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Showing posts from October, 2013

दरअसल : ‘बेशर्म’ और ‘बॉस’ के समान लक्षण

-अजय ब्रह्मात्मज     इस महीने रिलीज हईं ‘बेशर्म’ और ‘बॉस’ समान वजहों से याद की जाएंगी। भविष्य में ट्रेड पंडित इनके साक्ष्य से उदाहरण देंगे। निर्माता-निर्देशक भी अपनी योजनाओं में इनका खयाल रखेंगे। दोनों फिल्में लालच के दुष्परिणाम का उदाहरण बन गई हैं। कैसे?     ‘बेशर्म’ के निर्माता रिलाएंस और निर्देशक अभिनव सिंह कश्यप ने तय किया कि 2 अक्टूबर को मिली गांधी जयंती की छुट्टी का उपयोग करें। 2 अक्टूबर को बुधवार था। उन्होंने शुक्रवार के बजाए बुधवार को ही ‘बेशर्म’ रिलीज कर दी। 3 दिनों के वीकएंड को खींच कर उन्होंने पांच दिनों का कर दिया। साथ ही यह उम्मीद रखी कि रणबीर कपूर की ‘बेशर्म’ देखने के लिए दर्शक टूट पड़ेंगे। दर्शक टूटे। पहले दिन फिल्म का जबरदस्त कलेक्शन रहा। अगर वही कलेक्शन बरकरार रहता या सफल फिल्मों के ट्रेंड की तरह चढ़ता तो ‘बेशर्म’ चार-पांच दिनों में ही 100 करोड़ क्लब में पहुंच जाती। ऐसा नहीं हो सका। फिल्म का कलेक्शन पांच दिनों में 40 करोड़ के आसपास ही पहुंचा।     दो हफ्ते के बाद फिर से बुधवार आया। इस बार बकरीद थी। बकरीद की भी छुट्टी थी। लिहाजा वॉयकॉम और अक्षय कुमार ने अपनी फिल्म ‘बॉस

यार मेरी जिंदगी... आनंद एल राय-हिमांशु शर्मा

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तनु वेड्स मनु के बाद रांझणा के रूप में दूसरी खूबसूरत फिल्म देने के बाद यह जोड़ी चर्चा में है. फिल्मकार आनंद एल राय और लेखक हिमांशु शर्मा की दोस्ती के बारे में बता रहे हैं रघुवेन्द्र सिंह वो बड़े भाग्यशाली होते हैं, जिनके हिस्से सच्ची दोस्ती आती है. और बात जब फिल्म इंडस्ट्री जैसी एक अति व्यावहारिक और घोर व्यावसायिक जगह की हो, तो फिर इसका महत्व शिव की जटा से निकली गंगा सा हो जाता है. हिमांशु शर्मा 2004 में मुंबई पहुंचे, लखनऊ से वाया दिल्ली होते हुए. दिल्ली के किरोड़ीमल कॉलेज से ग्रेजुएशन के बाद वह एनडीटीवी में आठ महीने नौकरी कर चुके थे. चैनल में वह बतौर लेखक कार्यरत थे. सच्चाई उनकी जुबान पर रहती थी. हकीकत को वह बेलाग-लपेट मुंह पर ही बोल देते थे. उसका खामियाजा भी उन्हें उठाना पड़ता था. ''मुझे कई प्रोड्यूसर्स ने यह कहकर निकाल दिया गया कि मैं बदतमीज और डिस्ट्रैक्टिव हूं. हिमांशु बताते हैं. लेकिन उनकी यही खूबी आनंद एल राय को भा गई. ''इससे पहली मुलाकात में ही मुझे समझ में आ गया था कि इसके दिल में जो है, वही जुबान पर है." आनंद बताते हैं.  आनंद और हिमांशु

MAKING (AND BY THAT I MEAN SURVIVING) YOUR FIRST FILM -sonam nair

आप फिल्‍म बनाना चाह रहे हैं। एक बार इसे पढ लें। बहुत मदद मिलेगी। सोनम नायर का आत्‍मकथात्‍मक लेख मैंने उनके ब्‍लॉग चिंकी चमेली से चवन्‍नी के पाठकों के लिए लिया है। There are things people tell you, and things people just let you find out on your own. When I decided that I would like to direct films for a living, I was 13 and had no idea what a director actually does. Now, after having directed a film, I feel like I know only about a 10% of what it means to be a director. I guess it’s better than zero! So, I thought, maybe I should do something no one did for me- write about what you might think making a film is like vs what actually happens. The Idea If you start off thinking you’ll make a film that’ll bring Shah Rukh Khan and Aamir Khan together finally, that’s set in New York with one song in Paris and one in Switzerland,  with Kareena, Katrina and Deepika and an item number by Priyanka, chances are… your film is not going to get made. You need to start small. You

