंने कुछ सालों पहले पिंजर नाम की फिल्म बनाईं थी.उस फिल्म की काफी तारीफ हुई थी.सभी ने मन था कि उन्होंने चाणक्य के बाद एक और बेहतरीन काम किया है.पिंजर के बाद डॉ द्विवेदी ने सनी देओल के साथ पृथ्वीराज रासो की योजना बनाईं.इस फिल्म की अभी घोषणा भी नहीं हुई थी कि राज कुमार संतोषी ने विज्ञापन तक प्रकाशित कर दिया कि वे अजय देवगन और ऐश्वर्या राय के साथ पृथ्वीराज रासो बनायेंगे.कहते हैं राज कुमार संतोषी और सनी देओल की पुरानी लड़ाई और अहम का शिकार हो गयी डॉ द्विवेदी की पृथ्वीराज रासो.कुछ समय के बाद पता चला कि दोनों ही फिल्मों को निर्माता नहीं मिल पाए.भगत सिंह के दौरान पैसे होम कर चुके निर्माताओं ने नहीं टकराने का फैसला लिया.नतीजा सभी के सामने है.पृथ्वीराज रासो नहीं बन सकी। डॉ द्विवेदी मन मसोस कर रह गए.उधर राज कुमार संतोषी हल्ला बोल बनने में जुट गए.लंबे शोध और अध्ययन के बाद डॉ द्विवेदी ने अशोक के जीवन के उत्तर काल पर फिल्म बनने की सोची.इस फिल्म के सिलसिले में उनकी मुलाक़ात देश के कई निर्माताओं से हुई.सभी ने इस फिल्म में रूचि दिखाई.मामला धीरे-धीरे आगे बढ़ रहा था.खबर

कई मुद्दों का हल्ला बोल

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-अजय ब्रह्मात्मज छोटे शहर का युवक अशफाक (अजय देवगन) एक्टर बनने की ख्वाहिश रखता है। मेहनत और जरूरी युक्तियों से वह सुपर स्टार समीर खान बन जाता है। स्टार बनने के साथ उस में कई अवगुण आ जाते हैं। वह माता-पिता और गुरु तक को पलटकर ऐसा जवाब देता है कि वो रूठ कर चले जाते हैं। फिर बीवी स्नेहा (विद्या बालन) की बारी आती है। वह भी उससे विमुख हो जाती है। हर तरफ से भावनात्मक रूप से ठुकराए जाने के बाद समीर का जमीर जागता है। वह एक हत्या का चश्मदीद रहा है। वह हिम्मत करता है और अपराधियों को बेनकाब करता है, लेकिन पावर, पब्लिक और पैसे के बूते अपराधी बरी हो जाते हैं। अंतत: समीर खान सड़क पर उतरता है और सिद्धू के सहयोग से नुक्कड़ नाटक के जरिए हल्ला बोलता है। उस पर हमला होता है। सिद्धू की ललकार से मीडिया और पब्लिक भी हल्ला बोल में शामिल हो जाती है। आखिरकार अपराधियों को सजा मिलती है। राज कुमार संतोषी ने जेसिका लाल कांड, सफदर हाशमी प्रसंग और फिल्मी सितारों में प्रचलित कुरीतियों को एक साथ जोड़ा है। वह एक ही कहानी में कई मुद्दे पिरोते हैं। इस वजह से फिल्म का फोकस बार-बार बदलता रहता है। हल्ला बोल का मुख्य विषय दू

