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अनुष्का शर्मा को भविष्य की चिंता नही

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युवा अभिनेत्रियों की शाश्वत मुश्किल है कि हर प्रकार की सफलता हासिल करने के बाद भी वे खुश नहीं हो पातीं। मन में क्षोभ और लोभ रहेगा तो वह चेहरे से भी जाहिर होगा। अभिनय की दुनिया में आए सभी व्यक्तियों को अनुष्का से मुस्कराहट का मंत्र लेना चाहिए। मॉडलिंग में दिलचस्पी मूलत: उत्तराखंड की अनुष्का शर्मा की पढाई-लिखाई बंगलौर में हुई। किशोर उम्र में ही मॉडलिंग में उनकी रुचि बनी। वह रैंप पर उतरीं। पहचान बनी तो मॉडलिंग करने लगी। आरंभ में लाइमलाइट में आने पर भी फिल्मों में आने का इरादा नहीं था। संयोग से एक बार फिल्म जगत में आ गई तो अब अनुष्का का जाने का इरादा भी नहीं है। अनुष्का अछी तरह जानती हैं कि वह एक ऐसी इंडस्ट्री में अपनी पहचान हासिल करने की कोशिश में हैं, जहां एक फिल्म की असफलता भी नेपथ्य में भेज देती है। यह कहना जल्दबाजी होगी कि अनुष्का ने दर्शकों और निर्देशकों की नजरों में रहने का गुर सीख लिया है। 2008 से अभी तक के करियर में समान संख्या में हिट और फ्लॉप फिल्में दे चुकी अनुष्का को भविष्य की अधिक चिंता नहीं है। अभी उनके पास यश चोपडा और विशाल भारद्वाज की फिल्में हैं। मिली खास पहचान अनुष्का की

ऑन स्‍क्रीन ऑफ स्‍क्रीन : रिश्तों के इर्द-गिर्द घूमती हैं करण जौहर की फिल्में

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-अजय ब्रह्मात्‍मज युवा फिल्मकारों में करण जौहर हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के प्रतिनिधि चेहरे हैं। अपने व्यक्तित्व और फिल्मों से उन्होंने खास जगह हासिल की है। हिंदी फिल्मों की शैलीगत विशेषताओं को अपनाते हुए उसमें नए लोकप्रिय तत्व जोडने का काम उन्होंने बहुत खूबसूरती से किया है। वे एक साथ शर्मीले और मुखर हैं, संकोची और बेधडक हैं। स्पष्ट और गूढ हैं। खुशमिजाज और गंभीर हैं। विरोधी गुणों और पहलुओं के कारण वे एक ही समय में जटिल और सरल नजर आते हैं। व्यक्तित्व के इस द्वैत की वजह से उनमें अद्भुत आकर्षण है। वे यूथ आइकन हैं। वे देश के एकमात्र लोकप्रिय निर्देशक हैं, जिनकी लोकप्रियता और स्वीकृति किसी स्टार से कम नहीं है। सुरक्षित माहौल की परवरिश लोकप्रियता और स्वीकृति के इस मुकाम तक पहुंचने में करण जौहर की लंबी यात्रा रही है। यह यात्रा सिर्फ उम्र की नहीं है, बल्कि अनुभवों की सघनता सामान्य व्यक्ति को सलेब्रिटी बनाती है। करण जौहर ने खुद को गमले में लगे सुंदर पौधे की तरह ढाला है, जो धरती और मिट्टी से जुडे बिना भी हरा-भरा और खिला रहता है। महानगरों के सुरक्षित माहौल में पले-बढे सलेब्रिटी की आम समस्या है कि वे

