फिल्म समीक्षा - शानदार
नहीं है जानदार शानदार -अजय ब्रह्मात्मज ‘ डेस्टिनेशन वेडिंग ’ पर फिल्म बनाने से एक सहूलियत मिल जाती है कि सभी किरदारों को एक कैशल(हिंदी में महल या दुर्ग) में ले जाकर रख दो। देश-दुनिया से उन किरदारों का वास्ता खत्म। अब उन किरदारों के साथ अपनी पर्दे की दुनिया में रम जाओ। कुछ विदेशी चेहरे दिखें भी तो वे मजदूर या डांसर के तौर पर दिखें। ‘ शानदार ’ विकास बहल की ऐसी ही एक फिल्म है,जो रंगीन,चमकीली,सपनीली और भड़कीली है। फिल्म देखते समय एहसास रहता है कि हम किसी कल्पनालोक में हैं। सब कुछ भव्य,विशाल और चमकदार है। साथ ही संशय होता है कि क्या इसी फिल्मकार की पिछली फिल्म ‘ क्वीन ’ थी,जिसमें एक सहमी लड़की देश-दुनिया से टकराकर स्वतंत्र और समझदार हो जाती है। किसी फिल्मकार से यह अपेक्षा उचित नहीं है कि वह एक ही तरह की फिल्म बनाए,लेकिन यह अनुचित है कि वह अगली फिल्म में इस कदर निराश करे। ‘ शानदार ’ निराश करती है। यह जानदार नहीं हो पाई है। पास बैठे एक युवा दर्शक ने एक दृश्य में टिप्पणी की कि ‘ ये लोग बिहाइंड द सीन(मेकिंग) फिल्म में क्यों दिखा रहे हैं ?’ ‘ शानद