हिन्दी टाकीज:सिनेमा के सम्मोहन से मुझे मुक्ति नहीं मिल सकी-विनोद अनुपम


हिन्दी टाकीज-४२

हिन्दी फिल्मों के सुधि लेखक विनोद अनुपम ने आखिरकार चवन्नी का आग्रह स्वीकार किया और यह पोस्ट भेजी । विनोद अनुपम उदहारण हैं कि फिल्मों पर बेहतर लिखने के लिए मुंबई या दिल्ली में रहना ज़रूरी नहीं है। वे लगातार लिख रहे हैं और आम दर्शकों और पाठकों के बीच सिनेमा की समझ बढ़ा रहे हैं। उन्होंने अपने परिचय में लिखा है...जब पहली ही कहानी सारिका में छपी तो सोचा भी नहीं था, कभी सिनेमा से इस कदर रिश्ता जुड़ सकेगा। हालांकि उस समय भी महत्वाकांक्षा प्रेमचंद बनने की नहीं थी, हां परसाई बनने की जरूर थी। इस क्रम में परसाई जी को खूब पढ़ा और खूब व्यंग्य भी लिखे। यदि मेरी भाषा में थोड़ी भी रवानी दिख रही हो तो निश्चय ही उसका श्रेय उन्हें ही जाता है। कहानियां काफी कम लिखीं, शायद साल में एक। शापितयक्ष (वर्तमान साहित्य), एक और अंगुलिमाल (इंडिया ठूडे) ट्यूलिप के फूल (उद्भावना), स्टेपनी (संडे इंडिया), आज भी अच्छी लग जाती है, लेकिन बाकी की दर्जन भर कहानियों के बारे में यही नहीं कह सकता। सिनेमा देखने की आदत ने, सिनेमा समझने की जिद दी, और इस जिद ने 85 से 90 के दौर में बिहार में काम कर रहे प्रकाश झा से जुड़ने का अवसर दिया। उन्हीं के सौजन्य से फिल्म अध्येता सतीश बहादुर से भी फिल्म ‘पढ़ने’ की शिक्षा ग्रहण की। और फिर प्रकाश जी ने ही फिल्म एप्रिशिएशन कोर्स के लिए पुणे भेजने की भी पहल की। सिनेमा के बारे में जितनी ही दृष्टि खुलती गई, उतनी ही मेरे लेखन को एक दिशा मिलती गई। ‘उदभावना’ के संपादक अजय कुमार ने सिनेमा अंक के अतिथि संपादक के लिए मुझसे जमालपुर में संपर्क किया तो वाकई चकित रह गया, लेकिन सही दिशा में बढ़ने का विश्वास मिला। बाद में 2002 में घोषित राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार की घोषणा ने भी कुछ ऐसे ही आश्चर्य में डाल दिया था। पटना से प्रकाशित ‘आज’ और ‘हिन्दुस्तान’ में छपी ‘सामान्य’ सी समीक्षाओं पर मिले राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार ने खुशी तो दी लेकिन सिनेमा पर लेखन के प्रति चिन्ता भी। तब से मौके मिलने पर ही नहीं, मौके ढ़ूंढकर और मांगकर लिखे मैंने सिनेमा पर। आज संतोष होता है जब लगभग सभी साहित्यिक पत्रिकाओं में सिनेमा पर नियमित स्तंभ दिखाई देते हैं। शायद न भी हो, लेकिन इसके पीछे कहीं न कहीं अपनी भूमिका मान मैं खुश होता रहता हूँ।