माई नेम इज.. सच्चाई से टकराव

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-अजय ब्रह्मात्मज इस फिल्म से नए अभिनेता निखिल द्विवेदी का करियर शुरू हुआ है। निखिल अपनी पहली फिल्म के लिहाज से संतुष्ट करते हैं। उनमें पर्याप्त संभावनाएं हैं। फिल्म इंडस्ट्री के बाहर से आए अभिनेता की एक बड़ी दिक्कत पर्दे पर आकर्षक दिखने की होती है, चूंकि उसकी ग्रूमिंग वैसी नहीं रहती, इसलिए कैमरे से दोस्ती नहीं हो पाती। निखिल में भी पहली फिल्म का अनगढ़पन है। अनाथ एंथनी (निखिल) को सिकंदर भाई (पवन मल्होत्रा) का सहारा मिलता है। वे उसे फादर ब्रेगैंजा (मिथुन चक्रवर्ती) के पास शिक्षा के लिए भेजते हैं। एंथनी बड़ा होकर बारटेंडर बन जाता है। वह जिस पब में काम करता है, उसके मालिकों में सिकंदर भाई भी हैं। एंथनी की ख्वाहिश एक्टर बनने की है। उसकी ख्वाहिश को मूर्ति (सौरभ शुक्ला) का समर्थन मिलता है। उसे एक फिल्म मिलती है। फिल्म की असिस्टेंट डायरेक्टर रिया से एंथनी को प्यार हो जाता है। कहानी मोड़ लेती है, जब फिल्म में शेक्सपियर के नाटक जूलियस सीजर से मिलती-जुलती स्थिति बनती है। एंथनी एक घटना का गवाह है, अगर वह सच बता दे तो सिकंदर भाई समेत सारे अपराधी पकड़े जाएंगे और हो सकता है कि उसका फिल्मी करियर ही

निखिल द्विवेदी: उभरा एक नया सितारा

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-अजय ब्रह्मात्मज देश भर के बच्चे, किशोर और युवक फिल्में देख कर प्रभावित होते हैं। वे उनके नायकों की छवि मन में बसा लेते हैं कि मैं फलां स्टार की तरह बन जाऊं। जहां एक ओर आज देश के लाखों युवक शाहरुख खान बनना चाहते हैं, वहीं दूसरी ओर 20-25 साल पहले सभी के ख्वाबों में अमिताभ बच्न थे। उन्हीं दिनों इलाहाबाद के एक मध्यवर्गीय परिवार के लड़के निखिल द्विवेदी ने भी सपना पाला। सपना था अमिताभ बच्चन बनने का। उसने कभी किसी से अपने सपने की बात इसलिए नहीं की, क्योंकि उसे यह मालूम था कि जिस परिवार और पृष्ठभूमि में उसकी परवरिश हो रही है, वहां अमिताभ बच्चन तो क्या, फिल्मों में जाने की बात करना भी अक्षम्य अपराध माना जाएगा! ऐसी ख्वाहिशों को कुचल दिया जाता है और माना जाता है कि लड़का भटक गया है। वैसे, आज भी स्थिति नहीं बदली है। आखिर कितने अभिनेता हिंदी प्रदेशों से आ पाए? क्या हिंदी प्रदेश के युवक किसी प्रकार से पिछड़े या अयोग्य हैं? नहीं, सच यही है कि फिल्म पेशे को अभी तक हिंदी प्रदेशों में सामाजिक मान्यता नहीं मिली है। दिल में अपना सपना संजोए निखिल द्विवेदी पिता गोविंद द्विवेदी के साथ मुंबई आ गए। मुंबई महा

