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Showing posts from October, 2016

फिल्‍म समीक्षा : ऐ दिल है मुश्किल

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उलझनें प्‍यार व दोस्‍ती की ऐ दिल है मुश्किल -अजय ब्रह्मात्‍मज बेवजह विवादास्‍पद बनी करण जौहर की फिल्‍म ‘ ऐ दिल है मुश्किल ’ चर्चा में आ चुकी है। जाहिर सी बात है कि एक तो करण जौहर का नाम,दूसरे रणबीर कपूर और ऐश्‍वर्या राय बच्‍चन की कथित हॉट केमिस्‍ट्री और तीसरे दीवाली का त्‍योहार...फिल्‍म करण जौहर के प्रशंसकों को अच्‍छी लग सकती है। पिछले कुछ सालों से करण जौहर अपनी मीडियाक्रिटी का मजाक उड़ा रहे हैं। उन्‍होंने अनेक इंटरव्‍यू में स्‍वीकार किया है कि उनकी फिल्‍में साधारण होती हैं। इस एहसास और स्‍वीकार के बावजूद करण जौहर नई फिल्‍म में अपनी सीमाओं से बाहर नहीं निकलते। प्‍यार और दोस्‍ती की उलझनों में उनके किरदार फिर से फंसे रहते हैं। हां,एक फर्क जरूर आया है कि अब वे मिलते ही आलिंगन और चुंबन के बाद हमबिस्‍तर हो जाते हैं। पहले करण जौहर की ही फिल्‍मों में एक लिहाज रहता था। तर्क दिया जा सकता है कि समाज बदल चुका है। अब शारीरिक संबंध वर्जित नहीं रह गया है और न कोई पूछता या बुरा मानता है कि आप कब किस के साथ सो रहे हैं ? ‘ ऐ दिल है मुश्किल ’ देखते हुए पहला खयाल यही आता है कि इस फिल

फिल्‍म समीक्षा : शिवाय

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एक्‍शन और इमोशन से भरपूर शिवाय -अजय ब्रह्मात्‍मज अजय देवगन की ‘ शिवाय ’ में अनेक खूबियां हैं। हिंदी में ऐसी एक्‍शन फिल्‍म नहीं देखी गई है। खास कर बर्फीली वादियों और बर्फ से ढके पहाड़ों का एक्‍शन रोमांचित करता है। हिंदी फिल्‍मों में दक्षिण की फिल्‍मों की नकल में गुरूत्‍वाकर्षण के विपरीत चल रहे एक्‍शन के प्रचलन से अलग जाकर अजय देवगन ने इंटरनेशनल स्‍तर का एक्‍शन रचा है। वे स्‍वयं ही ‘ शिवाय ’ के नायक और निर्देशक हैं। एक्‍शन दृश्‍यों में उनकी तल्‍लीनता दिखती है। पहाड़ पर चढ़ने और फिर हिमस्‍खलन से बचने के दृश्‍यों का संयोजन रोमांचक है। एक्‍शन फिल्‍मों में अगर पलकें न झपकें और उत्‍सुकता बनी रहे तो कह सकते हैं कि एक्‍शन वर्क कर रहा है। ‘ शिवाय ’ का बड़ा हिस्‍सा एक्‍शन से भरा है,जो इमोशन को साथ लेकर चलता है। फिल्‍म शुरू होती है और कुछ दृश्‍यों के बाद हम नौ साल पहले के समय में चले जाते हैं। शिवाय पर्वतारोहियों का गाइड और संचालक है। वह अपने काम में निपुण और दक्ष है। उसकी मुलाकात बुल्‍गारिया की लड़की वोल्‍गा से होती है। दोनों के बीच हंसी-मजाक होता है और वे एक-दूसरे को भाने लग