बात हाई स्कूल की है, पता नहीं क्लास कौन सा था, नौवां या दसवां। एक सहपाठी ने मेरे सिनेमा प्रेम पर मुझे काफी आत्मीयता से समझाते हुए कहा था, पता है ज्यादा सिनेमा देखने से आदमी सिनेमा में ही काम करने लगता है। मैंने कहा, ये तो अच्छी बात है भला कौन सिनेमा में काम नहीं करना चाहता? उसने मेरे उत्साह का शमन करते हुए समझाया, अरे बेवकूफ सिनेमा मतलब, सिनेमा हॉल, वो देखते हो न टार्च दिखाने वाला, गेट पर टिकट चेक करने वाला, वही सब। हालांकि उस समय मेरे लिए ये काम भी रश्क का विषय थे। हर घड़ी सिनेमा हॉल में रहने का उनका सुख सोचकर ही मैं गुदगुदा उठता था। फिर जिस तरह एक टिकट के लिए लोग गेट कीपर के पीछे आपाधापी मचाए रखते, मेरी नजर में उसका महत्ब बरकरार रखता। लेकिन उसके रहन-सहन से इतना अंदाजा तो हो ही जाता कि ये काम मजेदार जरूर है, बढ़िया नहीं। लेकिन जाहिर है सिनेमा में काम करने की बात से एक बार डर जरूर गया, लेकिन सिनेमा के सम्मोहन से मुझे मुक्ति नहीं मिल सकी। यह डर तब और घना हो गया जब मैट्रिक के इम्तेहान में उस मित्र को प्रथम श्रेणी मिली जबकि मैं चार नंबरों से रह गया। आज सोचता हूँ तो वाकई यह पागलपन ही लगता है कि अपने प्रथम श्रेणी की परम्परा वाले परिवार में आयी मेरी द्वितीय श्रेणी भी सिनेमा से मुझे दूर नहीं ले जा सकी। सिनेमा देखना जारी रहा और पढ़ाई भी। पता नहीं सिनेमा और पढ़ाई का मेरा संतुलन सायाश था अनायास, लेकिन यह जरूर हुआ कि एक प्रतियोगिता परीक्षा की सीढ़ी पार कर मैं इंजीनियरिंग की पढ़ाई में चला आया। फिर दूसरी प्रतियोगिता पार कर बिहार सरकार की नौकरी भी हासिल करली। साहित्य से शौक ने हिन्दी साहित्य से भी एम। ए. करवा दिया। सिनेमा देखने से अब इतना शउर आ गया था कि उस पर कुछ अपनी राय जाहिर कर सकता था, जिसे पत्र-पत्रिकाएं प्रकाशन योग्य भी समझने लगी थी। एक दिन हतप्रभ रह गया जब दरवाजे पर मैंने उसी मित्र को खड़ा पाया, वर्षों बाद, मुझे क्षण भर लगा उसे पहचानने में। उसने बधाई दी। सिनेमा पर खूब लिख रहे हो, फिर कहा मैं भी कुछ करना चाहता हूँ, रास्ता बताओ। पता चला कई एक प्रतियोगिता परीक्षाओं में असफलता के बाद वह घर पर ही बच्चों को ट्यूशन पढ़ा रहा है। सिनेमा वह अब भी नहीं देखता, लेकिन यह जरूर है कि अब अपने बच्चों को सिनेमा देखने से नहीं रोकता।

सिनेमा खूब देखे मैंने, और सिनेमा देखकर खूब पिटाई भी खायी। कई पिटाई तो ऐतिहासिक थी। राजकपूर की ‘बॉबी’ के साथ कई रिकार्ड जुड़े हों, लेकिन मेरे लिए सबसे बड़ा रिकार्ड तो यही है कि मेरे बड़े भाई साहब ने ‘बॉबी’ देखने के ‘अपराध’ में मुझे पहले कमरे में बंदकर अपने बेल्ट से पीटा, फिर बीच सड़क पर पीटते हुए स्कूल तक ले गये थे और उस लड़के को भी पीटा, जिसके साथ साईकिल पर सात किलोमीटर की सवारी कर मैं दूसरे शहर ‘बॉबी’ देखने गया था। उस समय मैं आठवीं में था, उम्र होगी बमुश्किल 14 साल। वास्तव में सिनेमा देखना उस समय भी मेरा सबसे बड़ा शगल था। दशहरा हो, दिवाली हो, रक्षा बंधन हो या सरस्वती पूजा’.... मेरे लिए इनका बड़ा महत्व यही था कि मैं सिनेमा देख सकता था। उस समय सिनेमा नून शो में चला नहीं करते थे। मैटनी शो में शाम छः बजे तक बाहर रहने की आजादी आम दिनों में मिलती नहीं थी। मिलती थी तो 4 बजे घर में हाजिरी देने के बाद। त्योहारों में घूमने के नाम पर यह छूट मिल जाती थी। ‘बॉबी’ भी सरस्वती पूजा विसर्जन के दिन देखी थी मैंने, और उसके ठीक एक दिन पहले ‘गद्दार’ भी देखली थी, प्राण, विनोद खन्ना और शायद पद्मा खन्ना....... लगातार दो दिन दो सिनेमा देखने का अक्षम्य अपराध में लगी उस पिटाई का विरोध सिर्फ मां ने किया था।