कूल और कामयाब हैं रितिक रोशन

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-अजय ब्रह्मात्मज जन्मदिन, 10 जनवरी पर विशेष.. अगर आपके समकालीन और प्रतिद्वंद्वी आपकी सराहना करें, तो इसका मतलब यही है कि आपने कुछ हासिल कर लिया है। पूरी दुनिया से स्वीकृति मिलने के बाद भी प्रतिद्वंद्वी आपकी उपलब्धियों को नजरंदाज करते हैं। पिछले दिनों एक बातचीत में अभिषेक बच्चन ने अपने मुख्य प्रतिद्वंद्वी रितिक रोशन की खुली तारीफ की। फिल्मों के चुनाव से लेकर अभिनय तक में उनकी विविधता का उल्लेख किया और स्वीकार किया कि रितिक ने थोड़े समय में ही ज्यादा सफल फिल्में दी हैं। हां, यह सच भी है, क्योंकि रितिक रोशन ने पिछले आठ सालों में केवल तेरह फिल्में की हैं और उनमें से सच तो यह है कि पांच फिल्मों ने बॉक्स ऑफिस पर सफलता हासिल की है। रितिक रोशन ने अभी तक केवल चुनिंदा फिल्में की हैं। उनके समकालीनों में अभिषेक बच्चन, विवेक ओबेराय और जॉन अब्राहम ने उनसे ज्यादा फिल्में जरूर कर ली हैं, लेकिन फिर भी वे काम और कामयाबी के लिहाज से रितिक रोशन से काफी पीछे हैं। रितिक रोशन के रातोंरात स्टार बनने का गवाह रहा है दैनिक जागरण। पहली फिल्म कहो ना प्यार है के समय से रितिक रोशन और दैनिक जागरण का साथ रहा है। इस फि

आत्मविश्वास से हैं लबरे़ज: दीपिका पादुकोन

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-अजय ब्रह्मात्मज किसी नयी-नवेली अभिनेत्री की दमदार मौजूदगी का इससे बडा सबूत नहीं हो सकता कि फिल्म इंडस्ट्री का हर सक्रिय निर्देशक उसे अपनी फिल्म में लेने के लिए तैयार हो। मुंबई की हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में इन दिनों दीपिका पादुकोन इसी सुंदर स्थिति से गुजर रही हैं। उनके सिर्फ हां कहने और तारीखें देने के साथ फिल्म शुरू हो सकती है। 21 वर्षीया दीपिका पादुकोन ने पहली फिल्म में ही गहरे आत्मविश्वास का परिचय दिया है। आत्मविशवास से भरा व्यक्तित्व दीपिका पादुकोन में यह आत्मविश्वास पुराना है। ओम शांति ओम की सफलता और पहली ही फिल्म में शाहरुख खान के साथ ने पुराने आत्मविश्वास को गाढा कर दिया है। दो साल पहले सुपर मॉडल के तौर पर विख्यात होने के बाद एक लाइव चैट में उन्होंने एक जिज्ञासु के सवाल-जवाब में कहा था कि वह शाहरुख खान के साथ काम करना चाहेंगी, लेकिन हिंदी फिल्मों में आने के पहले वह कन्नड या तमिल की फिल्म में खुद को मांजेंगी। दीपिका ने वही किया, जो कहा था। उन्होंने ओम शांति ओम के पहले कन्नड में इंद्रजीत लंकेश के निर्देशन में ऐश्वर्या नामक फिल्म की। ऐसा लगता है कि दीपिका पादुकोन अपना भविष्य पढ

प्रीमियर होता है आज भी,लेकिन

आये दिन खबरें छपती हैं या टीवी चैनलों पर चलती-फिरती तस्वीरें दिखाई जाती हैं कि फलां फिल्म का प्रीमियर हुआ और उसमें फिल्म के सभी कलाकारों के साथ इतने सारे स्टार आये.खबर और इवेंट बन कर रह गए प्रीमियर में अब पहले जैसी भव्यता या उत्सव का माहौल नहीं रह गया है। आपने सुना ही होगा कि मुग़ल-ए-आज़म के प्रीमियर में के आसिफ ने हाथी तक मंगवा लिए थे.उन दिनों प्रीमिएर किसी जश्न से कम नहीं होता था.बहुत पहले से खबर फैल जाती थी और यकीं करें सिनेमाघर को किसी दुल्हन की तरह सजाया जाता था.पूरा शृंगार होता था और फिल्म बिरादरी के लोग किसी बाराती की तरह वहाँ पहुँचते थे.हर व्यक्ति अपना सबसे सुन्दर और आकर्षक परिधान निकालता था.फिल्म से संबंधित हीरो-हिरोइन तो विशेष कपड़े बनवाते थे.कहा जाता है कि राज कपूर अपनी फिल्मों के प्रीमिएर के समय यूनिट के सभी सदस्यों के लिए शूट सिलवाते थे। तब सिनेमाघर इतने बड़े और विशाल होते थे कि सितारों की भीड़ मेला का रुप ले लेती थी और उनकी जगमगाहट से माहौल रोशन हो उठता था.मुम्बई में ऐसे सिनेमाघर थे जहाँ आराम से १५०० दर्शक एक साथ फिल्म देख सकते थे.प्रीमियर में आये सितारों को देखने की भीड़ भ

