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Showing posts from August, 2016

दरअसल : जरूरी है सरकारी समर्थन

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-अजय ब्रह्मात्‍मज इन दिनों विभिन्‍न राज्‍य सरकारें फिर से सिनेमा पर गौर कर रही हैं। अपने राज्‍यों के पर्यटन और ध्‍यानाकर्षण के लिए उन्‍हें यह आसान रास्‍ता दिख रहा है। इस साल गुजरात और उत्‍तर प्रदेश की सरकारों को पुरस्‍कृत भी किया गया। उन्‍हें ‘ फिल्‍म फ्रेंडली ’ स्‍टेट कहा गया। फिल्‍मों के 63 वें राष्‍ट्रीय पुरस्‍कारों में एक नई श्रेणी बनी। बताया गया था कि इससे राज्‍य सरकारें फिल्‍मों के प्रोत्‍साहन के लिए आगे आएंगी। इसके साथ ही सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के अधीन कार्यरत एनएफडीसी(नेशनल फिल्‍म डेवलपमंट कारपोरेशन) के दिल्‍ली कार्यालय में फिल्‍म फैसिलिटेशन विभाग खोला गया। उद्देश्‍य यह है कि फिल्‍मकारों को साथ लाया जाए और उन्‍हें फिल्‍में बनाने की सुविधाएं दी जाएं। एनएफडीसी सालों सार्थक फिल्‍मों के समर्थन में खड़ी रही। इसके सहयोग से पूरे देश में युवा फिल्‍मकार अपनी प्रतिभाओं और संस्‍कृति के साथ सामने आए। हालांकि फिल्‍मों के लिए एनएफडीसी सीमित फंड ही देती थी,लेकिन उस सीमित फंड में ही युवा फिल्‍मकारों ने प्रयोग किए और समांतर सिनेमा अभियान खड़ा कर दिया। अब पैरेलल,समांतर या वैकल्प

खुश हूं सेकेंड लीड में-अरबाज खान

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-अजय ब्रह्मात्‍मज अरबाज खान ने करिअर की शुरूआत बतौर एक्‍टर की थी। अठारह सालों तक एक्टिंग करने के बाद उन्‍हें एक ऐसी कहानी मिली,जिसे वे अपने भाई के साथ पर्दे पर ले आए। वे निर्माता बन गए। उन्‍होंने ‘ दबंग ’ का निर्माण किया। उसके निर्देशक अभिनव कश्‍यप थे। सफर यहीं नहीं रुका। वे ‘ दबंग 2 ’ के निर्माता के साथ निर्देशक भी बने। निर्माता और निर्देशक के तौर पर मिली कामयाबी के बावजूद अरबाज खान का मन एक्टिंग में लगता है। इसे वे अपना पैशन मानते हैं। अरबाज कहते हैं, ’ एक्टिंग बंद नहीं करूंगा। बतौर एक्‍टर जानता हूं कि मेरे लिए किस ढंग के रोल हो सकते हैं। अपने भाई या दूसरे खानों की तरह मुझे लीड रोल नहीं मिल सकते। मैं उस रास्‍ते पर अपनी सीमाओं की वजह से नहीं बढ़ सका। अब मैं अपनी पर्सनैलिटी और फेस वैल्‍यू के हिसाब से जो रोल मिलते हैं,उनमें से चुन लेता हूं। यह तय है कि मैं किसी भी इंटरेस्टिंग रोल के लिए हमेशा तैयार हूं। मुझे जल्‍दी समझ में आ गया था कि मेरी रेंज क्‍या है ?’ खुद के बारे में मुगालता न हो तो जिंदगी आसान हो जाती है। अरबाज के नए आदर्श हैं। वे उनका नाम लेते हैं, ’ नाना पाटे

