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फिल्‍म समीक्षा : कट्टी बट्टी

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नए इमोशन,नए रिलेशन -अजय ब्रह्मात्‍मज     निखिल आडवाणी की फिल्‍में देखते हुए उनकी दुविधा हमेशा जाहिर होती है। ‘ कट्टी बट्टी ’ अपवाद नहीं है। इस फिल्‍म की खूबी हिंदी फिल्‍मों के प्रेमियों को नए अंदाज और माहौल में पेश करना है। पारंपरिक प्रेमकहानी की आदत में फंसे दर्शकों को यह फिल्‍म अजीब लग सकती है। फिल्‍म किसी लकीर पर नहीं चलती है। माधव और पायल की इस प्रेमकहानी में हिंदी फिल्‍मों के प्रचलित तत्‍व भी हैं। खुद निखिल की पुरानी फिल्‍मों के दृश्‍यों की झलक भी मिल सकती है। फिर भी ‘ कट्टी बट्टी ’ आज के प्रेमियों की कहानी है। आप कान लगाएं और आंखें खोलें तो आसपास में माधव भी मिलेंगे और पायल भी मिलेंगी।     माधव और पायल का प्रेम होता है। माधव शादी करने को आतुर है,लेकिन पायल शादी के कमिटमेंट से बचना चाहती है। उसे माधव अच्‍छा लगता है। दोनों लिवइन रिलेशन में रहने लगते हैं। पांच सालों के साहचर्य और सहवास के बाद एक दिन पायल गायब हो जाती है। वह दिल्‍ली लौट जाती है। फिल्‍म की कहानी यहीं से शुरू होती है। बदहवास माधव किसी प्रकार पायल तक पहुंचना चाहता है। उसे यकीन है कि पायल आज भी उसी

फिल्‍म समीक्षा : गोरी तेरे प्‍यार में

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-अजय ब्रह्मात्‍मज  धर्मा प्रोडक्शन के बैनर तले बनी पुनीत मल्होत्रा की फिल्म 'गोरी तेरे प्यार में' पूरी तरह से भटकी, अधकचरी और साधारण फिल्म है। ऐसी सोच पर फिल्म बनाने का दुस्साहस करण जौहर ही कर सकते थे। करण जौहर स्वयं क्रिएटिव और सफल निर्देशक हैं। उन्होंने कुछ बेहतरीन फिल्मों का निर्माण भी किया है। उनसे उम्मीद रहती है, लेकिन 'गोरी तेरे प्यार में' वे बुरी तरह से चूक गए हैं। जोनर के हिसाब से यह रोमांटिक कामेडी है। इमरान खान और करीना कपूर जैसे कलाकारों की फिल्म के प्रति दर्शकों की सहज उत्सुकता बन जाती है। अफसोस है कि इस फिल्म में दर्शकों की उत्सुकता भहराकर गिरेगी। दक्षिण भारत के श्रीराम (इमरान खान) और उत्तर भारत की दीया (करीना कपूर) की इस प्रेमकहानी में कुछ नए प्रसंग,परिवेश और घटनाएं हैं। उत्तर-दक्षिण का एंगल भी है। ऐसा लगता है कि लेखक-निर्देशक को हीरो-हीरोइन के बीच व्यक्ति और समाज का द्वंद्व का मसाला अच्छा लगा। उन्होंने हीरोइन की सामाजिक प्रतिबद्धता को हीरो के प्रेम में अड़चन की तरह पेश किया है। हाल-फिलहाल तक हीरोइन का साथ और हाथ हासिल करने के लिए ही