मां सरकारी स्कूल में शिक्षिका थीं, अच्छी खासी तनख्वाह। उनकी एक ही विलासिता थी, सिनेमा। होश आने के पहले भी और होश आने के बाद भी मां का सिनेमा देखना सदा मेरी याददाश्त से जुड़ा रहा। पिता जी सिनेमा नहीं देखते थे, बगैर किसी कारण। बस उन्हें सिनेमा हॉल का बंद वातावरण अच्छा नहीं लगता था। लेकिन मां के सिनेमा देखने का उन्हें कभी विरोध करते भी नहीं देखा हमने। बल्कि अक्सर ऐसा होता कि मां सिनेमा देखकर बाहर आती तो पिता जी आॅफिस से लौटते हुए उन्हें साथ लेते आते। उस समय लेडिज क्लास का चलन था, लेडिस के लिए अलग काउंटर होते थे और सबसे कमाल यह कि सबसे कम टिकट दर भी उन्हीं का रहता था। महिलाओं के लिए सिनेमा देखना सुखद भले न हो, सुरक्षित अवश्य था। यूं आज के मल्टीप्लेक्स और कल के बॉलकनी को देखें तो स्पष्ट लगता है यह सुखद की सीमा हमेशा बदलते रही है।

जमालपुर (बिहार) में शायद आज भी सिनेमा के प्रचार का वही परंपरागत साधन है, जो बचपन में याने लगभग 30 साल पहले था। रिक्शे पर एक लाउडस्पीकर और माईक के साथ बैठा गेटकीपर। रिक्शे के पीछे प्लाई बोर्ड के टूकड़े पर एक मध्यम आकार का रंगीन पोस्टर चिपका रहता। अमूमन रिक्शा आने का समय शुक्रवार को 9 से 10 बजे का होता। फिल्म कोई भी हो, एनाउंस एक ही सुर में होता, अवन्तिका सिनेमा के रूपहले परदे पर आज से देखें, चुपके-चुपके धुंआधार मारपीट, नाचगाने, हंसी मजाक और सीन सिनहरी से भरपूर ‘चुपके-चुपके’ फिल्म के सितारे हैं, धरमिन्दर, अमिताभ बच्चन, शर्मिला टाइगोर और जया भादुड़ी, पूरे परिवार के साथ देखें ‘चुपके-चुपके’। फिल्म का नाम बदलता जुमला जस का तस रहता, चाहे ‘दोराहा’ यदि मैं गलत नहीं तो राधा सलूजा इसकी नायिका थी और एडल्ट फिल्म होने के कारण एक तरह से बदनाम भी थी यह फिल्म, अफसोस यह फिल्म मैं आज तक नहीं देख सका हो या ‘कोशिश’ जिसमें संजीव कुमार और जया भादुड़ी दोनों ने गुंगे बहरे की भूमिका निभाई थी।

