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महिला दिवस: औरत से डर लगता है

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-अजय ब्रह्मात्‍मज उनके ठुमकों पर मरता है, पर ठोस अभिनय से डरती है फिल्‍म इंडस्‍ट्री। आखिर क्या वजह है कि उम्दा अभिनेत्रियों को नहीं मिलता उनके मुताबिक नाम, काम और दाम... विद्या बालन की 'द डर्टी पिक्चर' की कामयाबी का यह असर हुआ है कि हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में महिला प्रधान [वीमेन सेंट्रिक] फिल्मों की संभावना तलाशी जा रही है। निर्माताओं को लगने लगा है कि अगर हीरोइनों को सेंट्रल रोल देकर फिल्में बनाई जाएं तो उन्हें देखने दर्शक आ सकते हैं। सभी को विद्या बालन की 'कहानी' का इंतजार है। इस फिल्म के बाक्स आफिस कलेक्शन पर बहुत कुछ निर्भर करता है। स्वयं विद्या बालन ने राजकुमार गुप्ता की 'घनचक्कर' साइन कर ली है, जिसमें वह एक महत्वाकांक्षी गृहणी की भूमिका निभा रही हैं। पिछले दिनों विद्या बालन ने स्पष्ट शब्दों में कहा था, 'मैं हमेशा इस बात पर जोर देती हूं कि किसी फिल्म की कामयाबी टीमवर्क से होती है। चूंकि मैं 'द डर्टी पिक्चर' की नायिका थी, इसलिए सारा क्रेडिट मुझे मिल रहा है। मैं फिर से कहना चाहती हूं कि मिलन लुथरिया और रजत अरोड़ा के सहयोग और सोच के बिना मुझे इतने प

फिल्मी पर्दे और जीवन का सच

-अजय ब्रह्मात्मज कुछ दिनों पहले शबाना आजमी ने बयान दे दिया कि मुसलमान होने के कारण उन्हें (पति जावेद अख्तर समेत) मुंबई में मकान नहीं मिल पा रहा है। उनके बयान का विरोध हो रहा है। शबाना का सामाजिक व्यक्तित्व ओढ़ा हुआ लगता है, लेकिन अपने इस बयान में उन्होंने उस कड़वी सच्चाई को उगल दिया है, जो भारतीय समाज में दबे-छिपे तरीके से मौजूद रही है। मुंबई की बात करें, तो अयोध्या की घटना के बाद बहुत तेजी से सामुदायिक ध्रुवीकरण हुआ है। निदा फाजली जैसे शायर को अपनी सुरक्षा के लिए मुस्लिम बहुल इलाके में शिफ्ट करना पड़ा। गैर मजहबी और पंथनिरपेक्ष किस्म के मुसलमान बुद्धिजीवियों, शायरों, लेखकों और दूसरी समझदार हस्तियों ने अपने ठिकाने बदले। आम आदमी की तो बात ही अलग है। अलिखित नियम है कि हिंदू बहुल सोसाइटी और बिल्डिंग में मुसलमानों को फ्लैट मत दो। हिंदी सिनेमा बहुत पहले से इस तरह के सामाजिक भेदभाव दर्शाता रहा है। देश में मुसलमानों की आबादी करीब बीस प्रतिशत है, लेकिन फिल्मों में उनका चित्रण पांच प्रतिशत भी नहीं हो पाता। मुख्यधारा की कॉमर्शिअॅल फिल्मों में कितने नायकों का नाम खुर्शीद, अनवर या शाहरुख होता है? न

25 साल पहले 24 जून को रिलीज हुई थी 'अर्थ'

-अजय ब्रह्मात्मज देश इस समय व‌र्ल्डकप में भारत की जीत की 25वीं वर्षगांठ पर जश्न मना रहा है। जश्न और खुशी के इस माहौल में अगर याद करें तो पच्चीस साल पहले व‌र्ल्ड कप के दिनों में ही महेश भट्ट निर्देशित अर्थ रिलीज हुई थी। स्मिता पाटिल, शबाना आजमी और कुलभूषण खरबंदा अभिनीत इस फिल्म ने रिलीज के साथ ही दर्शकों को प्रभावित किया था। मुख्यधारा की फिल्म होने के बावजूद समाज के सभी वर्गो में अर्थ की सराहना हुई थी। हिंदी फिल्मों में महिलाओं के चित्रण के संदर्भ में इसे क्रांतिकारी फिल्म माना जाता है। अर्थ की रिलीज की पच्चीसवीं वर्षगांठ के अवसर पर खास बातचीत में महेश भट्ट ने कहा कि मैं आज जो भी हूं, वह इसी फिल्म की बदौलत हूं। पच्चीस सालों के बाद भी अर्थ का महत्व बना हुआ है। मुझे इस फिल्म के लिए ही याद किया जाता है। उन्होंने बेहिचक स्वीकार किया कि अर्थ उनकी और परवीन बॉबी के संबंधों पर आधारित आत्मकथात्मक फिल्म थी। चूंकि विवाहेतर संबंध की परेशानियों को में स्वयं भुगत चुका था, इसलिए शायद मेरी ईमानदारी दर्शकों को पसंद आई। फिल्म के नायक इंदर मल्होत्रा (कुलभूषण खरबंदा)से दर्शकों की कोई सहानुभूति नहीं होती। द