फिल्‍म समीक्षा : वंस अपॉन ए टाइम इन मुंबई दोबारा

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नहीं बनी बात  -अजय ब्रह्मात्‍मज  मिलन लुथरिया अपनी पहचान और प्रयोग के साथ बतौर निर्देशक आगे बढ़ रहे थे। 'वंस अपॉन ए टाइम इन मुंबई दोबारा' से उन्हें झटका लगेगा। यह उनकी कमजोर फिल्म है। पहली कोशिश में मिलन सफल रहे थे, लेकिन दूसरी कोशिश में पहले का प्रभाव नहीं बनाए रख सके। उन्होंने दो अपराधियों के बीच इस बार तकरार और तनाव के लिए प्रेम रखा, लेकिन प्रेम की वजह से अपराधियों की पर्सनल भिड़ंत रोचक नहीं बन पाई। पावर और पोजीशन के लिए लड़ते हुए ही वे इंटरेस्टिंग लगते हैं। शोएब और असलम अनजाने में एक ही लड़की से प्रेम कर बैठते हैं। लड़की जैस्मीन है। वह हीरोइन बनने मुंबई आई है। आठवें दशक का दौर है। तब फिल्म इंडस्ट्री में अंडरव‌र्ल्ड की तूती बालती थी। जैस्मीन की मुलाकात अंडरव‌र्ल्ड के अपराधियों से होती है। कश्मीर से आई जैस्मीन का निर्भीक अंदाज शोएब को पसंद आता है। वह जैस्मीन की तरफ आकर्षित होता है, लेकिन जैस्मीन तो शोएब के कारिंदे असलम से प्रेम करती है। आखिरकार मामला आमने-सामने का हो जाता है। लेखक-निर्देशक ने इस छोटी सी कहानी के लिए जो प्रसंग और दृश्य रचे हैं, वे बा

फिल्‍म रिव्‍यू : मटरू की बिजली का मन्‍डोला

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मुद्दे का हिंडोला -अजय ब्रह्मात्‍मज देश के सामाजिक और राजनीतिक मुद्दे संवेदनशील फिल्मकारों को झकझोर रहे हैं। वे अपनी कहानियां इन मुद्दों के इर्द-गिर्द चुन रहे हैं। स्पेशल इकॉनोमिक जोन [एसईजेड] के मुद्दे पर हम दिबाकर बनर्जी की 'शांघाई' और प्रकाश झा की 'चक्रव्यूह' देख चुके हैं। दोनों ने अलग दृष्टिकोण और निजी राजनीतिक समझ एवं संदर्भ के साथ उन्हें पेश किया। विशाल भारद्वाज की 'मटरू की बिजली का मन्डोला' भी इसी मुद्दे पर है। विशाल भारद्वाज ने इसे एसईजेड मुद्दे का हिंडोला बना दिया है, जिसे एक तरफ से गांव के हमनाम जमींदार मन्डोला व मुख्यमंत्री चौधरी और दूसरी तरफ से मटरू और बिजली हिलाते हैं। हिंडोले पर पींग मारते गांव के किसान हैं, मुद्दा है, माओ हैं और व‌र्त्तमान का पूरा मजाक है। वामपंथी राजनीति की अधकचरी समझ से लेखक-निर्देशक ने माओ को म्याऊं बना दिया है। दर्शकों का एक हिस्सा इस पर हंस सकता है, लेकिन फिल्म आखिरकार मुद्दे, मूवमेंट और मास [जनता] के प्रति असंवेदी बनाती है। मन्डोला गांव के हमनाम जमींदार मन्डोला दिन में क्रूर, शोषक और सामंत बने रहते हैं। शा

मटरू की बिजली का मन्डोला का नामकरण

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-अजय ब्रह्मात्‍मज  विशाल भारद्वाज ने मकड़ी,मकबूल और ओमकारा के बाद पहली बार सात खून माफ में तीन शब्दों का टायटल चुना था। इस बार उनकी फिल्म के टायटल में पांच शब्द हैं-मटरू की बिजली का मन्डोला। फिल्म के नाम की पहली घोषणा के बाद से ही इस फिल्म के टाश्टल को लेकर कानाफूसी चालू हो गई थी। एक तो यह हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के अंगेजीदां सदस्यों के लिए टंग ट्विस्टर थ और दूसरे इसका मानी नहीं समझ में आ रहा था। बहुत समय तक कुछ लोग मटरू को मातृ और मन्डोला को मन डोला पढ़ते रहे। विशाल भारद्वाज ने इस फिल्म के टायटल की वजह बताने के पहले एक किस्सा सुनाया। जावेद अख्तर को यह टायटल पसंद नहीं आया था। उनहोंने विशाल से कहा भी कि यह कोई नाम हुआ। उनकी आपत्ति पर गौर करते हुए विशाल ने फिल्म का नाम खामखां कर दिया। वे अभी नए टायटल की घोषणा करते इसके पहले ही विशाल के पास जावेद साहब का फोन आया- आप ने खामखां नाम जाहिर तो नहीं किया है। मुझे पहला टायटल ही अच्छा लग रहा है। किसी मंत्र का असर है उसमें। आप तो मटरू की बिजली का मन्डोला टायटल ही रखो। इस फिल्म के गीत के लिए जब विशाल अपने गुरू और गॉडफादर गुलजार से मिले तो वे भी

