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फिल्‍म समीक्षा : देसी कट्टे

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-बजय ब्रह्माम्‍तज               आनंद कुमार की फिल्म 'देसी कट्टे' में अनेक विषयों को एक ही कहानी में पिरोने की असफल कोशिश की गई है। यह फिल्म दो दोस्तों की कहानी है, जो एक साथ गैंगवॉर, अपराध, राजनीति का दुष्चक्र, खेल के प्रति जागरूकता, समाज में बढ़ रहे अपराधीकरण आदि विषयों को टटोलने का प्रयास करती है। नतीजतन यह फिल्म किसी भी विषय को ढंग से पेश नहीं कर पाती। इसमें कलाकारों की भीड़ है। भीड़ इसलिए कि उन किरदारों को लेखक ने ठोस और निजी पहचान नहीं दी है। यही कारण है कि आशुतोष राणा, अखिलेंद्र मिश्रा, सुनील शेट्टी आदि के होने के बावजूद फिल्म बांध नहीं पाती।               ऐसी फिल्मों में कथ्य मजबूत हो तो अपेक्षाकृत नए कलाकार भी फिल्म के कंटेंट की वजह से प्रभावित करते हैं। आनंद कुमार ने नए कलाकारों को निखरने का मौका नहीं दिया है। 'देसी कट्टे' हिंदी में बन चुकी अनेक फिल्मों का मिश्रण है, जो नवीनता के अभाव में रोचक नहीं लगती। फिल्म कई स्तरों और स्थानों पर भटकती है। अपराधियों की दुनिया में सबकी वेशभूषा एक जैसी बना दी गई है। अपने डील-डौल और रंग-ढंग में भी वे सब एक

फिल्‍म समीक्षा : जिला गाजियाबाद

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-अजय ब्रह्मात्मज इसी हफ्ते रिलीज हुई 'काय पो चे' से ठीक उलट है 'जिला गाजियाबाद'। सब कुछ बासी, इतना बासी की अब न तो उसमें स्वाद रहा और न उबाल आता है। हाल-फिलहाल में हिट हुई सभी मसाला फिल्मों के मसाले लेकर बनाई गई एक बेस्वाद फिल्म ़ ़ ़ कोई टेस्ट नहीं, कोई एस्थेटिक नहीं। बस धूम-धड़ाका और गोलियों की बौछार। बीच-बीच में गालियां भी। निर्माता विनोद बच्चन और निर्देशक आनंद कुमार ने मानो तय कर लिया था कि अधपकी कहानी की इस फिल्म में वे हाल-फिलहाल में पॉपुलर हुई फिल्मों के सारे मसाले डाल देंगे। दर्शकों को कुछ तो भा जाए। एक्शन, आयटम नंबर, गाली-गलौज, बेड सीन, गोलीबारी, एक्शन दृश्यों में हवा में ठहरते और कुलांचे मारते लोग, मोटरसायकिल की छलांग, एक बुजुर्ग एक्टर का एक्शन, कॉलर डांस ़ ़ ़ 'जिला गाजियाबाद' में निर्माता-निर्देशक ने कुछ भी नहीं छोड़ा है। हालांकि उनके पास तीन उम्दा एक्टर थे - विवेक ओबेराय, अरशद वारसी और रवि किशन, लेकिन तीनों के किरदार को उन्होंने एक्शन में ऐसा लपेटा है कि उनके टैलेंट का कचूमर निकल गया है। तीनों ही कलाकार कुछ दृश्यों में शानदार