अजय देवगन से अजय ब्रह्मात्मज की मुलाक़ात

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-अजय ब्रह्मात्मज अजय देवगन पिछले दिनों गोवा में फिल्म गोलमाल रिट‌र्न्स की शूटिंग कर रहे थे। रोहित शेट्टी निर्देशित इस फिल्म के कलाकार हैं करीना कपूर, तुषार कपूर, अरशद वारसी और अमृता अरोड़ा। सेट पर ही अजय देवगन से मुलाकात हुई। उनसे बातचीत शुरू हुई इस सवाल के साथ कि आपकी दो फिल्में लगातार आएंगी हल्ला बोल और संडे। क्या इनमें गैप रखना उचित नहीं होगा? वे कहते हैं, फिल्म हल्ला बोल पहले 2007 में रिलीज होने वाली थी। 21 दिसंबर की तारीख भी फाइनल हो गई थी, लेकिन उसी दिन आमिर खान की फिल्म तारे जमीं पर और अक्षय कुमार की वेलकम आ रही थी। इसलिए मुझे उसी दिन हल्ला बोल को रिलीज करना सही नहीं लगा। इसी कारण यह फिल्म खिसक कर जनवरी में आ गई। संडे की रिलीज तारीख को आगे खिसकाना संभव नहीं था। संयोग ही कहें कि बैक-टू-बैक मेरी फिल्में आ रही हैं। वैसे बैक-टू-बैक रिलीज होने पर मेरी फिल्में चलती हैं। फिल्म हल्ला बोल के बारे में अजय बताते हैं, जिसको लेकर चर्चा है कि यह गंगाजल और अपहरण जैसी लग रही है, यह वैसी फिल्म नहीं है। उनसे ज्यादा कॉमर्शिअॅल है। दरअसल, राजकुमार संतोषी को कॉमर्शिअॅल ढांचा पसंद है, इसीलिए उन्होंने

हिन्दी प्रदेशों से क्यों नहीं आते हीरो?

नए साल में चवन्नी की चाहत है कि उसकी बिरादरी के लोगों की सक्रियता बढे.सवाल है कि यह सक्रियता कैसे बढेगी?एक तरीका यह हो सकता है कि सामूहिक ब्लोग मोहल्ला और भड़ास कि तरह चवन्नी भी सिनेमा के शौकीनों को आमंत्रित करे और उनकी बातें यहाँ रखे। एक दूसरा तरीका यह हो सकता है कि अगर आप में से कोई भी सिनेमा के किसी भी पहलू पर कुछ लिखना या बताना चाहता है तो वह चवन्नी को मेल कर दे और चवन्नी उसे फटाफट ब्लोग पर डाल दे.इस प्रसंग में कई मुद्दों पर सामूहिक बहस हो सकती है और कई नए विचार और दृष्टिकोण सामने आ सकते हैं। मसलन एक लंबे समय के बाद फिल्म इंडस्ट्री के बाहर का एक नौजवान फिल्मों में आ रहा है.निखिल द्विवेदी का संबंध इलाहबाद से रहा है.वे आज भी खुद को इलाहाबादी ही कहते हैं.सवाल है कि हिन्दी प्रदेशों से हीरो क्यों नहीं आते?संभव है कि यह सवाल आपके मन में भी आया हो और आपके पास भी इसके जवाब हों.क्यों न हम इस मुद्दे पर विमर्श करें? और भी कई सवाल हैं.जैसे की दर्शक बदले हैं और सिनेमा देखने का तरीका भी बदला है.अनंत फिल्में हैं और अनंत है फिल्मों से संबंधित कथाएँ...आइये एक ने शुरुआत करें। चवन्नी का मेल आईडी है-ch