मुझे फिल्मों में ही आना था- राज कुमार

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-अजय ब्रह्मात्मज उन्होंने अपने नाम से यादव हटा दिया है। आगामी फिल्मों में राज कुमार यादव का नाम अब सिर्फ राज कुमार दिखेगा। इसकी वजह वे बताते हैं, ‘पूरा नाम लिखने पर नाम स्क्रीन के बाहर जाने लगता है या फिर उसके फॉन्ट छोटे करने पड़ते हैं। इसी वजह से मैंने राज कुमार लिखना ही तय किया है। इसके अलावा और कोई बात नहीं है।’ राज कुमार की ताजा फिल्म ‘शाहिद’ इस साल टोरंटो फिल्म फेस्टिवल में दिखाई गई। पिछले दिनों अनुराग कश्यप की फिल्म ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर-2’ में उन्होंने शमशाद की जीवंत भूमिका निभाई। उनकी ‘चिटगांव’ जल्दी ही रिलीज होगी। एफटीआईआई से एक्टिंग में ग्रेजुएट राज कुमार ने चंद फिल्मों से ही, अपनी खास पहचान बना ली है। इन दिनों वे ‘काए पो चे’ और ‘क्वीन’ की शूटिंग कर रहे हैं।     -आप एफटीआईआई के ग्रेजुएट हैं, लेकिन आप की पहचान मुख्य रूप से थिएटर एक्टर की है। ऐसा माना जाता है कि आप भी एनएसडी से आए हैं? 0 इस गलतफहमी से मुझे कोई दिक्कत नहीं होती। दरअसल शुरू में लोग पूछते थे कि आप ने फिल्मों से पहले क्या किया है, तो मेरा जवाब थिएटर होता था। फिल्मों में लोग थिएटर का मतलब एनएसडी ही समझते हैं, इसल

फिल्म समीक्षा : एक मैं और एक तू

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डायनिंग टेबल ड्रामा -अजय ब्रह्मात्‍मज करण जौहर निर्माता के तौर पर एक्टिव हैं। कुछ हफ्ते पहले उनकी अग्निपथ रिलीज हुई। एक्शन से भरी वह फिल्म अधिकांश दर्शकों को पसंद आई। इस बार वे रोमांटिक कामेडी लेकर आए हैं। वसंत का महीना प्यार और रोमांस का माना जाता है। अब तो 14 फरवरी का वेलेंटाइन डे भी मशहूर हो चुका है। इस मौके पर वे करीना कपूर और इमरान खान के डेट रोमांस की फिल्म एक मैं और एक तू किशोर और युवा दर्शकों को ध्यान में रखकर ले आए हैं। करण जौहर की ऐसी फिल्मों की तरह ही इसका लोकेशन भी विदेशी है। वेगास से आरंभ होकर यह फिल्म नायक-नायिका के साथ मुंबई पहुंचती है और डायनिंग टेबल ड्रामा के साथ समाप्त होती है। और हां,इस फिल्म के निर्देशक शकुन बत्रा हैं। अचानक मुलाकात, हल्की सीे छेडछाड़, साथ में ड्रिंक और फिर अनजाने में हुई शादी बता दें कि कहानी में लड़का थोड़ा दब्बू और लड़की बिंदास है। यूं इस फिल्म की अन्य महिला किरदार भी यौन ग्रंथि की शिकार दिखती हैं। मुमकिन है विदेशों में लड़कियां यौन संबंधों को लेकर अधिक खुली और मुखर हों। राहुल और रियाना अनजाने में हुई अपनी शादी रद्द करवाने के चक्कर में दो हफ्ते म