फिल्‍म समीक्षा : ए फ्लाइंग जट्ट

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साधारण फैंटेसी -अजय ब्रह्मात्‍मज रेमो डिसूजा की ‘ ए फ्लाइंग जट्ट ’ सुपरहीरो फिल्‍म है। हिंदी फिल्‍मों में सुपरहीरो फिल्‍में बनाने की कोशिशें होती रही हैं। सभी एक्‍टर और स्‍टार सुपरहीरो बन कर आकाश में उड़ना चाहते हें। इसमें अभी तक केवल रितिक रोशन को बड़ी कामयाबी मिली है। ‘ ए फ्लाइंग जट्ट ’ में बच्‍चों के बीच तेजी से लोकप्रिय हो रहे टाइगर श्रॉफ को यह मौका मिला है। टाइगर श्रॉफ में गति और चपलता है,इसलिए वे डांस और एक्‍शन के दृश्‍यों में मनमोहक लगते हैं। एक्टिंग में अभी उन्‍हें ल्रंबा सफर तय करना है। सभी फिल्‍मों में नाटकीय दृश्‍यों में उनकी सीमाएं जाहिर हो जाती हैं। यही कारण है कि उनके निर्माता-निर्देशक ऐसी कहानियां चुनते हैं,जिनमें कम बोलना पड़े और दूसरे भाव कम से कम हों। सभी निर्देशक टाइगर श्रॉफ से डांस और एक्‍शन के बहाने गुलाटियां मरवाते हैं। उनकी गुलाटियां बच्‍चों को अच्‍छी लगती हैं। गौर करें तो पब्लिक इवेंट में भी टाइगर श्रॉफ का आकर्षण गुलाटियां ही होती हैं। बहरहाल, ’ ए फ्लाइंग जट्ट ’ अमन नामक युवक की कहानी है। वह नशे की आदी मां के साथ रहता है। स्‍कूल में मार्शल

समकालीन सिनेमा(5) : डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी

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डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी इन दिनों मैं कोई विदेशी सिनेमा देखता हूं या सीरियल देखता हूं तो कतई नहीं लगता है कि मैं कोई विदेशी सिनेमा देख रहा हूं, क्योंकि अब वह मेरे परिवेश का हिस्सा हो गया है। अब एडर्वटाइजमेंट देखता हूं तो उसमें विदेशी मॉडल है , टेलीविजन   देखता हूं तो उसमें विदेशी मॉडल है। अब मैं अखबार खोलता हूं तो वहां पर विदेशी ¸ ¸ ¸ अब मैं जहां से दिन शुरू करता हूं,सभी विदेशी दिखते हैं। देशी-विदेशी का अंतर भी मिटता जा रहा है। बाजार उनके हाथ में जा रहा है। इस दौर में अगर हम भारत के सिनेमा की पहचान बना कर रख सकें तो अच्छा होगा। चाहने वाली बात है। यह मुमकिन है। ऐसा होगा कि नहीं होगा ऐसा कहना आज मुश्किल है।   मुझे लगता है कि पिंजर बनाते समय मैं बाजार को इतना समझ नहीं रहा था। इसलिए वह भावना से प्रेरित फिल्‍म थी। उस समय मल्टीप्लेक्स की शुरूआत हुई थी। आज मल्टीप्लेक्स का चरम है। सितारे बहुत बड़े नहीं थे , कास्ट नहीं थी। अब कहीं न कहीं आपको सितार और कॉस्ट के तालमेल को बैठाना होगा। मेरे साथ समस्‍या रही है कि मेरा कैनवास बड़ा रहा है,कैरेक्टर और एक्‍टर से परे। उस कैनवास को छोटा करन