साल के आखिरी और पहले हफ्ते का अपशकुन

-अजय ब्रह्मात्मज हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में शकुन-अपशकुन पर बहुत ध्यान दिया जाता है। संयोग और घटनाओं के कारण परिणामों के दोहराव से शकुन-अपशकुन का निर्धारण होता है और फिर बगैर किसी लॉजिक और पुनर्विचार के उसका पालन भी होने लगता है। धारणाएं अंधविश्वास का रूप ले लेती हैं और अंधविश्वास धारणाएं बदल देती हैं। पिछले कुछ वर्षो से यह देखा जा रहा है कि साल के आखिरी हफ्ते या पहले हफ्ते में रिलीज हुई फिल्में अच्छा बिजनेस नहीं करती हैं। शायद इसीलिए ज्यादातर निर्माता कोशिश यही करते रहते हैं कि उनकी फिल्में इन हफ्तों में न फंसें। पिछले हफ्ते हनुमान रिट‌र्न्स और शोबिज रिलीज हुई। दोनों फिल्मों का बिजनेस उत्साहजनक नहीं रहा। इस हफ्ते की बात करें, तो कोई भी उल्लेखनीय फिल्म रिलीज नहीं हो रही है। हल्ला बोल, माई नेम इज एंथनी घोनसाल्विस और बॉम्बे टू बैंकॉक तीनों फिल्में 11 जनवरी को रिलीज होंगी। बहुत पहले महेश भट्ट की कसूर और राज जैसी फिल्में पहले हफ्तों में आने के बाद भी कामयाब रही थीं। महेश भट्ट कहते हैं, मुझे इंडस्ट्री के इस अंधविश्वास की जानकारी है। फिल्म अपने कॉन्टेंट और प्रेजेंटेशन से चलती है। इसलिए मैं अपश

वड़ा पाव क्यों खाते थे दिलीप कुमार?

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चलिए आज हिन्दी फिल्मों की पुरानी गलियों में चलते हैं.यह किस्सा दिलीप कुमार से संबंधित है.चवन्नी ने अभी फिल्म पत्रकारिता में कदम नहीं रखा था,तभी उसके एक अभिनेता मित्र ने यह किस्सा सुनाया था.इस किस्से की सच्चाई का दावा करना मुश्किल है.दिलीप कुमार हिन्दी फिल्मों के जीवित किंवदंती है,उनके बारे में अनेक किस्से सुनाई पड़ते हैं। दिलीप कुमार उन दिनों लोकप्रियता के उत्कर्ष पर थे.आये दिन उनके सम्मान में भोज और पार्टियाँ हुआ करती थीं.हर मौक़े पर दिलीप साहेब ही मुख्य अतिथि होते थे.यह किस्सा उनके ड्राइवर का बताया हुआ है,इसलिए इसके सच होने की पूरी गुंजाईश है.और फिर जैसा किस्सा है,वह दिलीप साहब के अंतर्मुखी स्वभाव से मेल खाता है.माना जा सकता है कि दिलीप साहेब ऐसा कर सकते हैं। उनके ड्राइवर ने नोटिस किया कि साहेब कहीं डिनर या पार्टी में जा रहे हों तो अक्सर वहाँ पहुँचने के पहले गाड़ी रुकवा लेते थे और ड्राइवर से वड़ा पाव मंगवा कर खा लेते थे.ऐसा एक बार नहीं कई बार हुआ तो ड्राइवर अपना अचरज नहीं रोक सका .एक दिन उसने हिम्मत जुटाई और पूछ ही लिया,'साहेब ,ये पार्टियाँ आप के लिए ही रखी जाती हैं और आप ही खास