फिल्‍म समीक्षा : मेरे ब्रदर की दुल्‍हन

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-अजय ब्रह्मात्‍मज पंजाब की पृष्ठभूमि से बाहर निकलने की यशराज फिल्म्स की नई कोशिश मेरे ब्रदर की दुल्हन है। इसके पहले बैंड बाजा बारात में उन्होंने दिल्ली की कहानी सफल तरीके से पेश की थी। वही सफलता उन्हें देहरादून के लव-कुश की कहानी में नहीं मिल सकी है। लव-कुश छोटे शहरों से निकले युवक हैं। ने नए इंडिया के यूथ हैं। लव लंदन पहुंच चुका है और कुश मुंबई की हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में आ गया है। उल्लेखनीय है कि दोनों का दिल अपने छोटे शहर की लड़कियों पर नहीं आया है। क्राइसिस यह है कि बड़े भाई लव का ब्रेकअप हो गया है और वह एकबारगी चाहता है कि उसे कोई मॉडर्न इंडियन लड़की ही चाहिए। बड़े भाई को यकीन है कि छोटे भाई की पसंद उससे मिलती-जुलती होगी, क्योंकि दोनों को माधुरी दीक्षित पसंद थीं। किसी युवक की जिंदगी की यह क्राइसिस सच्ची होने के साथ फिल्मी और नकली भी लगती है। बचे होंगे कुछ लव-कुश, जिन पर लेखक-निर्देशक अली अब्बास जफर की नजर पड़ी होगी और जिनका प्रोफाइल यशराज फिल्म्स के आदित्य चोपड़ा को पसंद आया होगा। इस क्राइसिस का आइडिया रोचक लगता है, लेकिन कहानी रचने और चित्रित करने में अली अब्बास जफर ढीले प

फिल्‍म समीक्षा : देल्‍ही बेली

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चौंकाती है इसकी भाषा -अजय ब्रह्मात्‍मज ताशी, अनूप और नितिन तीन दोस्त हैं। दुनिया से बगाने और अपने काम से असंतुष्ट.. गरीबी उनकी जिंदगी पर लदी हुई है। पुरानी दिल्ली के जर्जर से किराए के कमरे में रहते हुए किसी तरह व अपने सपनों को पाल रहे हैं। अचानक उनकी जिंदगी में ऐसी आंधी आती है कि उससे बचने की कोशिश में वे तबाही के करीब पहुंच जाते हैं। मौत के चंगुल से निकलने के लिए वे कामन सेंस का इस्तेमाल करते हैं। उनकी इस फटेहाल और साधारण सी जिंदगी को लेखक अक्षत वर्मा और निर्देशक अभिनय देव ने हूबहू पर्दे पर उतार दिया है। ये साधारण किरदार आसाधारण स्थितियों में फंसते हैं और हमें उनकी बेचारगी पर हंसी आती है। आमिर खान के स्पर्श ने इस फिल्म को अनोखा बना दिया है। मूल रूप से अंग्रेजी में बनी यह फिल्म भारतीय सिनेमा में एक नई शुरुआत है। निश्चित ही इसकी कामयाबी एक नए ट्रेंड को जन्म दगी, जिसके परिणाम से मुंबई की हिंदी फिल्म इंडस्ट्री प्रभावित होगी। भारतीय सिनेमा के आम दर्शकों पर इसका शॉकिंग असर होगा, क्योंकि उन्होंने न तो फिल्मों में ऐसी भाषा सुनी है और न ऐसे दृश्य देखे हैं। अभी तक हम गालियों के इस्त

फिल्‍म समीक्षा : ब्रेक के बाद

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थीम और परफार्मेस में दोहराव -अजय ब्रह्मात्‍मज आलिया और अभय बचपन के दोस्त हैं। साथ-साथ हिंदी सिनेमा देखते हुए बड़े हुए हैं। मिस्टर इंडिया (1987) और कुछ कुछ होता है (1998) उनकी प्रिय फिल्में हैं। यह हिंदी फिल्मों में ही हो सकता है कि ग्यारह साल के अंतराल में आई फिल्में एक साथ बचपन में देखी जाएं और वह भी थिएटर में। यह निर्देशक दानिश असलम की कल्पना है, जिस पर निर्माता कुणाल कोहली ने मोहर लगाई है। इस साल हम दो फिल्में लगभग इसी विषय पर देख चुके हैं। दोनों ही फिल्में बुरी थीं, फिर भी एक चली और दूसरी फ्लॉप रही। पिछले साल इसी विषय पर हम लोगों ने लव आज कल भी देखी थी। इन सभी फिल्मों की हीरोइनें प्रेम और शादी को अपने भविष्य की अड़चन मान बे्रक लेने या अलग होने को फैसला लेती हैं। उनकी निजी पहचान की यह कोशिश अच्छी लगती है, लेकिन वे हमेशा दुविधा में रहती हैं। प्रेमी और परिवार का ऐसा दबाव बना रहता है कि उन्हें अपना फैसला गलत लगने लगता है। आखिरकार वे अपने प्रेमी के पास लौट आती हैं। उन्हें प्रेम जरूरी लगने लगता है और शादी भी करनी पड़ती है। फिर सारे सपने काफुर हो जाते हैं। ब्रेक के बाद इसी थी

