फ़िल्म समीक्षा:वेलकम टू सज्जनपुर


सहज हास्य का सुंदर चित्रण

-अजय ब्रह्मात्मज

श्याम बेनेगल की गंभीर फिल्मों से परिचित दर्शकों को वेलकम टू सज्जनपुर छोटी और हल्की फिल्म लग सकती है। एक गांव में ज्यादातर मासूम और चंद चालाक किरदारों को लेकर बुनी गई इस फिल्म में जीवन के हल्के-फुल्के प्रसंगों में छिपे हास्य की गुदगुदी है। साथ ही गांव में चल रही राजनीति और लोकतंत्र की बढ़ती समझ का प्रासंगिक चित्रण है।
बेनेगल की फिल्म में हम फूहड़ या ऊलजलूल हास्य की कल्पना ही नहीं कर सकते। लाउड एक्टिंग, अश्लील संवाद और सितारों के आकर्षण को ही कामेडी समझने वाले इस फिल्म से समझ बढ़ा सकते हैं कि भारतीय समाज में हास्य कितना सहज और आम है। सज्जनपुर गांव में महादेव अकेला पढ़ा-लिखा नौजवान है। उसे नौकरी नहीं मिलती तो बीए करने के बावजूद वह सब्जी बेचने के पारिवारिक धंधे में लग जाता है। संयोग से वह गांव की एक दुखियारी के लिए उसके बेटे के नाम भावपूर्ण चिट्ठी लिखता है। बेटा मां की सुध लेता है और महादेव की चिट्ठी लिखने की कला गांव में मशहूर हो जाती है। बाद में वह इसे ही पेशा बना लेता है। चिट्ठी लिखने के क्रम में महादेव के संपर्क में आए किरदारों के जरिए हम गांव की ऊंच-नीच, छल-प्रपंच और राजनीति को भी समझते चलते हैं।
श्रेयस तलपड़े ने महादेव की संजीदगी और सादगी को बेहद खूबसूरती से पर्दे पर पेश किया है। नई पीढ़ी के अभिनेताओं में हम श्रेयस को नेचुरल एक्टर के रूप में पाते हैं। अमृता राव सुंदर हैं और साधारण दिखने के लिए उन्हें अधिक मेहनत नहीं करनी पड़ती। कमला के किरदार को उन्होंने सहज तरीके से चित्रित किया है। रवि झांकल किन्नर मुन्नी बाई के रोल में प्रभावित करते हैं। रवि ने अपने बेधड़क अभिनय से किरदार को जीवंत कर दिया है। यशपाल शर्मा की स्वाभाविकता उल्लेखनीय है। वे अपने किरदारों के अनुरूप लगने लगते हैं।
फिल्म की खूबी भाषा की तरलता और मौलिकता है। शहरी दर्शकों को कुछ शब्दों को समझने में दिक्कत हो सकती है। वास्तव में पापुलर हिंदी फिल्मों ने हिंदी भाषा को दो-तीन हजार शब्दों में सीमित कर दिया है। फिल्म का गीत-संगीत पक्ष कमजोर है। थोड़े और भावपूर्ण गीत व मधुर संगीत की गुंजाइश थी। हां, पा‌र्श्व संगीत प्रभावशाली है। खासकर पृष्ठभूमि में दूर से आती लोक गीतों की आवाज गांव के माहौल को जिंदा कर देती है।

Comments

सज्जनपुर को शायद देखना पडेगा अब।
सज्जनपुर अपने आप में अलग फिल्म है। इस साल या शायद पिछले कई साल में एक गांव रुपहले पर्दे पर आया है। लेकिन,बॉलीवुडिया कॉमेडी की आदत पाल चुके दर्शकों को यह फिल्म पसंद आएगी-इसमें संदेह है। फिर,हिंग्लिश फिल्मों के बीच अचानक ग्रामीण शब्दों में लिपटी भाषा भी युवाओं को बमुश्किल ही पसंद आए। फिल्म का संगीत साधारण है। हां,श्याम बेनेगल साहब ने गांव के बहाने एसईजेड से जोतने वाली किसानों की समस्याओं से लेकर लोकतंत्र को बंधक बनाने की कोशिश में जुटे अलंबरदारों पर प्रहार तो किया ही है..। अजय जी ने सही लिखा है कि इस फिल्म से समझ आता है कि भारतीय समाज में हास्य व्यंग्य जगह जगह बिखरा पड़ा है,लेकिन कॉमेडी की नयी परिभाषा गढ़ चुके निर्दशकों को अब ये समझ नहीं आता।
-पीयूष पांडे
L.Goswami said…
यानि बेनेगल जी एक बार फ़िर अपनी सार्थकता सिद्ध कर गए..

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