फिल्म और कलाकारों के प्रति उद्घोषक की उदासीनता रहती या सामाजिक पूर्वाग्रह का प्रभाव, अब याद करता हूँ तो आश्चर्य होता है कि कभी संयोग से भी नायिका का नाम वह पहले नहीं लेता। उस फिल्म में जया भादुड़ी किसी नवोदित के साथ थी, शायद विक्रम या विजय अरोड़ा। लेकिन उदघोषक विक्रम के मुकाबले भी जया भादुड़ी को आगे करने की कोशिश नहीं करता। पुरूष सत्ता का प्रभाव हमारे मन को किस तरह अवचेतन में प्रभावित रखता है इससे बेहतर उदाहरण नहीं मिल सकता। यह बात आज मेरे समझ में आ रही है, लेकिन उस समय तो मेरे लिए यह उद्घोषणा इसलिए महत्वपूर्ण रहती कि मैं मां को फिल्म बदलने की सूचना सबसे पहले देने से अपने आपको वंचित नहीं करना चाहता। शायद कोई समझदारी मेरी नहीं थी उस समय, मेरे लिए यह बस इसी लिए महत्वपूर्ण था कि अच्छी फिल्म की सूचना से मां को खुशी मिलती और वे फिल्म देखने की योजना बना सकती थी।

उस समय फिल्मों के चार सौ प्रिन्ट एक साथ रिलीज नहीं होते थे, न ही डिजीटल रिलीज की सुविधा थी। बस बक्से में फिल्म की रील आती, निश्चय ही छोटे शहरों तक आते-आते यह अवधि साल भी हो जाती कभी-कभी। फिर भी फिल्म देखने का उत्साह कम नहीं होता। बड़े शहरों से जैसे-जैसे फिल्म की सिल्वर जुबली याने 25 हते की सूचना आती, छोटे शहरों में फिल्म का क्रेज बनता। लेकिन तब तक फिल्म की रील घिस चुकी होती और उसके पोस्टर खत्म हो चुके होते थे। उस समय नई फिल्म के अधिकांश पोस्टर ट्रेडिल मशीन पर डेढ़ फीट बाय डेढ़ फीट के आकार में स्थानीय प्रेस में सिनेमा मालिकों द्वारा ही छपवाये जाते, आशुद्धियों से भरे इन पोस्टरों पर सिनेमा हॉल, सिनेमा के नाम के साथ सिर्फ कलाकारों के नाम होते थे। तस्वीरों वाले बड़े पोस्टर सिनेमा हॉल के अलावा शहर में सिर्फ एक जगह लगा करता था। अमूमन जिसे देखने के लिए हमलोग पहुंच ही जाया करते थे। शुक्रवार की दोपहर हमें प्रतीक्षा रहती मुंगेर के सिनेमा घरों की प्रचार गाड़ी की। अमूमन मुंगेर की प्रचार गाड़ी जीप पर बनायी जाती। तख्ते के क्यूब पर रंगीन पोस्टर चिपका कर उसे जीप पर रख दिया जाता। और साथ ही साथ माईक से एलाउंस भी होता रहता। सिनेमा और सिनेमा हॉल के नाम का तुक बिठाने में हमें काफी मशक्कत करनी पड़ती। ‘हम किसी से कम नहीं’ सुनाई देता तो विजय टॉकीज गायब हो जात, विजय सुनाई देता तो ‘हम किसी से कम नहीं’। इस प्रचार गाड़ी का सबसे बड़ा आकर्षण इसके साथ उड़ने वाले रंगीन पर्चे होते थे। पतले रंगीन कागज पर छपे ये परचे मिल जाना हमारी एक उपलब्धि होती थी। आज सोचता हूँ वाकई मजेदार लगता है, अजूबा तो उस समय भी लगता था। मुंगेर के बैधनाथ सिनेमा ने एक घोड़ा गाड़ी रखी थी, मतलब बग्घी। आगे जुते घोड़े और पीछे बक्से पर सिनेमा पोस्टर के क्यूब। बैधनाथ की एक और विशेषता थी, अपनी बालकनी को उसने दो भागों में बांट लिया था, आधा डी।सी. कहा जाता था, आधे में लेडीज। डी.सी. में मात्र 8 तीन लंबे गद्देदार स्पिंग वाले सोफे थे, जिसपर सिनेमा देखना वाकई सुखद लगता था। लेकिन मुश्किल लेडीज के साथ थी, उसके ठीक पीछे प्रोजेक्शन रूम था। अक्सर ही ऐसा होता कि नायक-नायिका के बीच किसी तीसरी स्त्री का जूड़ा या फिर रोते हुए बच्चों को खड़े होकर चुप कराती किसी महिला की छवि परदे तक पहुंच जाती और दर्शकों की जबरदस्त हाजिर जवाब चुटकियों से हॉल गुंज उठता था।