फिल्‍म समीक्षा आई हेट लव स्‍टोरीज

बालिवुद का रोमांस -अजय ब्रह्मात्‍मज चौंकिए नहीं, जब करण जौहर और उनके कैंप के डायरेक्टर हिंदी फिल्मों के बारे में अंग्रेजी में सोचना शुरू करते हैं और फिर उसे फायनली हिंदी में लाते हैं तो बालीवुड के अक्षर बदल कर बालिवुद हो जाते हैं। इस फिल्म के एक किरदार के टी शर्ट पर बालिवुद लिखा साफ दिखता है। बहरहाल, आई हेट लव स्टोरीज मेनस्ट्रीम हिंदी सिनेमा के लव और रोमांस की कैंडीलास फिल्मों के मजाक से आरंभ होती है और फिर उसी ढर्रे पर चली जाती है। जैसे कि कोई बीसियों बार सुने-सुनाए लतीफे को यह कहते हुए सुनाए कि आप तो पहले सुन चुके होंगे, फिर भी..और हम-आप हो..हो..कर हंसने लगें। वैसे ही यह फिल्म अच्छी लग सकती है। पुनीत मल्होत्रा चालाक निर्देशक हैं। उन्होंने हिंदी फिल्मों की लव स्टोरी का मखौल उड़ाते हुए फिर से घिसी-पिटी लव स्टोरी बना दी है। इस आसान रास्ते के बावजूद फिल्म बांधे रखती है, क्योंकि सोनम कपूर और इमरान खान के लब एडवेंचर का आकर्षण बना रहता है। दोनों को पहली बार एक साथ नोंक-झोंक करते और एक-दूसरे पर न्योछावर होते देख कर अच्छा लगता है। दोनों में भरपूर एनर्जी है। लेखक-निर्देशक ने हीरो-ही

फ़िल्म समीक्षा:लक

-अजय ब्रह्मात्मज माना जाता है कि हिंदी फिल्मों के गाने सिर्फ 200 शब्दों को उलट-पुलट कर लिखे जाते हैं। लक देखने के बाद फिल्म के संवादों के लिए भी आप यही बात कह सकते हैं। सोहम शाह ने सिर्फ 20 शब्दों में हेर-फेर कर पूरी फिल्म के संवाद लिख दिए हैं। किस्मत, फितरत, तकदीर, गोली, मौत और जिंदगी इस फिल्म के बीज शब्द हैं। इनमें कुछ संज्ञाएं और क्रियाएं जोड़ कर प्रसंग के अनुसार संबोधन बदलते रहते हैं। यूं कहें कि सीमित शब्दों के संवाद ही इस ढीली और लोचदार स्कि्रप्ट के लिए आवश्यक थे। अगर दमदार डायलाग होते तो फिल्म के एक्शन से ध्यान बंट जाता। सोहम की लक वास्तव में एक टीवी रियलिटी शो की तरह ही है। बस, फर्क इतना है कि इसे बड़े पर्दे पर दिखाया जा गया है। इसमें टीवी जैसा रोमांच नहीं है, क्योंकि हमें मालूम है कि अंत में जीत हीरो की ही होनी है और उसकी हीरोइन किसी भी सूरत में मर नहीं सकती। वह बदकिस्मत भी हुई तो हीरो का लक उसकी रक्षा करता रहेगा। रियलिटी शो के सारे प्रतियोगी एक ही स्तर के होते हैं। समान परिस्थितियों से गुजरते हुए वे जीत की ओर बढ़ते हैं। इसलिए उनके साथ जिज्ञासा जुड़ी रहती है। बड़े पर्दे पर के

