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मौन तो ध्वनि का प्रतीक है - श्याम बेनेगल

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श्‍याम बेनेगल से यह बातचीत दुर्गेश सिंह ने की है। इसका संपादित अंश पिछले रविवार दैनिक जागरण के रविवारी परिशिष्‍ट झंकार में छपा था। श्‍याम बाबू हर सवाल का जवाब पूरी गंभीरता से देते हैं। यह गुण हिंदी फिल्‍म इंडस्‍ट्री में दुर्लभ है। यह इंटरव्यू संविधान से आरंभ होकर उनकी पफल्‍मों तक जाता है। सहयाद्रि फिल्म्स का दफ्तर दक्षिण मुंबई में बचे खुचे फिल्म दफतरों में से एक है। इमारत कुछ पुरानी सी लेकिन लिफट एकदम नई। भूमिका, अंकुर, निशांत, मंडी और कई सारी फिल्मों के अलावा मुझे उनकी त्रिकाल बेहद पसंद है, सो मुझे भी लिफट करने की जल्दी थी। दो दिन के अंदर मैं लगभग दूसरी बार उनसे मिलने पहुंचा। इस वजह से कि वे उम्र के उस पड़ाव पर हैं जहां सेहत का नासाज रहना भी दिनचर्या हो जाती है। अपनी कुर्सी के सामने रखी तार से बुनी मेज पर सहयाद्रि फिल्म्स के लेटर पैड पर पेपरवेट घुमाते हुए वे एकदम स्वस्थ लगते हैं और कहते हैं: फिल्म, टीवी, विज्ञापन कहां से प्रारंभ होना चाहिए। मैं अंग्रेजी-हिंदी दोनों में बात कस्ंगा। मैं उनके चश्मे को देख रहा था छूटते ही कह दिया जी-जी। ये जी के पीछे की कहानी उस समय याद आई जब उनसे