समकालीन सिनेमा(4) : डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी

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डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी कमर्शियल सिनेमा रहा है। शुरू से रहा है। दादा साहेब फालके की पहली फिल्म राजा हरिश्चन्द्र अपने समय की व्यावसायिक फिल्म थी। आज हम उसे कला से जोड़ देते हैं। कलात्मकता से जोड़ देते हैं। मैं निश्चित तौर से कह सकता हूं कि आज कोई राजा हरिश्चन्द्र बनाना चाहे तो उसे समर्थन और निवेश नहीं मिलेगा।   अभी तो अतीत के प्रति सम्मान है और न उस प्रकार के विषय के लिए सम्मान है। उल्टा वह टैबू है। उसे दकियानूसी कहा जाएगा। कहा जाएगा कि यह क्या विषय हुआ ? बात बिल्कुल तय है कि कमर्शियलाइजेशन बढ़ता जा रहा है और कमर्शियलाइजेशन में सबसे पहली चिंतन और कला की हत्‍या होती है। मैं फिर से कह सकता हूं कि सब कुछ होगा,आकर्षण के सारे सेक्टर मौजूद होंगे, लेकिन उसमें हिंदुस्तान की आत्मा नहीं होगी। मैं कतई गलत नहीं मानता कि आप विदेशों में जाकर क्‍यों शूट कर रहे हैं सिनेमा। पर देखिए कि धीरे-धीरे फिल्‍में न केवल अभारतीय हो रही हैं बल्कि वे धीरे-धीरे भारत की जमीन से हट कर भी शूट हो रही है। यह गलत है , मैं ऐसा नहीं मानता। मैं जिस वजह से बाहर जाते रहता हूं और शूट करते रहता हूं उसके ठोस कारण हैं। 

फिल्‍म समीक्षा : हैप्‍पी भाग जाएगी

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सहज और मजेदार -अजय ब्रह्मात्‍मज मुदस्‍सर अजीज की फिल्‍म ‘ हैप्‍पी भाग जाएगी ’ हैप्‍पी रखती है। उन्‍होंने भारत-पाकिस्‍तान के आर-पार रोचक कहानी बुनी है। निर्माता आनंद एल राय की फिल्‍मों में लड़कियां भाग जाती हैं। यहां मुदस्‍सर अजीज के निर्देशन में हैप्‍पी भाग जाती है। वह अनचाहे ही पाकिस्‍तान पहुंच जाती है। पाकिस्‍तान के लाहौर में बिलाल अहमद के घर में जब वह फलों की टोकरी से निकलती है तो खूब धमाचौकड़ी मचती है। दो भाषाओं,संस्‍कृतियों,देशों के बीच नोंक-झोंक की कहानियों में अलग किस्‍म का आनंद होता है। असमानता की वजह से चुटकी और मखौल में हंसी आती है। इस फिल्‍म में हिंदी-उर्दू,लाहौर-अमृतसर और भारत-पाकिस्‍तान की असमानताएं हैं। हैप्‍पी अमृतसर में पली तेज-तर्रार लड़की है। उसे आपने परिवार के परिचित लड़के गुड्डु से प्‍यार हो जाता है। गुड्डु साफ दिल का लड़का है। ट़ुनटुना(गिटार) बजाता है और हैप्‍पी से प्‍यार करता है। वह हैप्‍पी के बाउजी से शादी की बात करे इसके पहले ही शहर के कारपोरेटर बग्‍गा से हैप्‍पी की शादी तय हो जाती है। हैप्‍पी एक तरफ शादी की रस्‍मों में शामिल है और दूसरी तरफ