इमरान खान से बातचीत

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-अजय ब्रह्मात्मज साल भर के स्टार हो गए हैं इमरान खान। उनकी फिल्म जाने तू या जाने ना पिछले साल 4 जुलाई को रिलीज हुई थी। संयोग से इमरान से यह बातचीत 4 जुलाई को ही हुई। उनसे उनकी ताजा फिल्म लक, स्टारडम और बाकी अनुभवों पर बातचीत हुई। प्रस्तुत हैं उसके अंश.. आपकी फिल्म लक आ रही है। खुद को कितना लकी मानते हैं आप? तकनीकी रूप से बात करूं, तो मैं लक में यकीन नहीं करता। ऐसी कोई चीज नहीं होती है। तर्क के आधार पर इसे साबित नहीं किया जा सकता। मैं अपनी छोटी जिंदगी को पलटकर देखता हूं, तो पाता हूं कि मेरे साथ हमेशा अच्छा ही होता रहा है। आज सुबह ही मैं एक इंटरव्यू के लिए जा रहा था। जुहू गली से क्रॉस करते समय मेरी गाड़ी से दस फीट आगे एक टहनी गिरी। वह टहनी मेरी गाड़ी पर भी गिर सकती थी। इसी तरह पहले रेल और अब फ्लाइट नहीं छूटती है। मैं लेट भी रहूं, तो मिल जाती है। शायद यही लक है, लेकिन मेरा दिमाग कहता है कि लक जैसी कोई चीज होती ही नहीं है। क्या हमारी सोच में ही लक और भाग्य पर भरोसा करने की बात शामिल है? हमलोग आध्यात्मिक किस्म के हैं। हो सकता है उसी वजह से ऐसा हो, लेकिन फिल्म इंडस्ट्री की बात करें, तो यहां

जाने तू.. देखकर सभी को मजा आएगा: अब्बास टायरवाला

अब्बास टायरवाला ने निर्देशन से पहले फिल्मों के लिए गीत और स्क्रिप्ट लिखे। लगातार लेखन के बाद एक दौर ऐसा भी आया, जब उन्हें न ही कुछ सूझ रहा था और न कुछ नया लिखने की प्रेरणा ही मिल पा रही थी! इसी दौर में उन्होंने निर्देशन में उतरने का फैसला किया और अपनी भावनाओं को जानू तू या जाने ना का रूप दिया। यह फिल्म चार जुलाई को रिलीज हो रही है। बातचीत अब्बास टायरवाला से.. जाने तू या जाने ना नाम सुनते ही एक गीत की याद आती है। क्या उस गीत से प्रेरित है यह फिल्म? बिल्कुल है। यह मेरा प्रिय गीत है। गौर करें, तो पाएंगे कि इतने साल बाद भी इस गीत का आकर्षण कम नहीं हुआ है। पुराने गीतों की बात ही निराली है। इन दिनों एक फैशन भी चला है। नई फिल्मों के शीर्षक के लिए किसी पुराने गीत के बोल उठा लेते हैं। फिल्म की थीम के बारे में जब मुझे पता चला कि प्यार है, तो इसके लिए मुझे जाने तू या जाने ना बोल अच्छे लगे। इस गीत में खुशी का अहसास है, क्योंकि यह लोगों को उत्साह देता है। मैंने इसी तरह की फिल्म बनाने की कोशिश की है। कोशिश है कि फिल्म लोगों को खुशी दे। जाने तू या जाने ना के किरदार इसी दुनिया के हैं या आजकल की फिल्मो

हरमन बवेजा बनाम इमरान खान

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पिछली चार जुलाई को हरनाम बवेजा ने 'लव स्टोरी २०५०' और इमरान खान ने 'जाने तू या जाने ना' से अपनी मौजूदगी दर्शकों के बीच दर्ज की.अभी से यह भविष्यवाणी करना उचित नहीं होगा कि दोनों में कौन आगे जायेगा ?पहली फ़िल्म के आधार पर बात करें तो इमरान की फ़िल्म'जाने तू...'की कामयाबी सुनिशिचित हो गई है.'लव स्टोरी...' के बारे में यही बात नहीं कही जा सकती.हालाँकि चार जुलाई के पहले हरमन की फ़िल्म की ज्यादा चर्चा थी और इमरान की फ़िल्म छोटी मानी जा रही थी.वैसे भी हरमन की फ़िल्म ५० करोड़ में बनी है,जबकि इमरान की फ़िल्म की लगत महज १० करोड़ है। चवन्नी को इसका अंदेशा था.सबूत है इसी ब्लॉग पर किया गया जनमत संग्रह.चवन्नी ने पूछा था की पहले किसकी फ़िल्म देखेंगे? २५ लोगों ने इस जनमत संग्रह में भाग लिया था,जिनमें से १७ ने इमरान की फ़िल्म पहले देखने की राय दी थी,बाकी ८ ने हरमन के पक्ष में मत दिए.चवन्नी को तभी समझ जाना चाहिए था कि दोनों फिल्मों के क्या नतीजे आने जा रहे हैं.चवन्नी ने एक पोस्ट के बारे में सोचा भी था। हरमन और इमरान को मीडिया आमने-सामने पेश कर रहा है.मुमकिन है कि कुछ दिन