मेरे होशोहवाश में आने तक देश में बिजली संकट शुरू हो गया था। बिजली जाने लगी थी, लेकिन सिनेमा घरों में जेनरेटर का प्रचलन शुरू नहीं हुआ था। बिजली जाती तो घंटे-आधे घंटे तक दर्शकों को इन्तजार करना पड़ता। कभी-कभी ऐसा भी होता कि आधी फिल्म में बिजली चली जाती और घंटे भर बाद घोषणा होती कि कल इसी टिकट पर आकर सिनेमा देख सकते हैं। यदि फिल्म आधी से भी कम चली होती और बिजली अनंत काल तक के लिए चली गई होती तो टिकट के पैसे वापस कर दिये जाते। हमारे लिए दुख से अधिक खुशी का अवसर होता यह, एक टिकट में दो खेल।

जमालपुर में उस समय दो सिनेमा घर थे, एक अवन्तिका और एक रेलवें, जिसे रेलवे ने अपने कर्मचारियों के मनोरंजन के लिए बनवाया था। रेलवे में रेल कर्मचारियों को उस समय (1970-1980) मात्र 80 पैसे डी.सी. के लिए देने होते थे, जबकि आम दर्शकों को 1 रूपये 60 पैसे । बगल के जिला मुख्यालय मुंगेर में तीन सिनेमा घर थे। जब कोई बड़ी हिट या चर्चित फिल्म आती तो हमलोग मुंगेर जाते। याद है मुझे ‘जयसंतोषी मां’ देखने के लिए जाना था तो स्कूल से मुझे आधी छुटटी में बुला लिया गया था और स्कूल ड्रेस में ही मां के साथ सिनेमा देखने चला गया था। मुंगेर में सिनेमा देखने हमलोगों के लिए विलासिता ही थी, क्योंकि टैक्सी में बैठकर जाना होता और सिनेमा देखने के बाद रेस्टूरेंट में चाट और कुल्फी के लिए भी पिता जी ले जाते।

पता नहीं सिनेमा देखने की आदत की शुरूआत यहीं से हुई या इसकी नींव कहीं और पड़ी लेकिन इतना जरूर था कि सिनेमा मेरे परिवार में कभी त्याजय नहीं था, सिनेमा देखने - सिनेमा पर बातें करने पर कभी किसी को आपति नहीं होती, शर्त यह कि सिनेमा देखने की स्वीकृति घर में ले ली जाय। याद नहीं वह साल कौन सा था, लेकिन यह याद है कि वह फिल्म थी ‘गंगा तेरा पानी अमृत’, जिसे पहली बार अकेले देखने मैं गया था, मां से स्वीकृति और पैसे लेकर। लेकिन जैसे-जैसे मैं ऊपर के क्लास में चढ़ता गया, सिनेमा देखने की संख्या भी बढ़ती गई, जाहिर है उस अनुपात में घर से स्वीकृति संभव नहीं थी, सो चोरी-छिपे सिनेमा देखने की शुरूआत हुई। कुछ ऐसी भी फिल्में उस समय आने लगी, जिसके लिए घर से स्वीकृति मांगनी संभव भी नहीं थी, अब ‘गुप्तज्ञान’ देखने के लिए स्वीकृति मांगता भी कैसे? और नौवीं-दसवीं का समय ऐसा था, जब ऐसी फिल्में आकर्षित ज्यादा करती थी। जमालपुर में उस समय हरेक वर्ष नवम्बर-दिस्मबर में रामायण सम्मेलन आयोजित होते थे, देश भर से मानस विद्वान वहां उपस्थित होते थे और शाम 7 बजे से 12 रात्रि तक प्रत्येक दिन प्रवचन सुनने शहर के लोग इकट्ठा होते थे। हमे भी मानस सम्मेलन में जाने के लिए आसानी से स्वीकृति मिल जाती, जिसका उपयोग मैं अकसर अपने दोस्तों के साथ 9 से 12 बजे रात्रि शो में फिल्म देखने के लिए कर लेता। और तो याद नहीं लेकिन ‘तन्हाई’ मुझे अभी तक याद है जिसे मैंने 9 से 12 के ही शो में देखा था। शत्रुध्न सिन्हा और रेहाना सुल्तान के भी नाम याद हैं, और यह भी याद है कि उस फिल्म में कुछ ‘ऐसे’ दृश्य थे, जिसने मुझे कुछ गलत करने का अहसास दिलाया था, पता नहीं अब के बच्चों को सी-ग्रेड फिल्में देखकर भी अब यह अहसास होता है या नहीं?