ऑन स्‍क्रीन ऑफ स्‍क्रीन : गढ़ते-बढ़ते अनुराग कश्‍यप

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-अजय ब्रह्मात्‍मज फिल्मों से संबंधित सारे बौद्धिक और कमर्शियल इवेंट में एक युवा चेहरा इन दिनों हर जगह दिखाई देता है। मोटे फ्रेम का चश्मा, बेतरतीब बाल, हल्की-घनी दाढी, टी-शर्ट और जींस में इस युवक को हर इवेंट में अपनी ठस्स के साथ देखा जा सकता है। मैं अनुराग कश्यप की बात कर रहा हूं। हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के इस मुखर, वाचाल, निर्भीक और साहसी लेखक-निर्देशक ने अपनी फिल्मों और गतिविधियों से साबित कर दिया है कि चमक-दमक से भरी इस दुनिया में भी धैर्य और कार्य से अपनी जगह बनाई जा सकती है। बाहर से आकर भी अपना सिक्का जमाया जा सकता है। लंबे तिरस्कार, अपमान व संघर्ष से गुजर चुके अनुराग कश्यप में एक रचनात्मक आक्रामकता है। उनका एक हाथ मुक्के की तरह गलीज फिल्म इंडस्ट्री के ध्वंस के लिए तना है तो दूसरे हाथ की कसी मुट्ठी में अनेक कहानियां व सपने फिल्म की शक्ल लेने के लिए अंकुरा रहे होते हैं। अनुराग ने युवा निर्देशकों को राह दिखाई है। मंजिल की तलाश में वाया दिल्ली बनारस से मुंबई निहत्था पहुंचा यह युवक आज पथ प्रदर्शक बन चुका है और अब वह हथियारों से लैस है। जख्म हरे हैं अब तक इस तैयारी में अनुराग ने मुंबई में

संग-संग : मनोज बाजपेयी-शबाना रज़ा बाजपेयी

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-अजय ब्रह्मात्मज मनोज बाजपेयी और शबाना रजा बाजपेयी पति-पत्नी हैं। लंबे प्रेम के बाद दोनों ने शादी की और अब एक बेटी आवा नायला के माता-पिता हैं। शबाना को हिंदी फिल्मप्रेमी नेहा नाम से जानते हैं। मनोज और शबाना का मौजूदा परिवेश फिल्मी है,लेकिन उनमें दिल्ली और बिहार बरकरार है। दोनों कई मायने में भिन्न हमसफर हैं ... मुलाकात और प्रेम का संयोग शबाना - दिल्ली के एक दोस्त डायरेक्टर रजत मुखर्जी हैं। उनसे मिलने मैं उस पार्टी में गई थी। उन्होंने जबरदस्ती मुझे बुला लिया था। मेरी ‘करीब’ रिलीज हो चुकी थी। मनोज की भी ‘सत्या’ रिलीज हो गई थी। मैंने अपनी बहन और बहनोई (तब उनकी शादी नहीं हुई थी) के साथ ‘सत्या’ देख ली थी। मनोज ने ‘करीब’ देख ली थी। मनोज - मैं ‘कौन’ की शूटिंग से लौटा था। उस फिल्म की शूटिंग केवल रातों में हुई थी। 9 -10 दिनों की रात-रात की शूटिंग से मैं थका हुआ था। मैं ठीक से सो नहीं पा रहा था। घर पहुंचा तो विशाल भारद्वाज का फोन आया कि रेखा (विशाल की पत्नी और गायिका)को पार्टी में जाना है, तू उसे लेकर चला जा। विशाल से दिल्ली की दोस्ती थी। वे कहीं और से पार्टी में आने वाले थे। इस तरह रेखा को लेक

ऑन स्‍क्रीन ऑफ स्‍क्रीन :आधुनिक स्त्री की पहचान हैं करीना कपूर

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बेबो ही नाम है उनका। घर में सभी उन्हें इसी नाम से बुलाते हैं। हिंदी फिल्म इंडस्ट्री एक प्रकार से उनके घर का विस्तार है, इसलिए इंडस्ट्री उन्हें प्यार से बेबो बुलाती है। सार्वजनिक स्थानों पर औपचारिकता में भले ही फिल्म बिरादरी उन्हें करीना नाम से संबोधित करती हो, लेकिन मंच से उतरते ही, कैमरा ऑफ होते ही और झुंड में शामिल होते ही वह सभी के लिए बेबो हो जाती हैं। तोडी हैं कई दीवारें करीना कपूर का अपने सहयोगी स्टारों से अनोखा रिश्ता है। खान त्रयी (आमिर, सलमान और शाहरुख) के अलावा अजय देवगन उन्हें आज भी करिश्मा कपूर की छोटी बहन के तौर पर देखते हैं। मतलब उन्हें इंडस्ट्री में सभी का प्यार, स्नेह और संरक्षण मिलता है। अपने सहयोगी के छोटे भाई-बहन से हमारा जो स्नेहपूर्ण रिश्ता बनता है, वही रिश्ता करीना को हासिल है। मजेदार तथ्य है कि इस अतिरिक्त संबंध के बावजूद उनकी स्वतंत्र पहचान है। वह सभी के साथ आत्मीय और अंतरंग हैं। पर्दे पर सीनियर, जूनियर व समकालीन सभी के साथ उनकी अद्भुत इलेक्ट्रिक केमिस्ट्री दिखाई पडती है। आमिर से इमरान तक उनके हीरोज की लंबी फेहरिस्त है। हिंदी फिल्मों की अघोषित खेमेबाजी छिपी नहीं