दरअसल : ट्रेलर लांच इवेंट

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-अजय ब्रह्मात्‍मज पिछले दिनों ‘ एमएस धौनी : द अनटोल्‍ड स्टोरी ’ का मुंबई में ट्रेलर लांच था। नीरज पांडे की इस फिलम के प्रति जबरदस्‍त रुझान है। इस रुझान को धौनी की लोकप्रियता ने बल दिया है। धौनी की कहानी प्रेरक और अनुकरणीय है। क्रिकेटप्रेमी तो उनके खेल और अदाओं के दीवाने हैं। धीरे-धीरे उनका व्‍यक्तित्‍व और खेल करिश्‍माई हो गया है। जाहिर सी बात है कि ऐसे लिविंग लिजेंड के बारे में सभी विस्‍तार से जानना चाहते हैं। हम क्रिकेट और फिल्‍म जगत की मशहूर हस्तियों की जिंदगी से वाकिफ रहते हैं। कोई नई जानकारी या प्रसंग पता चले तो बेइंतहा खुशी होती है। अभी ‘ एमएस धौनी : द अनटोल्‍ड स्टोरी ’ दर्शकों को ऐसी ही खुशी दे रहा है। हां तो ट्रेलर लांच के इवेंट में धौनी के आने की जानकारी मिलने पर मीडियाकर्मी भी उत्‍सुक हो गए। उन्‍होंने देरी से आरंभ हुए इवेंट में धौनी का इंतजार किया। धौनी आए और हमेशा की तरह बेधड़क दिल से बातें कीं। मगर इवेंट के दौरान फैन से बातें करने और उनके सवालों के जवाइ देने के बाद वे निकल लिए। मीडियाकर्मी मुंह ताकते रह गए और उनके सवाल सुने ही नहीं गए। बाद में बताया गया कि मीडिया

करीबियों की नजर में गुलज़ार

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प्रस्‍तुति-अजय ब्रह्मात्‍मज गुलजार के बारे में उनके तीन करीबियों अशोक बिंदल,पवन झा और सलीम आरिफ की स्‍फुट बातों में उनके व्‍यक्तित्‍न की झलक मिलती है। फिलवक्‍त तीनों से उनका लगभग रोजाना संवाद होता है और वे उनके सफर के साथी हैं। अशोक बिंदल (मुंबई निवासी साहित्‍यप्रेमी और रेस्‍तरां बिजनेस में सक्रिय अशोक बिंदल का गुलज़ार से 20-22 साल पुराना परिचय है,जो पिछले सालों में सघन हुआ है।) सुबह 10 बजे से शाम 5 बजे तक रोजाना आफिस में बैठते हैं। दोपहर में आधे घंटे का लंच और छोटे नैप के बाद फिर से आफिस आ जाते हैं। अभी उम्र की वजह से दो घंटे के बजाए एक घंटा ही टेनिस खेलते हैं। एक घंटा वाक या योगा करते हैं। रात को दस बजे तक रिटायर हो जाते हैं। सलाह देते हैं कि एक गजल लिखनी है तो कम से कम सौ गजल पढ़ो। उनके आसपास किताबें रहती हैं। उन्‍हें पढ़ते हैं। उनमें निशान लगे रहते हैं। किसी से भी मिलते समय वे उसे इतना कंफर्ट में कर देते हैं कि उसे सुकून होता है। 82 की उम्र में कोई इतना एक्टिव नहीं दिखता है। वे चलते हैं और हमें दौड़ना पड़ता है। नाराज नहीं होते। विनोदी स्‍वभाव के हैं। आ

समकालीन सिनेमा(3) : डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी

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डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी मुझे लगता है कि अब दर्शकों के पास चुनाव भी बहुत हो गए हैं। पहले एक वैक्यूम था। आप सातवें-आठवें दशक में चले जाइए आपके पास समांतर सिनेमा का कोई पर्याय नहीं था। आप जरा भी कला बोध अलग रखते हैं , अलग कला अभिरुचि रखते हैं तो आपके पास दूसरे सिनेमा का विकल्‍प था। तब के भारत के दर्शकों को विदेशी फिल्में सहजता से उपलब्ध नहीं होती थी। आज के सिनेमा के लिए टीवी भी जिम्‍मेदार है। टेलीविजन पर शुरू में प्रयोग हुए , अब टेलीविजन अलग ढर्रे पर चला गया है। अभी टेलीविजन चौबीस घंटे चलता है। चौबीसों घंटे न्यूज का चलना। जो विजुअल स्पेस था,उस स्पेस में बहुत सारी चीजें आई जो दर्शकों के मन को रिझाए रखती हैं। दर्शकों के लिए सार्थक है या सार्थक नहीं है मायने नहीं रख रहा है। दूसरा सार्थक सिनेमा के नाम पर हमलोग जो सिनेमा बनाते रहे,वह या तो किसी पॉलिटिकल खेमे में रहा या किसी के एजेंडा में बना। इसलिए वह सिनेमा भी आखिरकार आम दर्शक का सिनेमा नहीं बन पाया। जब कभी भी इस तरह की फिल्में बनती हैं तो अक्सर मैं देखता हूं,वे दंगे से ग्रस्त हैं या तो दंगे के खिलाफ हैं या उसके पीछे खास राजनी

