दरअसल:इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल छोटे शहरों में


-अजय ब्रह्मात्मज
हरियाणा के यमुनानगर में 24 से 29 दिसंबर, 2008 के बीच इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल और फिल्म एप्रिसिएशन कोर्स संपन्न हुआ। इस महत्वपूर्ण आयोजन में हरियाणा, पंजाब, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, दिल्ली और हिमाचल प्रदेश के 200 छात्रों ने भाग लिया। मुख्य रूप से लेखक-पत्रकार अजीत राय की अवधारणा से यह संभव हो सका। राय मानते हैं कि फिल्म फेस्टिवल का आयोजन देश के छोटे शहरों में भी हो, ताकि सिनेमा के प्रति युवा दर्शकों की सुरुचि का विकास हो। वे विश्व सिनेमा की समृद्ध सिनेमा से परिचित हों और अपने लिए उपलब्ध सिनेमा में अच्छे और बुरे का फर्क कर सकें। गौर करें, तो गोवा के इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल से लेकर दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, तिरुअनंतपुरम, पूना आदि शहरों में होने वाले फिल्म फेस्टिवलों से शहरों के दर्शक ही लाभ उठा पाते हैं। इन सभी फेस्टिवल का एक तरीका बन गया है, जिसमें ऐसी गुंजाइश नहीं रखी जाती कि उनमें छोटे शहर, कस्बा और गांवों के दर्शकों की भागीदारी हो सके। लिहाजा फिल्म फेस्टिवल देश के संभ्रांत और संपन्न दर्शकों तक ही सीमित रह जाते हैं।
इधर एक सुगबुगाहट दिख रही है। तीन साल पहले बिहार सरकार के सहयोग से पटना में फिल्म फेस्टिवल का आयोजन हुआ। मालूम नहीं, कोसी की बाढ़ से उबर रही नीतिश कुमार की सरकार इस बार इस तरफ ध्यान दे पाती है या नहीं, लेकिन छोटे स्तर पर हुए पटना फिल्म फेस्टिवल का व्यापक प्रभाव पड़ा। हालांकि इस फेस्टिवल में बिहार से निकल कर आई फिल्मी हस्तियों का सहयोग नहीं के बराबर था। पिछले कुछ समय से गोरखपुर में निजी प्रयासों से फिल्म फेस्टिवल का आयोजन होता है। इसी प्रकार अन्य शहरों में छोटे स्तर पर उल्लेखनीय प्रयास होते रहे हैं। यमुनानगर का फिल्म फेस्टिवल इस लिहाज से भी उल्लेखनीय है, क्योंकि इसमें मुख्य रूप से छात्रों ने भाग लिया।
सीमित बजट और संसाधनों के कारण छोटे स्तर पर आयोजित इस फेस्टिवल में फिल्मकार गौतम घोष, निर्देशक फिरोज अब्बास खान, पत्रकार विनोद भारद्वाज, कवि विमल कुमार और व्यंग्यकार अविनाश वाचस्पति ने हिस्सा लिया। गौतम घोष छात्रों का जोश और स्थानीय उत्साह देखकर दंग रह गए। उन्होंने वादा किया कि वे अगले साल पूरे फेस्टिवल के लिए समय निकालेंगे। फिरोज अब्बास खान ने अपनी फिल्म गांधी माई फादर से संबंधित सवालों के जवाब देने के बाद महसूस किया कि छोटे शहरों के दर्शक किसी भी फिल्म के प्रति पूर्वाग्रह नहीं रखते। वे निस्संकोच सवाल करते हैं और उनकी जिज्ञासाएं मौलिक होती हैं। देश-विदेश के अनेक फेस्टिवल में शामिल हो चुके फिल्म समीक्षक और विश्लेषक विनोद भारद्वाज फिल्म देखने के प्रति छात्रों की रुचि से विस्मित थे। उन्होंने बताया कि इन छात्रों ने भारी और बोझिल समझी जाने वाली फिल्मों को भी धैर्य से देखा। फिल्म एप्रिसिएशन कोर्स के सूत्रधार संजय सहाय थे।
यह फिल्म फेस्टिवल का विशेष खंड हरियाणवी फिल्मों पर केंद्रित था। पहली हरियणवी फिल्म चंद्रावल के विशेष शो ने दर्शकों को भावुक करने के साथ ही साथ यह गर्वीला अहसास दिया कि हरियाणा में भी फिल्में बन सकती हैं। चंद्रावल के कलाकार अनूप लाठर और दरियाव सिंह मलिक इस शो में शामिल होकर गदगद थे। अनूप लाठर ने घोषणा कर दी कि वे जल्दी ही ऐसी फिल्म का निर्माण करेंगे।
इस इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में फेलिनी, गोदार, स्पिलबर्ग, चार्ली चैप्लिन, वांग कार वाई, बर्गमैन, अनवर जमाल, फिरोज अब्बास खान, माजिद मजीदी, गौतम घोष और सुषेन भटनागर की फिल्में दिखाई गई। इसकी कामयाबी इस तथ्य का सबूत है कि देश के छोटे शहर ऐसे फेस्टिवल के लिए तैयार हैं। ऐसे आयोजन इसलिए भी जरूरी हैं कि फेस्टिवल से प्रेरित होकर स्थानीय प्रतिभाएं फिल्मों को करियर बनाने की दिशा में अग्रसर हों और मुंबई का एकाधिकार समाप्त हो..।

Comments

बहुत अच्छी ख़बर थी. आपका ब्लॉग हमेशा ही रोचकता से भरपूर खबरों को दिखाता है. बहुत बहुत मुबारबाद के साथ. इरशाद
Yunus Khan said…
बहुत बढिया । काश कि कोई इस बात पर ध्‍यान देकर छोटे शहरों में ज्‍यादा से ज्‍यादा फिल्‍म समारोह आयोजित करता ।

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