औन स्‍क्रीन ऑफ स्‍क्रीन : पुरजोर वाहवाही नहीं मिली रानी मुखर्जी को

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बॉर्डर पर तैनात सैनिकों से मिलकर लौट रही मीरा हवाई जहाज से अपनी सीट पर खुद को व्यवस्थित कर रही है, तभी एक प्रशंसक ऊल-जलूल सवाल करता है। मीरा उसे आडे हाथों लेती है और जवाब में जो बोलती है, उससे न केवल वह व्यक्ति, बल्कि सिनेमा घर में बैठे दर्शक भी अवाक रह जाते हैं। एक बहस चलती है कि क्या ऐसे संवाद की जरूरत थी? रानी मुखर्जी ने तब कहा था कि उस किरदार के लिए ऐसा करना जरूरी था। मुझे लगता है कि यह संवाद स्क्रिप्ट का हिस्सा नहीं रहा होगा। शूटिंग के दौरान राजकुमार गुप्ता ने रानी मुखर्जी के व्यवहार और अंदाज को नोटिस किया होगा। उन्होंने यह संवाद तत्काल जोडा होगा और रानी ने इसे बोलने में कोई आनाकानी नहीं की होगी। रानी मुखर्जी किसी सोते या फव्वारे की तरह अचानक फूटती हैं। उनके चेहरे पर आ रहे भावों में व्यतिक्रम होना एक विशेषता है। अनौपचारिक बातचीत में भी वह विराम लेकर एकदम से नई बात कह देती हैं और फिर वहीं टिकी नहीं रहतीं। संभव है आप भौंचक रह जाएं। छोटी सी बात का फसाना बन जाता है आप कभी मिले हैं रानी मुखर्जी से? गांव-घर में ऐसी लडकियों को मुंहफट कहते हैं। उम्र के साथ वह अब थोडी शालीन और औपचारिक हो ग

दिल से करती हूं अपना काम: जिजेली मोंटेरो

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-अजय ब्रह्मात्‍मज दो फिल्मों के बाद जिजेली मोंटेरो हिंदी फिल्मों केदर्शकों के लिए अपरिचित नहीं रहीं। लव आज कल और आलवेज कभी-कभी में दिखीं जिजेली मूलत: ब्राजील की हैं। उनका ज्यादातर समय अभी भारत में गुजरता है। मॉडलिंग और ऐक्िटग दोनों में एक साथ सक्रिय जिजेली के लिए िफलहाल सबसे बडी चुनौती हिंदी है। वह स्पष्ट कहती हैं कि अगर हिंदी फिल्मों में काम करना है तो हिंदी सीखनी ही होगी। हिंदी में कुछ बोलने का आग्रह करने पर विदेशी लहजे में हिंदी शब्दों का उच्चारण करती हुई वह पूछती हैं, क्या बोलूं? बताएं कि मुंबई कैसी लगती है और अभी कैसा मौसम है? इस सवाल पर वह खामोश हो जाती हैं और फिर एकबारगी किसी सोते की तरह आवाज फूटती है, बहुत अच्छी लागती है बांबे। मौसम में बारिस है। थोडा प्रॉब्लम होता है, बट नो प्रॉब्लम शब्दों और अभिव्यक्ति की इस वर्जिश पर हम दोनों हंसने लगते हैं। मासूम खूबसूरती जिजेली की सौम्यता ने सभी को प्रभावित किया। फिल्म लव आज कल देखकर निकले सभी दर्शकों के मन में एक ही सवाल था कि हरलीन कौर कौन है? पंजाबी कुडी हरलीन कौर की कमसिन और मासूम खूबसूरती से सभी दंग थे। तब किसी को एहसास नहीं था कि इस