दरअसल : खतरनाक है यह उदासी

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-अजय ब्रह्मात्‍मज मालूम नहीं करण जौहर की ‘ ऐ दिल है मुश्किल ’ देश भर में किस प्रकार से रिलीज होगी ? इन पंक्तियों के लिखे जाने तक असंमंजस बना हुआ है। हालांकि केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह और महाराष्‍ट्र के मुख्‍यमंत्री देवेन्‍द्र फड़नवीस ने करण जौहर और उनके समर्थकों को आश्‍वासन दिया है कि किसी प्रकार की गड़बड़ी नहीं होने दी जाएगी। पिछले हफ्ते ही करण जौहर ने एक वीडियो जारी किया और बताया कि वे आहत हैं। वे आहत हैं कि उन्‍हें देशद्रोही और राष्‍ट्रविरोधी कहा जा रहा है। उन्‍होंने आश्‍वस्‍त किया कि वे पड़ोसी देश(पाकिस्‍तान) के कलाकारों के साथ काम नहीं करेंगे,लेकिन इसी वीडियो में उन्‍होंने कहा कि फिल्‍म की शूटिंग के दरम्‍यान दोनों देशों के संबंध अच्‍छे थे और दोस्‍ती की बात की जा रही थी। यह तर्क करण जौहर के समर्थक भी दे रहे हैं। सच भी है कि देश के बंटवारे और आजादी के बाद से भारत-पाकस्तिान के संबंध नरम-गरम चलते रहे हैं। राजनीतिक और राजनयिक कारणों से संबंधों में उतार-चढ़ाव आता रहा है। परिणामस्‍वरूप फिल्‍मों का आदान-प्रदान प्रभावित होता रहा है। कभी दोनों देशों के दरवाजे बंद हो जाते

मुझे हारने का शौक नहीं : आलिया भट्ट

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विस्‍तृत बातचीत की कड़ी में इस बार हैं आलिया भट्ट। आलिया ने यहां खुलकर बातें की हैं। आलिया के बारे में गलत धारणा है कि वह मूर्ख और भोली है। आलिया अपनी उम्र से अधिक समझदार और तेज-तर्रार है। छोटी उम्र में बड़ी सफलता और उससे मिले एक्‍सपोजर ने उसे सावधान कर दिया है। 23 की उम्र आमतौर पर खेल-कूद की मानी जाती है। मगर उस आयु की आलिया भट्ट अपने काम से वह मिथक ध्‍वस्‍त कर रही हैं। वह भी लगातार। नवीनतम उदाहरण ‘उड़ता पंजाब’ का है। ‘शानदार’ की असफलता को उन्होंने मीलों पीछे छोड़ दिया है। उनके द्वारा फिल्म में निभाई गई बिहारिन मजदूर की भूमिका को लेकर उनकी चौतरफा सराहना हो रही है। देखा जाए तो उन्होंने आरंभ से ही फिल्‍मों के चुनाव में विविधता रखी है। वे ऐसा सोची-समझी रणनीति के तहत कर रही हैं।      आलिया कहती हैं, ‘ मैं खेलने-कूदने की उम्र बहुत पीछे छोड़ चुकी हूं। मैं इरादतन कमर्शियल व ऑफबीट फिल्मों के बीच संतुलन साध रही हूं। इस वक्त मेरा पूरा ध्‍यान अपनी झोली उपलब्धियों से भरने पर है। हालांकि मैं किसी फिल्म को इतना गंभीर तरीके से नहीं लेती हूं कि मरने और जीने का मामला हो जाएं। कई बार एक्ट

फिल्‍म समीक्षा : 31 अक्‍टूबर

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खौफनाक रात की कहानी -अजय ब्रह्मात्‍मज आधुनिक भारत का वह काला दिन था। देश की प्रधानमंत्री इं‍दिरा गांधी को उनके अंगरक्षकों ने ही गोली मार दी थी। शाम होते-होते पूरी दिल्‍ली में सिख विरोधी दंगा फैल गया था। घरों-गलियों में सिखें को मरा गया था। अंगरक्षकों के अपराध का परिणाम पूरे समुदाय को भुगतना पड़ा था। इस दंगे में सत्‍ताधारी पार्टी के अनेक नामचीन नेता भी शामिल थे। अनेक जांच आयोगों की रिपोटों के बावजूद अभी तक कोई गिरफ्तारी नहीं हुई है। 31 अक्‍टूबर के अगले कुछ दिनों तक चले इस दंगे में सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 2186 सिखों की जानें गई थीं,जबकि अनुमान 9000 से अधिक का है। 32 साल होने को आए। दंगों से तबाह हुए परिवारों को अब भी उम्‍मीद है कि अपराधियों और हत्‍यारों को सजा मिलेगी। भारतीय राजनीति और समाज का सच इस उम्‍मीद के विपरीत है। यहां सत्‍ताधारी पार्टियों के उकसाने पर धार्मिक दंगे-फसाद होते हैं। सरकारें बदल जाती है,तब भी अपराधी पकड़े नहीं जाते। हताशा होती है विभिन्‍न राजनीतिक पार्टियों की इस खूनी मिलीभगत से। फिल्‍म के नायक देवेन्‍दर को अभी तक उम्‍मीद है कि न्‍याय मिलेगा,जबकि उसकी