बच्चों काे पसंद आएगी ‘कृष 3’-राकेश रोशन

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-अजय ब्रह्मात्मज - ‘कृष 3’ आने में थोड़ी ज्यादा देर हो गई? क्या वजह रही? 0 ‘कृष 3’ की स्क्रिप्ट बहुत पहले लिखी जा चुकी थी। मैं खुश नहीं था। उसे ड्रॉप करने के बाद नई स्क्रिप्ट शुरू हुई। उसका भी 70 प्रतिशत काम हो गया तो वह भी नहीं जंचा। ऐसा लग रहा था कि हम जबरदस्ती कोई कहानी बुन रहे हैं। बहाव नहीं आ रहा था। भारत के सुपरहीरो फिल्म में गानों की गुंजाइश रहनी चाहिए। इमोशन और फैमिली ड्रामा भी पिरोना चाहिए। मुझे पहले फैमिली और बच्चों को पसंद आने लायक कहानी चुननी थी। उसके बाद ही सुपरहीरो और सुपरविलेन लाना था। फिर लगा कि चार साल हो गए। अब तो ‘कृष 3’ नहीं बन पाएगी। आखिरकार तीन महीने में कहानी लिखी गई, जो पसंद आई। 2010 के मध्य से 2011 के दिसंबर तक हमने प्री-प्रोडक्शन किया। - प्री-प्रोडक्शन में इतना वक्त देना जरूरी था क्या? 0 उसके बगैर फिल्म बन ही नहीं सकती थी। हम ने सब कुछ पहले सोच-विचार कर फायनल कर लिया। पूरी फिल्म को रफ एनीमेशन में तैयार करवाया। कह लें कि एनीमेटेड स्टोरी बोर्ड तैयार हुआ। अपने बजट में रखने के लिए  सब कुछ परफेक्ट करना जरूरी था। मेरे पास हालीवुड की तरह 300 मिलियन डॉलर तो ह

हीरो बन गए मनीष पॉल

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-अजय ब्रह्मात्मज     लंबे समय तक होस्ट, आरजे, एंकर आदि की भूमिकाएं निभाने के बाद मार्च 2012 में अचानक मनीष पॉल को खयाल आया कि अब फिल्मों में एक्टिंग करनी चाहिए। उनके दोस्त रीतिका ने उन्हें डायरेक्टर सौरभ वर्मा से मिलने के लिए कहा। मुलाकात हुई तो सौरभ वर्मा ने अपनी फिल्म ‘मिकी वायरस’ के बारे में बताया। नाम सुनते ही मनीष हंसने लगे। उन्होंने बताया कि मेरे घर का नाम मिकी है। संयोग से मनीष की तरह ही ‘मिकी वायरस’ का मिकी भी दिल्ली के मालवीय नगर इलाके में रहता है। लगे हाथ मनीष ने बिना मांगे ही कुछ इनपुट दे दिए। दस दिनों के बाद सौरभ का फोन आया कि तू मेरी फिल्म कर ले। इस तरह मनीष पॉल को ‘मिकी वायरस’ मिली और अब वह जल्दी ही रिलीज होगी। - फिल्मों में आने का इरादा कब और कैसे हुआ? 0 मुंबई आया हर अभिनेता कभी न कभी फिल्म करना चाहता है। मुझे आते ही फिल्मों में काम नहीं मिला। पहला काम टीवी में मिला। फिर आरजे का काम मिला। मेरी आदत रही है कि मैं अपने कंफर्ट जोन को खुद ही तोड़ता हूं। फिल्में मिलने से पहले मैं तैयारियों में लगा था। सही समय आया तो फिल्म मिल गई। - फिल्मों से पहले आपका साबका लाइव ओडिएंस से