फ़िल्म समीक्षा:जाने तू या जाने ना

कुछ नया नहीं, फिर भी नॉवल्टी है -अजय ब्रह्मात्मज रियलिस्टिक अंदाज में बनी एंटरटेनिंग फिल्म है जाने तू या जाने ना। एक ऐसी प्रेम कहानी जो हमारे गली-मोहल्लों और बिल्डिंगों में आए दिन सुनाई पड़ती है। जाने तू... की संरचना देखें। इस फिल्म से एक भी किरदार को आप खिसका नहीं सकते। कहानी का ऐसा पुष्ट ताना-बाना है कि एक सूत भी इधर से उधर नहीं किया जा सकता। सबसे पहले अब्बास टायरवाला लेखक के तौर पर बधाई के पात्र हैं। एयरपोर्ट पर ग्रुप के सबसे प्रिय दोस्तों की अगवानी के लिए आए चंद दोस्त एक दोस्त की नई गर्लफ्रेंड को प्रभावित करने के लिए उनकी (जय और अदिति) कहानी सुनाना आरंभ करते हैं। शुरू में प्रेम कहानी के नाम पर मुंह बिचका रही माला फिल्म के अंत में जय और अदिति से यों मिलती है, जैसे वह उन्हें सालों से जानती है। दर्शकों की स्थिति माला जैसी ही है। शुरू में आशंका होती है कि पता नहीं क्या फिल्म होगी और अंत में हम सभी फिल्म के किरदारों के दोस्त बन जाते हैं। माना जाता है कि हिंदी फिल्में लार्जर दैन लाइफ होती हैं, लेकिन जाने तू.. देख कर कहा जा सकता है कि निर्देशक समझदार और संवेदनशील हो तो फिल्म सिमलर टू लाइफ

इमरान खान से अजय ब्रह्मात्मज की बातचीत

रियलिस्टिक और नैचुरल है जाने तू ....- इमरान खान क्या आप पहली रिलीज के लिए तैयार हैं? मुझे नहीं लगता कि ऐसे तैयार होना आसान है, हम ये नहीं सोचते हैं कि आगे जाकर क्या होगा। हमने कोशिश की है कि अच्छी फिल्म बन सके, मैंने ईमानदारी से काम किया है ....आगे क्या होगा किसी को पता नहीं। लेकिन कुछ तो तैयारी रही होगी। बाहर इतना कम्पिटीशन है। आप पहुंचेंगे, बहुत सारे लोग पहले से ही मैदान में खड़े हैं? कम्पिटीशन के बारे में आपको सोचना नहीं चाहिए। आपको अपना काम करना है। अगर मैं बैठ कर सोचूंगा कि बाकी एक्टर क्या कर रहे हैं, कैसी फिल्में कर रहे हैं। ये कॉमेडी फिल्म कर रहा है, ये रोमांटिक फिल्म कर रहा है तो मैं अपने काम पर ध्यान नहीं दे पाऊंगा। मुझे अपना काम करना है, मुझे अपना काम देखना है। मुझे सोचना है कि मुझे कैसी फिल्में अच्छी लगती हैं। मुझे कैसी स्क्रिप्ट पसंद हैं। और ये काम मैं कितने अच्छे तरीके से कर सकता हूं। कभी किसी को देख जलना नहीं चाहिए, इंस्पायर होना चाहिए। किसी और को देखकर अपना काम नहीं करना चाहिए। मेरे खयाल में कम्पिटीशन के बारे में सोचना नहीं चाहिए। कैसे फैसला लिया कि जाने तू या जाने ना ही