दरअसल : फिल्‍म गीतकारों को दें महत्‍व

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-अजय ब्रह्मात्‍मज 2016 के लिए साहित्‍य का नोबेल पुरस्‍कार अमेरिकी गायक और गीतकार बॉब डिलन को मिला है। इस खबर से साहित्यिक समाज चौंक गया है। भारत में कुछ साहित्‍यकारों ने इस पर व्‍यंग्‍यात्‍मक टिप्‍पणी की है। उन्‍होंने आशंका व्‍यक्‍त की है कि भविष्‍य में भारत में साहित्‍य और लोकप्रिय साहित्‍य का घालमेल होगा। वहीं उदय प्रकाश ने अपने फेसबुक वॉल पर स्‍टेटस लिखा... ‘ बॉब डिलन के बाद क्या हम हिंदी कविता के भारतीय जीनियस गुलज़ार जी के लिए सच्ची उम्मीद बांधें ?’ ऐसी उम्‍मीद गलत नहीं है। हमें जल्‍दी से जल्‍दी इस दिशा में विचार करना चाहिए। हिंदी फिल्‍मों के गीतकारों और कहानीकारों के सृजन और लेखन को रेखांकित कर उन्‍हें पुरस्‍कृत और सम्‍मानित करने की दिशा में पहल करनी चाहिए। हिंदी कहानीकार तेजेन्‍द्र शर्मा दशकों से हिमायत कर रहे हैं कि शैलेन्‍द्र के गीतों का साहित्यिक दर्जा देकर उनका अध्‍ययन और विश्‍लेषण करना चाहिए। उन्‍हें पाठ्यक्रम में शामिल करना चाहिए। उनके इस आग्रह को साहित्‍यकार और हिंदी के अध्‍यापक सिरे से ही खारिज कर देते हैं। हिंदी में धारणा बनी हुई है कि अगर कोई लोक्रिपय माध्‍

हिंदी टाकीज 2(9) :हम सब का हीरो बन गया भीखू म्‍हात्रे -डॉ. नवीन रमण

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हिंदी टाकीज2 का सिलसिला थम सा गया था। लंबे समय के बाद एक संस्‍मरण मिला तो लगा कि इसे हिंदी टाकीत सीरिज में पोस्‍ट किया जा सकता है। डाॅ. नवीन रमण ने सत्‍या और मल्‍टीप्‍लेक्‍स की पहली फिल्‍म की यादें यहां लिखी हैं। डॉ नवीन रमण समालखा, हरियाणा के मूल निवासी हैं। हिन्दी सिनेमा में पीएच.डी. का शोध कार्य किया है । हरियाणवी लोक साहित्य और पॉपुलर गीतों पर अध्ययन और स्वतंत्र लेखन करते हैं । सोशल मीडिया पर राजनीतिक एवं सांस्कृतिक आंदोलन-कर्ता के तौर पर निरंतर सक्रियता रहती है । दिल्ली विश्वविद्यालय में अस्थायी अध्यापन में कार्यरत रहे हैं । वर्तमान समय में जनसंदेश वेब पत्रिका की संपादकीय टीम के सदस्य है। -डॉ. नवीन रमण साल 1998। हिंदी सिनेमा में यह साल जिस तरह एक खास अहमियत रखता है। कारण है रामगोपाल वर्मा की सत्या फिल्म, जिसने हिंदी सिनेमा को एक नया आयाम दिया।  ठीक उसी तरह यह साल मेरी जिंदगी में भी अहमियत रखता है। यह वह साल था जब मैंने गिर-पड़ कर बारहवीं की परीक्षा पास की थी और दिल्ली में एडमिशन लेने के लिए समालखा(हरियाणा) से विदआउट टिकट ट्रेन में आ गया था। इधर-उधर धक्के खा