दरअसल : जरूरी है यह चेतावनी

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-अजय ब्रह्मात्मज     इन दिनों देश भर के सिनेमाघरों में फिल्म आरंभ होने के पहले वैधानिक चेतावनी आती है। इस चेतावनी में बताया जाता है कि तंबाकू सेवन स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। इस से कर्क रोग (कैंसर) हो सकता है। साथ में एक कैंसर रोगी का फुटेज भी दिखाया जाता है। बताया जाता है कि वह बच नहीं सका। इसके साथ ही प्रदर्शित फिल्म मेंजहां भी कोई किरदार सिगरेट पीने या तंबाकू सेवन करते नजर आता है, वहां पर्दे पर यही वैधानिक चेतावनी लिखी हुई नजर आती है। फिल्म में इस चेतावनी की अपरिहार्यता से फिल्मकार खुश नहीं हैं। मैंने फिल्मों के प्रिव्यू शो में देखा है कि क्रिटिक भी इस चेतावनी पर नाक-भौं सिकोड़ते हैं। सही-सही नहीं मालूम कि दर्शकों की क्या प्रतिक्रिया होती है? शायद उन्हें भी अच्छा नहीं लगता हो।     दबे स्वर में फिल्मकार इसके खिलाफ फुसफुसाते रहे हैं। उन्हें लगता है कि इस चेतावनी से फिल्म का मजा खराब होता है। दृश्य का प्रभाव कम होता है। उन्हें इस चेतावनी के साथ दिखाई जाने वाली फिल्म पर भी आपत्ति है कि वह अप्रिय और असुंदर है। उनकी राय में अधिक संवेदनशील और सुंदर चेतावनी फिल्म बनायी जा सकती है। आपत

खिली और खिलखिलाती दीपिका पादुकोण

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-अजय ब्रह्मात्मज     दीपिका पादुकोण ने पीछे पलट कर नहीं देखा है, लेकिन हमें दिख रहा है कि वह समकालीन अभिनेत्रियों में आगे निकल चुकी हैं। दौड़ में शामिल धावक को जीत का एहसास लक्ष्य छूने के बाद होता है, लेकिन होड़ में शामिल अभिनेत्रियों का लक्ष्य आगे खिसकता जाता है। दीपिका पादुकोण के साथ यही हो रहा है। ‘चेन्नई एक्सप्रेस’  की अद्वितीय कामयाबी ने उन्हें गहरा आत्मविश्वास दिया है। वह खिल गई हैं और बातचीत में उनकी खुशी खिलखिलाहट बन कर फूट पड़ती है। अक्तूबर की उमस भरी गर्मी में दोपहर की मुलाकात चिड़चिड़ी हो जाती है। फिर भी तय समय पर दीपिका से मिलना है, क्योंकि शूटिंग, डबिंग और प्रोमोशन के बीच उन्हें यही वक्त मिला है। वह जुहू स्थित सनी सुपर साउंड में ‘राम-लीला’ की डबिंग कर रही हैं।     थोड़े इंतजार के बाद मुलाकात होती है। उनकी परिचित मुस्कान और गर्मजोशी से संबोधित ‘हेलो’ में स्वागत और आदर है। बात शुरू होती है ‘राम-लीला’ से ़ ़ ़ वह इस फिल्म के प्रोमो और ट्रेलर में बहुत खूबसूरत दिख रही हैं। बताने पर वह फिर से मुस्कराती हैं और पलकें झुका कर तारीफ स्वीकार करती हैं। करिअर और फिल्म के लिहाज से ‘

फिल्‍म समीक्षा : शाहिद

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गैरमामूली शख्सियत का सच -अजय ब्रह्मात्‍मज शाहिद सच्ची कहानी है शाहिद आजमी की। शाहिद आजमी ने मुंबई में गुजर-बसर की। किशोरावस्था में सांप्रदायिक दंगे के भुक्तभोगी रहे शाहिद ने किसी भटके किशोर की तरह आतंकवाद की राह ली, लेकिन सच्चाई से वाकिफ होने पर वह लौटा। फिर पुलिस ने उसे गिरफ्तार किया और जेल में डाल दिया। सालों की सजा में शाहिद ने अपनी पढ़ाई जारी रखी। बाहर निकलने पर वकालत की पढ़ाई की। और फिर उन बेकसूर मजलूमों के मुकदमे लड़े, जो सत्ता और समाज के कानूनी शिकंजे में लाचार जकड़े थे। शाहिद ने ताजिंदगी बेखौफ उनकी वकालत की और उन्‍हें आजाद आम जिंदगी दिलाने में उनकी मदद की। शाहिद की यह हरकत समाज के कुछ व्यक्तियों को नागवार गुजरी। उन्होंने उसे चेतावनी दी। वह फिर भी नहीं डरा तो आखिरकार उसके दफ्तर में ही उसे गोली मार दी। हंसल मेहता की फिल्म 'शाहिद' यहीं से आंरभ होती है और उसकी मामूली जिंदगी में लौट कर एक गैरमामूली कहानी कहती है। 'शाहिद' हंसल मेहता की साहसिक क्रिएटिव कोशिश है। अमूमन ऐसे व्यक्तियों पर दो-चार खबरों के अलावा कोई गौर नहीं करता। इनकी लड़ाई, जीत और मौत