प्रोड्यूसर आमिर खान काफी एक्टिव हो गए हैं

मैं जाने तू ... का पहला निर्माता नहीं हूं। इसे पहले जामू सुगंध बना रहे थे। मुझे मालूम था कि इमरान अब्बास की फिल्म कर रहे हैं। उस समय मैंने इमरान से केवल इतना ही पूछा था कि क्या आपको अब्बास और फिल्म की कहानी पसंद है? उन्होंने हां कहा तो मैंने कहा कि जरूर करो। उस वक्त जामू सुगंध आर्थिक संकट से गुजर रहे थे। उन्होंने तीन फिल्में की घोषणा की थी। दो की शूटिंग भी आरंभ हो गई थी, लेकिन वे उन्हें बना नहीं पाए। जाने तू ... अभी शुरू नहीं हुई थी। तब अब्बास मेरे पास प्रोजेक्ट लेकर आए और पूछा कि क्या आप इसे प्रोडयूस करना चाहेंगे। मैंने कहानी सुनी तो कहानी अच्छी लगी। तब तक अब्बास फिल्म के चार गाने रहमान के साथ रिकॉर्ड कर चुके थे। वे गाने भी मुझे पसंद आए। फिर मैंने अब्बास से कहा कि पांच-छह सीन शूट कर के दिखाओ। उन्होंने कुछ सीन शूट किए। वे भी मुझे पसंद आए। मुझे विश्वास हुआ कि अब्बास फिल्म कर पाएंगे। फिर मैंने इमरान का स्क्रीन टेस्ट देखा। हर तरह से संतुष्ट हो जाने पर मैंने फिल्म प्रोडयूस करने का फैसला किया। जाने तू ... बनाने का मेरा फैसला पूरी तरह से गैरभावनात्मक था। ऐसा नहीं था कि इमरान के लिए फिल्म बना

चार जुलाई को चमकेंगे दो स्टार!

-अजय ब्रह्मात्मज हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के लिए पहली छमाही कोई सुखद समाचार नहीं ला सकी। न तो कोई फिल्म जबर्दस्त सफलता हासिल कर सकी और न ही हिंदी फिल्म इंडस्ट्री से आए स्टारसन में कोई चमक दिखी। हाल ही में रिलीज हुई वुडस्टॉक विला में आए सिकंदर खेर को ढेर होते हमने देखा। उसके पहले मिथुन चक्रवर्ती के बेटे मिमोह चक्रवर्ती अपनी पहली फिल्म जिम्मी में फुस्स साबित हुए। आश्चर्य की बात तो यह है कि दोनों ही नवोदित स्टारों को दर्शकों ने नोटिस नहीं किया। हालांकि दोनों के पास अभी एक-एक फिल्म है, लेकिन कहना मुश्किल है कि दूसरी फिल्मों में वे कोई जलवा बिखेर पाएंगे! हां, चार जुलाई को हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के दो स्टार चमकने को तैयार हैं। लव स्टोरी 2050 से हैरी बावेजा के पुत्र हरमन बावेजा और जाने तू या जाने ना से आमिर खान के भतीजे इमरान खान की फिल्मों में एंट्री हो रही है। चार जुलाई को एक साथ रिलीज हो रही इन दोनों फिल्मों के मुख्य कलाकारों को फिलहाल भविष्य के स्टार के रूप में देखा जा रहा है। उनकी पहली फिल्म की रिलीज के पहले ही उनकी आने वाली फिल्में भी लगभग पूरी हो गई हैं। दोनों को लगातार फिल्मों के ऑफर मिल

आमिर खान के भतीजे इमरान खान

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आमिर खान ने अपने भतीजे इमरान खान को पेश करने के लिए एक फ़िल्म बनाई है-जाने तू.यह उनके प्रोडक्शन की तीसरी फ़िल्म होगी.आमिर को उम्मीद है की लगान और तारे ज़मीन पर की तरह यह भी कामयाब होगी और इस तरह वे कामयाबी की हैट्रिक लगन्र में सफल रहेंगे। आप सभी जानते होंगे की आमिर खान को उनके चाचा नासिर खान ने पेश किया था.फ़िल्म थी क़यामत से क़यामत त और उसके निर्देशक थे मंसूर खान.आमिर ने परिवार की उसी परम्परा को निभाते हुए अपने भतीजे को पेश किया है.उनकी फ़िल्म के दिरेक्टोर हैं अब्बास टायरवाला । आज कल की फिल्मों और नए सितारों को पेश करने की चलन से थोड़े अलग जाकर इमरान खान को पड़ोसी चेहरे के तौर पर पेश किया जा रहा है.अगर याद हो तो आमिर खान भी इसी छवि के साथ आए थे। और हाँ याद रखियेगा की इमरान खान को पहली बार आप ने चवन्नी के ब्लॉग पर देखा.