ऑन स्‍क्रीन ऑफ स्‍क्रीन : बहुरुपिया का माडर्न अवतार आमिर खान

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चाचा नासिर खान ने पूत के पांव पालने में ही देख लिए होंगे, तभी तो यादों की बारात में उन्होंने अपने बेटे मंसूर खान के बजाय आमिर खान को पर्दे पर पेश किया। बाद में उसी आमिर को उन्होंने कयामत से कयामत तक में बतौर हीरो हिंदी दर्शकों को भेंट किया। इस फिल्म के डायरेक्टर मंसूर खान थे। पहली फिल्म के लिए चुने जाने का भी एक किस्सा है। आमिर कॉलेज में थे। शौक था कि नाटकों में काम करें, लेकिन किसी भी डायरेक्टर को वे इस योग्य नहीं लगते थे। विफलता की कसक आखिरकार महेन्द्र जोशी ने उन्हें मराठी नाटक के एक समूह दृश्य के लिए चुना और मिन्नत करने पर एक पंक्ति का संवाद भी दे दिया। मेरी खुशी का ठिकाना नहीं था। मैं दोस्तों के साथ सबसे पहले रिहर्सल पर पहुंचता था और सबके जाने के बाद निकलता था। हम रोज रिहर्सल करते थे। इसी बीच शिव सेना ने एक दिन मुंबई बंद का आह्वान किया। अम्मी ने उस दिन घर से निकलने नहीं दिया। अगले दिन रिहर्सल पर जवाबतलब हुआ। मेरे जवाब से असंतुष्ट होकर महेन्द्र जोशी ने मुझे नाटक से निकाल दिया। मैं रोनी सूरत लिए बाहर आ गया। बाहर बैठा बिसूर रहा था कि मेरा दोस्त निरंजन थाडे आया। उसने पूछा, क्या कर रहे

संग-संग : चंद्रप्रकाश द्विवेदी-मंदिरा द्विवेदी

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-अजय ब्रह्मात्‍मज दूरदर्शन के धारावाहिक चाणक्य से अपनी खास पहचान बना चुके डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी ने अमृता प्रीतम के उपन्यास पिंजर की भावभूमि पर फिल्म बनाई। उपनिषदों पर धारावाहिक उपनिषद गाथा उनका महत्वपूर्ण कार्य है। अभी वे काशीनाथ सिंह के उपन्यास काशी का अस्सी पर मोहल्ला अस्सी नाम की फिल्म के पोस्ट प्रोडक्शन में व्यस्त हैं। मंदिरा उनकी सहयोगी व पत्नी हैं। 13 साल पहले वे परिणय सूत्र में बंधे। विवाह के प्रति थोडा अलग दृष्टिकोण है इस दंपती का। सहमति-असहमति मंदिरा : मैं चाणक्य में इनकी असिस्टेंट थी। काम के प्रति इनका समर्पण मुझे अच्छा लगा। इतिहास में मेरी रुचि थी, लिहाजा इनकी सहायक बन गई। डॉ. द्विवेदी : मैंने चाणक्य के एडिटर राजीव खंडेलवाल से एक महिला असिस्टेंट खोजने को कहा था और इस तरह मंदिरा यूनिट में शामिल हुई। फिर मेरी जिंदगी में भी..। मंदिरा फिल्मी पृष्ठभूमि से आती हैं। इनके परिवार में लडकियों को आजादी रही है, जबकि मेरा परिवार गंवई माहौल वाला व घोर परंपरावादी है, जहां प्रेम विवाह की कल्पना मुश्किल थी। पहली बार मैंने ही प्रेम विवाह किया, जिसके लिए भाभियां आज भी ताना देती हैं कि मैं

क्या हैं ऐश्वर्या राय ?

-अजय ब्रह्मात्मज मिस व‌र्ल्ड, हिंदी फिल्मों की हीरोइन, मशहूर मॉडल या कुछ और? कई पहचानों की संश्लिष्ट अस्मिता में ऐश्वर्या राय से हम सभी ठीक से परिचित नहीं हो पाते। अगर सारी पहचानों से आंखें मूंद कर ऐश्वर्या राय के बारे में सोचें और आंखें खोलें तो कोमल खिलखिलाहट से भरी एक चंचल लडकी नजर आती है, जिसके मुस्कराते ही सतरंगी किरणें बिखरने लगती हैं और उसकी आंखों की नीली-हरी गहराई आमंत्रित करती है। अपने समाज में लडकियों की स्वतंत्र पहचान नहीं है। इंदिरा गांधी भी आजन्म नेहरू की बेटी रहीं और आज की चर्चित नेता सोनिया गांधी भी राजीव गांधी की पत्नी हैं। लडकियां किसी भी ओहदे पर पहुंच जाएं, अपनी मेहनत और लगन से कुछ भी हासिल कर लें और अपनी मेधा से आकाश छूने का संकेत दें तो भी हम उन्हें किसी न किसी प्रकार मर्दो के घेरे में ले आते हैं। समाज उनकी उडान को सराहता है, लेकिन धीरे-धीरे उनके पंख भी कतरता रहता है। अगली बार जब वे उडान के लिए खुद को तौलती हैं तो डैनों में ताकत की कमी महसूस होती है, क्योंकि मर्यादा की आड में उनके पंख नोच लिए गए होते हैं। बहुत जरूरी है ऐश्वर्या राय के व्यक्तित्व को समझना। वह हमारे ब