क्‍लासिक फिल्‍म : गर्म हवा

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 15 वें मुंबई फिल्‍म फेस्टिवल के लिए लिखा यह विशेष लेख वहां अनूदित होकर अग्रेजी में प्रकाशित हुआ है। चवन्‍नी के पाठकों के लिए मूल लेख प्रस्‍तुत है। आप बताएं कि और किन फिल्‍मों पर ऐसे लेख पढ़ना चाहते हैं। इरादा है कि खास फिल्‍मों पर विस्‍तार से लिखा जाए। -अजय ब्रह्मात्‍मज       सन् 1973 में आई एम एस सथ्यू की ‘ गर्म हवा ’   का हिंदी सिनेमा के इतिहास में खास महत्व है। यह फिल्म बड़ी सादगी और सच्चाई से विभाजन के बाद देश में रह गए मुसलमानों के द्वंद्व और दंश को पेश करती है। कभी देश की राजधानी रहे आगरा के ऐतिहासिक वास्तु शिल्प ताजमहल और फतेहपुर सिकरी के सुंदर , प्रतीकात्मक और सार्थक उपयोग के साथ यह मिर्जा परिवार की कहानी कहती है।       हलीम मिर्जा और सलीम मिर्जा दो भाई हैं। दोनों भाइयों का परिवार मां के साथ पुश्तैनी हवेली में रहता है। हलीम मुस्लिम लीग के नेता हैं और पुश्तैनी मकान के मालिक भी। सलीम मिर्जा जूते की फैक्ट्री चलाते हैं। सलीम के दो बेटे हैं बाकर और सिकंदर। एक बेटी भी है अमीना। अमीना अपने चचेरे भाई कासिम से मोहब्बत करती है। विभाजन की वजह से उनकी मोहब्बत कामयाब नहीं ह

दरअसल... क्या करते और चाहते हैं प्रशंसक?

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-अजय ब्रह्मात्मज     हाल में एक उभरते स्टार मिले। अपनी फिल्म के प्रचार के लिए वे मुंबई से बाहर गए थे। इन दिनों फैशन चल गया है। सभी मुंबई और दिल्ली से निकल कर इंदौर, नागपुर, लखनऊ, कानपुर, पटना और जयपुर जैसे शहरों में जा रहे हैं। ऐसे ही एक शहर से वे लौटे थे, उन्होंने अपना हाथ दिखाया। नाखूनों के निशान स्पष्ट थे। मानो किसी ने चिकोटी काटी हो। पूछने पर वे बताने लगे - यह तो कुछ भी नहीं है। अभी तो और भी फरमाइशें पूरी करनी पड़ती है। अभी किशोर और युवा उम्र की लड़कियां गोद में उठाने का आग्रह करती हैं। मेरे तो कंधे दर्द कर रहे हैं। याद नहीं कितनी लड़कियों को सहारा देकर बांहों में उठाया। यह सब होता है महज एक तस्वीर और क्षणिक सुख के लिए। सेलिब्रिटी के साथ होते ही आम नागरिक के रंज-ओ-गम काफूर हो जाते हैं। इस सुख और खुशी को परिभाषित नहीं किया जा सकता है। यह है और होता है।     मोबाइल में कैमरा लगने के बाद तस्वीरों की चाहत बढ़ गई है। सेलिब्रिटी दिखते ही हम सभी पहले उनकी तस्वीर उतारते हैं। यह खयाल नहीं रहता कि वे वहां किस वजह से हैं? कहीं वह उनका प्रायवेट क्षण तो नहीं है। मुंबई में आए दिन रेस्तरां और

बॉस के गीत

बॉस तो देख ली होगी। उसके गाने यहां पढ़ लें और साथ में गुनगुनाएं। मजा आएगा। 1 Hum Na Tode Lyrics (Re passe ne hat ja re taau.. Boss aa riya se.. Pata koni ke tanne.. Boss re boss..) Hum na chhode.. tode.. phodein.. Jo bhi humse panga le.. Hum na chhode, tode.. phode.. Jo bhi humse panga le.. Collar nikal ke, Jeans phati daal ke.. Duniya ko bandh ke, apne rumaal se.. Hum to chale jhoomte.. Dayein bayein ghumte.. hey.. Masti full on re.. Rokega kaun re..(Repeat once) Hmm.. hum na chhode.. tode.. phodein.. Jo bhi humse panga le.. Hum na chhode.. tode.. phode.. Jo bhi humse panga le.. Hey jo yahaan baat karega (Akad ke) Taang deke usko chand pe (Pakad ke) Apna to mizaj hi bada, hai manmaana.. Hum hain baki sab jubaan ke yahan gulam hai (Gulam hai..) Aate-jate humko thokte salam hain (Salam hain) Apne hi usool pe chale yeh jawana (Yeh jawana) Mana humne hum dheet hain Lekin dil ke hum meet hain