समकालीन सिनेमा(2) : डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी

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-डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी अभी जो लोग यह निर्णय कर रहे हैं कि फिल्म कौन सी बननी चाहिए, वे सौभाग्य या दुर्भाग्य जो भी कह लें,डीवीडी फिल्में देख कर ही निर्णय करते हैं। अभी तक हमारी फिल्में किसी और देश के सिनेमा पर आधारित हैं। कॉरपोरेट की बाढ़ आने से अधिकतर निर्देशकों को शुरू में यह विश्वास था कि नए सिरे कहानियों का मूल्यांकन शुरू होगा, जो बाद भ्रम साबित हुआ। उम्‍मीद थी कि नए सिरे से कथाओं का मूल्यांकन होगा और नए प्रयोगधर्मी   फिल्में बनेगी। आशा के विपरीत परिणाम दूसरा है। मैं कह सकता हूं कि इस प्रकार के निर्णय जो लोग लेते हैं, वे लोग बाबू किस्म के लोग होते हैं। उन्‍हें साल के अंत में एक निश्चित लाभ दिखाना होता है। इसलिए वे भी यही मानते और तर्क देते हैं कि बड़ा कलाकार , बड़ा निर्देशक और सफलता। वे उसके आगे-पीछे नहीं देख पा रहे हैं   ¸ ¸ ¸    सबसे बड़ी बात हमारे पास लंबे समय से ऐसा कोई निकष नहीं रहा,जिसके आधार पर कह सकते हैं कि कॉरपोरेट के अधिकारी वास्तव में कथा के मूल्यांकन के योग्य भी है। हमारे यहां योग्यता का सीधा पर्याय सफलता है। जो सफल है,वही योग्य है। समरथ को नहीं दोष गोसाईं।

समकालीन सिनेमा - डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी

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समकालीन सिनेमा पर इस सीरिज की शुरूआत डॉ. चंद्र प्रकाश द्विवेदी के लेख से हो रही है। अगली सात-आठ कडि़यों में यह लेख समाप्‍त होगा। इस सीरिज में अन्‍य निर्देशकों को भी पकड़ने की कोशिश रहेगी। अगर आप किसी निर्देशक से कुछ लिखवा या बात कर सकें तो स्‍वागत है। विषय है समकालीन सिनेमा....  डॉ.चंद्रप्रकाश द्विवेदी          हिंदी सिनेमा कहते ही मुझे हिंदी साहित्‍य और संस्‍कृति की ध्‍वनि नहीं सुनाई पड़ती। जैसे कन्नड़ का एक अपना सिनेमा है, बंगाल का अपना एक सिनेमा है , तमिल का अपना एक सिनेमा है। उन भाषाओं के सिनेमा में वहां का साहित्‍य और संस्‍कृति है। कन्नड़ में गिरीश कासरवल्ली लगभग पच्चीस फिल्में बनाईं। वे कम दाम की रहीं , कम बजट की रहीं। उनकी सारी फिल्में किसी न किसी कथा , लघुकथा या उपन्यास पर आधारित हैं। उन्होंने पूरी की पूरी प्रेरणा साहित्य से ली। दक्षिण के ऐसे कई निर्देशक रहे जो लगातार समांतर सिनेमा और वैकल्पिक सिनेमा को लेकर काम करते रहे। हमारे यहां लंबे समय तक श्याम बेनेगल , गोविंद निहलानी उस सिनेमा के प्रतिनिधि रहे। उसके बाद मैं जिनको देख सकता हूं जिन्होंने समानांतर और व्याव