दरअसल : ख्वाबों को जगाते थे साहिर

-अजय ब्रह्मात्‍मज

किस्सा मशहूर है कि गीतकार-शायर साहिर लुधियानवी अपनी फिल्मों के पारिश्रमिक के तौर पर संगीतकार से एक रुपया ज्यादा लिया करते थे। इसी बात पर कभी एस.डी.बर्मन से उनकी ठन गई थी। दोनों ने प्यासा के बाद कभी साथ काम नहीं किया। आज जब गीतकार रॉयल्टी और कॉपीराइट की लड़ाई लड़ रहे हैं, तब साहिर की कैफियत ज्यादा मौजू हो जाती है। आजादी की राह पर से लेकर लक्ष्मी तक उन्होंने केवल 113 फिल्मों के गाने लिखे। अपने गानों से उन्होंने बेजोड़ मकबूलियत हासिल की। उनके फिल्मी गीतों में उनकी गजलों और नज्मों के कथ्य की गहराई झलकती है। ऐसा लगता है कि अपनी सामाजिक और राजनीतिक समझदारी का जोड़न (जामन) डालकर उन्होंने फिल्मी गीतों को जमाया है।

8 मार्च, 1921 को लुधियाना में जन्मे साहिर का बचपन मां सरदार बेगम के साथ बीता। उनके पिता जागीरदार चौधरी फजल अहमद थे। कहते हैं, अपने पति की बारहवीं शादी से तंग आकर सरदार बेगम ने उनकी हवेली छोड़ दी थी। उन्होंने तलाक ले लिया और बेटे साहिर को अकेले दम पाला। मां के जुझारू व्यक्तित्व के साए में पले साहिर का साबका प्रोग्रेसिव सोच से हुआ। वे छोटी उम्र में ही जागरूक और संजीदा हो गए। हालांकि पूरे खानदान में शायरी का शौक किसी को नहीं था, लेकिन साहिर छोटी उम्र से ही मशहूर शायरों की गजल और नज्मों को दोहराने के साथ अपने खयालात जाहिर करने लगे थे। अपनी शायरी के बारे में उनका मशहूर जुमला है, दुनिया ने तजुर्बातों-हवादिस की शक्ल में, जो कुछ मुझे दिया है वो लौटा रहा हूं मैं.. गौरतलब है कि सिर्फ 24 साल की उम्र में उनका पहला संकलन तल्खियां नाम से आ चुका था। इस संकलन की नज्मों से उस जमाने के नामचीन शायर और एडीटर चौंक गए थे। साहिर को तुरंत ख्याति मिली। रुतबा बढ़ा। वे उस उम्र में ही अदब-ए-लतीफ और शाहकार के संपादक बन गए। फिल्मों में तो वे बाद में आए। उसके पहले लाहौर, दिल्ली और हैदराबाद में अपनी शायरी और आकर्षक व्यक्तित्व से उन्होंने अनगिनत मुरीद तैयार कर लिए थे। बंटवारे के समय उनकी मां को रिफ्यूजी के रूप में पाकिस्तान भेज दिया गया था। माहौल शांत होने पर वे मां से मिलने गए और एक बार लाहौर में ही बसने की सोची। डेढ़ साल वहां रहे भी, लेकिन बचपन से सभी मजहबों के दोस्तों के बीच पले-बढ़े तरक्कीपसंद सोच के साहिर को पाकिस्तान का मौसम दमघोटू लगा। वे भारत लौट आए और फिर उन्होंने मुंबई के लिए कूच किया। तब मुंबई तरक्कीपसंद शायर और साहित्यकारों का गढ़ था। उर्दू के दूसरे मशहूर-ओ-मारुफ शायर-साहित्यकार मुंबई में एक्टिव थे।

साहिर के फिल्मी गीतों से वाकिफ उनके प्रशंसकों को उनकी गजलों और नज्मों को भी पढ़ना चाहिए। गीतों में व्यक्त उनके भाव अधिक सांद्र और गहरे रूप में उनकी शायरी में नजर आते हैं। वहां उनकी सोच अधिक चटख और आजाद है। उन्होंने अपने समय के सभी सामाजिक मुद्दों पर लिखा है। उनका स्वर कभी नारेबाजी का नहीं रहा। वे अपनी बातें पूरी नफासत और इमकान के साथ रखते थे। हाल ही में उनकी गजल, नज्म और फिल्मी गीतों का संकलन जाग उठे ख्वाब कई नाम से आया है। पेंग्विन से प्रकाशित इस संकलन का संपादन मुरली मनोहर प्रसाद सिंह, कांतिमोहन सोज और रेखा अवस्थी ने किया है। इसकी प्रस्तावना गुलजार ने लिखी है। साहिर के बारे में युवा निर्देशक अनुराग कश्यप लिखते हैं, साहिर के गानों ने मुझे दिशा दी है। अपनी आवाज मैंने उनके गीतों में पाई है।


Comments

साहिरसाहब के बारे में पहले भी बहुत कुछ पढ़ा और सुना है. वे मुझे हमेशा से आकर्षित करते हैं. उनके गीत, ग़ज़ल, सभी कुछ.......
बधाई अजय भाई। आपकी यह पोस्‍ट आज दिनांक 11 मार्च 2010 को दैनिक जनसत्‍ता में समांतर स्‍तंभ में जाग उठे ख्‍वाब शीर्षक से प्रकाशित हुई है।

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