आज भी सिनेमा देखने के लिए कोई आधार मैं नहीं मानता। काफी बाद में फिल्म भाषा और तकनीक पर आधारित एक कार्यशाला में वरिष्ठ फिल्म अध्येता गायत्री चटर्जी ने जब यह कहा कि यदि फिल्म के बारे में जानना हो तो खूब फिल्में देखनी चाहिए, तो मुझे समझ में आया कि शायद मैं गलत नहीं था। मैंने अच्छी-बुरी जब भी जैसी जो फिल्में मिली मैंने देखी। इंजीनियरिंग की पढ़ाई के दौरान दोस्तों के साथ कभी-कभी एक दिन में दो शो फिल्में भी देख डालीं।

सिनेमा आज भी देखता हूँ। लगातार, काफी कम फिल्में ऐसी होती है जिसे मैं नहीं देख पाता। सिनेमा हॉल में फिल्में देखना आज भी मेरी हॉबी है, 45 वर्ष की उम्र में। लेकिन सच कहूं वो उत्साह, वो सुख अब सिर्फ ख्यालों में ही आते हैं, जिसे हमने जमालपुर-मुंगेर के तंग से सिनेमा घरों में हासिल किया। क्यों? पता नहीं, शायद इसलिए कि वहां के गेटकीपर से लेकर सिनेमा की टूटी सीटों से एक अपनापन महसूस होता था, जो आतंकित करती मल्टीप्लेक्स की भव्यता से हासिल नहीं होती।

पसंद की फिल्में:-

1. मेरा नाम जोकर
2. ब्लैक
3. स्वदेश
4. आवारा
5. गाईड
6. वेलकम टू सजनपुर
7. लगे रहो मुन्ना भाई
8. दिलवाले दुल्हनियां ले जाऐंगे
9. गोलमान
10. विवाह
कृप्या क्रम पर गौर नहीं करें

विनोद अनुपम, बी-53, सचिवालय कॉलोनी, कंकड़बाग, पटना-20 मो. 9334406442


Comments

बहुत बढिया लगा...पुरानी यादें जो ताज़ा हो गई
Shankar Sharan said…
विनोद जी का पहला लेखकीय रूप - साहित्यिक - इस सुंदर स्मृति-लेख में भी जीवंत हुआ है। सिनेमा समीक्षक-लेखक के रूप में उनके परिवर्तन ने एक संवेदनशील साहित्यकार को गुम भी कर दिया। पर इस लेख में पाठक को 'एक टिकट में दो खेल' का आनंद मिलता है। एक साँस में पढ़ गया। बधाई!
Ravi Shekhar said…
४२ तक पंहुचा दिया हिंदी टाकिज को विनोद अनुपम ने ! मज़ा आ गया !

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