है सबसे जरूरी समझ जिंदगी की - अनुष्‍का शर्मा

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विस्‍तृत बातचीत की सीरिज में इस बार अनुरूका शर्मा। अनुष्‍का शर्मा की विविधता गौरतलब है। अपनी निंदा और आलोचना से बेपरवाह वह प्रयोग कर रही हैं। साहसी तरीके से फिल्‍म निर्माण कर रही हैं। वह आगे बढ़ रही हैं। -अजय ब्रह्मात्‍मज मुझे स्वीकार किया जा रहा है। यह बहुत बड़ी चीज है। इसके बिना मेरी मेहनत के कोई मायने नहीं होंगे। हम लोग एक्टर हैं। हमारी सफलता इसी में है कि लोग हमारे काम के बारे में क्या सोचते हैं ? चाहे वह अप्रत्यक्ष सफलता हो या प्रत्यक्ष सफलता हो। इससे हमें और फिल्में मिलती हैं। यह हमारे लिए जरूरी है। मैं बचपन से ऐसी ही रही हूं। मुझे हमेशा कुछ अलग करने का शौक रहा है। यही मेरा व्यक्तित्व है। फिल्‍मों में आरंभिक सफलता के बाद मुझे एक ही तरह के किरदार मिलें। वे मैंने किए। लेकिन मुझ में कुछ अलग करने की भूख थी। मैंने सोचा कि अब मुझे कुछ अलग तरह का किरदार निभाना है। मैंने सोचा कि कुछ अलग फिल्में करूंगी,जिनमे अलग किरदार हों या फिर अलग पाइंट दिखाया जा रहा हो। कोई अलग सोच हो। यह एक सचेत कोशिश थी। बीच में ऐसी कई फिल्में आईं, जिनमें मुझे लगा कि कुछ करने के लिए नहीं हैं। उन फिल्

खुदपसंदी यहां ले आई - स्‍वरा भास्‍कर

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स्‍वरा भास्‍कर से यह विस्‍तृत बातचीत है। किसी अभिनेत्री को चंद सवालों और जवाबों में नहीं समझा जा सकता। फिर भी उनकी सोच,समझ और काम की झलक मिलती है। इस सीरिज में और भी इंटरव्‍यू आएंगे....  -निल बटे सन्नाटा से ही शुरू करते हैं। जीत जैसा ना कहें लेकिन इस फिल्म का लोगों पर असर रहा ही है?इस फिल्म के बारे में बोलते हुए आप अपनी बात पर आएं? 0निल बटे सन्नाटा का ब्रीफ यही है कि जब यह फिल्म मुझे मिली मैं उत्साहित थी। मैंने सोचा कि लीड में टाइटल पार्ट और इतना एक दम नायक जैसा रोल। इससे पहले मेरी दो –तीन फिल्में आ चुकी थी। जहां में सहायक भूमिका का किरदार निभा रही थी। लेकिन जब इस फिल्म के लिए मुझे पता चला कि पंद्रह साल की बच्ची की मां का रोल है, तो हल्की सी कड़वाहट मेरे अंदर पैदा हुई।मैंने सोचा कि यार, पता नहीं क्या करना पड़ेगा हीरोईन बननेके लिए। लीड भी मिल रहा है तो मां के किरदार के लिए। सच कहूं तो मेरी सोच यही थी। पर मैंने जब स्क्रिप्ट पढ़ी तो मुझे लगा कि इस फिल्म को मना नहीं करना चाहिए। मैंने सोचा कि रिस्क है। पर कोई बात नहीं। इस फिल्म के लिए मुझे मना नहीं करना चाहिए। फिल्म शुरू ह