बधाई विद्या...जन्मदिन की बधाई

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माफ़ करें.पहली बार ऐसा हुआ.न जाने कैसे इस पोस्ट का शीर्षक ही पहली बार पोस्ट हो पाया.शायद चवन्नी ने ही गफलत में कोई और बटन दबा दिया होगा। आज विद्या बालन का जन्मदिन है.क्या आप ने बधाई भेजी?मीडिया ने विद्या के जन्मदिन पर कोई हो-हल्ला नहीं किया.चवन्नी की मानें तो विद्या अभी बिकाऊ वस्तु नहीं बनी हैं.यह विद्ता और उनके प्रशंसकों के लिए अच्छी बात है.बहुत बारीक़ से लकीर होती है.लोकप्रियता और बाज़ार के लिए उपयोगी होने में इसी लकीर से अंतर आता है.बाज़ार को लगता है कि विद्या अभी उत्पाद बेचने में उपयोगी नहीं हैं,इसलिए उनकी लोकप्रियता के बावजूद वह उन्हें तवज्जो नहीं देता.अगर बाज़ार महत्व नहीं देता तो मीडिया भी नज़रंदाज कर देता है। विद्या से चवन्नी की मुलाक़ात है.परिणीता की रिलीज के समय ही यह मुलाक़ात हुई थी.जब भी कोई नयी फिल्म रिलीज होने को होती है तो उस फिल्म के स्टार और बाकी सदस्यों से पत्रकारों की मुलाक़ात करवाई जाती है.ऐसी मुलाकातों के लिए ८-१० पत्रकारों को एक साथ बिठा दिया जाता है और फिर घिसी-पिटी बातचीत होती है.मसलन यह रोल कैसे मिला?रोल के लिए कैसे तैयारी की?निर्देशक और नायक के साथ कैसी निभी?ऐसे

२००८ में चवन्नी का नमस्कार

चवन्नी का नमस्कार ... साल २००८ आज से शुरू हो रहा है.सभी चाहते हैं कि जैसा बीता पिछला साल ,उस से बेहतर हो यह साल.इंसानी फितरत है वह कल से बेहतर आज से बेहतरीन आने वाला कल चाहता है.दर्शक भी इंसान हैं.उनकी भी इच्छा रहती है कि इस साल पिछले साल से ज्यादा तगड़ा मनोरंजन हो,अधिक सारगर्भित फिल्में दिखें और सिनेमा उनके करीब आये.करीब आने का मतलब विषय,प्रस्तुति और प्रदर्शन से है.अभी तो मल्टीप्लेक्स कल्चर ने सिनेमा को आम दर्शकों से दूर कर दिया है.बड़े शहरों में तो हालत और भी बुरी होती जा रही है.चवन्नी की बिरादरी के लिए सिनेमाघरों के दरवाजे बंद हो रहे हैं। कैसी विडम्बना है?गाँव,देहात और छोटे शहरों से आये जिन दर्शकों ने हिन्दी सिनेमा को इस मुकाम तक पहुँचाया,वे ही अब वंचित किये जा रहे हैं.ऐसा लग रहा है कि सिनेमा अब आम दर्शकों का मनोरंजन माध्यम नहीं रह गया है.न जेब में पैसे होंगे और न दर्शक सिनेमाघरों में घुस पायेंगे?४००० से ६००० रुपये प्रति माह कमाने वाला दर्शक कहाँ से २०० रुपये लाएगा कि वह सिनेमा देख पायेगा? वैसे एक खुशखबरी भी है कि सिनेमा के डिजिटल होने कि प्रक्रिया में तेजी आने के साथ सिनेमा के सस्ते