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तमाशा : चलो कुछ ऐसी फिल्में बनाते हैं जो हीरो की न होकर अपनी हों- रोहित मिश्र

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रोहित मिश्र पेशे से पत्रकार हैं। पिछले नौ सालों में सहारा, दैनिक भास्कर और अमर उजाला ग्रुप के साथ रहे। फिलहाल अमर उजाला नोएडा में कार्यरत हैं। अपने को इस गलतफहमी में लगातार डाले रखते कि वे फिल्मों में भी दखल रखते हैं। शुक्रवार की शाम नाम का एक ब्लॉग भी चलाते हैं,जो फिलहाल कामचोरियों के चक्कर में रुका हुआ सा है। एक व्यंग्य संग्रह अपने अंतिम पड़ाव पर प्रकाशनाधीन। उन्‍होंने सिनेमा में कुछ एकेडमिक काम भी.किया है।... चलो कुछ ऐसी फिल्में बनाते हैं जो हीरो की न होकर अपनी हों आपको हिंदी सिनेमा की कोई ऐसी फिल्म याद है जो नायक की ग्रंथि पर बात करती है? और उसके औसत होने पर भी? हीरो को उसकी प्रेमिका इसीलिए छोड़ती है क्योंकि उसे लगता है कि उसका हीरो तो औसत है, शहर के फुटपाथों पर ब्रीफकेश लेकर चलता हुआ कोई भी आम आदमी। मुझे ऐसी कोई फिल्म नहीं याद। मैंने तो फिल्मों में नायकों को महान काम करते और पापियों का संहार करते ही देखा है। हीरोइन तो उतने भर से खुश रही है। इस बीच नायक महान काम करते हुए नायिका के साथ डुएट गाने भी गाता है। मनोरंजन न कर पाने की तोहमत झेल रही 'तमाशा'