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फिल्‍म समीक्षा : गैंग्‍स ऑफ वासेपुर-रवीश कुमार

 (चेतावनी- स्टाररहित ये समीक्षा काफी लंबी है समय हो तभी पढ़ें, समीक्षा पढ़ने के बाद फिल्म देखने का फैसला आपका होगा ) डिस्क्लेमर लगा देने से कि फिल्म और किरदार काल्पनिक है,कोई फिल्म काल्पनिक नहीं हो जाती है। गैंग्स आफ वासेपुर एक वास्तविक फिल्म है। जावेद अख़्तरीय लेखन का ज़माना गया कि कहानी ज़हन से का़ग़ज़ पर आ गई। उस प्रक्रिया ने भी दर्शकों को यादगार फिल्में दी हैं। लेकिन तारे ज़मीन पर, ब्लैक, पिपली लाइव,पान सिंह तोमर, विकी डोनर, खोसला का घोसला, चक दे इंडिया और गैंग्स आफ वासेपुर( कई नाम छूट भी सकते हैं) जैसी फिल्में ज़हन में पैदा नहीं होती हैं। वो बारीक रिसर्च से जुटाए गए तमाम पहलुओं से बनती हैं। जो लोग बिहार की राजनीति के कांग्रेसी दौर में पनपे माफिया राज और कोइलरी के किस्से को ज़रा सा भी जानते हैं वो समझ जायेंगे कि गैंग्स आफ वासेपुर पूरी तरह एक राजनीतिक फिल्म है और लाइसेंसी राज से लेकर उदारीकरण के मछलीपालन तक आते आते कार्पोरेट,पोलिटिक्स और गैंग के आदिम रिश्तों की असली कहानी है। रामाधीर सिंह, सुल्तान, सरदार जैसे किरदारों के ज़रिये अनुराग ने वो भी दिखा दिया है जो इस फिल

फिल्‍म समीक्षा : शांघाई -रवीश कुमार

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  रवीश कुमार की यह समीक्षा उनके ब्‍लॉग कस्‍बा से चवन्‍नी के पाठकों के लिए...  प्रगति का कॉलर ट्यून है शांघाई शांघाई। जय प्रगति,जय प्रगति,जय प्रगति। राजनीति में विकास के नारे को कालर ट्यून की तरह ऐसे बजा दिया है दिबाकर ने कि जितनी बार जय प्रगति की आवाज़ सुनाई देती यही लगता है कि कोई रट रहा है ऊं जय शिवाय ऊं जय शिवाय । अचानक बज उठी फोन की घंटी के बाद जय प्रगति से नमस्कार और जय प्रगति से तिरस्कार। निर्देशक दिबाकर स्थापित कर देते हैं कि दरअसल विकास और प्रगति कुछ और नहीं बल्कि साज़िश के नए नाम हैं। फिल्म का आखिरी शाट उन लोगों को चुभेगा जो व्यवस्था बदलने निकले हैं लेकिन उन्हीं से ईमानदारी का इम्तहान लिया जाता है। आखिरी शाट में प्रसनजीत का चेहरा ऐसे लौटता है जैसे आपको बुला रहा हो। कह रहा हो कि सिस्टम को बदलना है तो मरना पड़ेगा। लड़ने से कुछ नहीं होगा। उससे ठीक पहले के आखिरी शाट में इमरान हाशमी को अश्लील फिल्में बनाने के आरोप में जेल भेज दिया जाता है। कल्की अहमदी पर किताब लिखती है जो भारत में बैन हो जाती है। अहमदी की मौत के बाद उसकी पत्नी चुनावी मैदान में उतर आती है। अहमदी

हिन्दी टाकीज:दर्शक की यादों में सिनेमा -रवीश कुमार

हिन्दी टाकीज-7 रवीश कुमार को उनके ही शब्दों में बताएं तो...हर वक्त कई चीज़ें करने का मन करता है। हर वक्त कुछ नहीं करने का मन करता है। ज़िंदगी के प्रति एक गंभीर इंसान हूं। पर खुद के प्रति गंभीर नहीं हूं। मैं बोलने को लिखने से ज़्यादा महत्वपूर्ण मानता हूं क्योंकि यही मेरा पेशा भी है। ...रवीश ने हिन्दी टाकीज के ये आलेख अपने ब्लॉग पर बहुत पहले डाले थे,लेकिन चवन्नी के आग्रह पर उन्होंने अनुमति दी की इसे चवन्नी के ब्लॉग पर पोस्ट किया जा सकता है.जिन्होंने पढ़ लिया है वे दोबारा फ़िल्म देखने जैसा आनंद लें और जो पहले पाठक हैं उन्हें तो आनंद आएगा ही .... जो ठीक ठीक याद है उसके मुताबिक पहली बार सिनेमा बाबूजी के साथ ही देखा था। स्कूटर पर आगे खड़ा होकर गया था। पीछे मां बैठी थी। फिल्म का नाम था दंगल। उसके बाद दो कलियां देखी। पटना के पर्ल सिनेमा से लौटते वक्त भारी बारिश हो रही थी। हम सब रिक्शे से लौट रहे थे। तब बारिश में भींगने से कोई घबराता नहीं था। हम सब भींगते जा रहे थे। मां को लगता था कि बारिश में भींगने से घमौरियां ठीक हो जाती हैं। तो वो खुश थीं। हम सब खुश थे। बीस रुपये से भी कम में चार लोग सिनेमा