दरअसल : नहीं करते हम लेखकों का उल्लेख

-अजय ब्रह्मात्‍मज

पिछले दिनों एक लेखक के साथ लंबी बैठक हुई। वे साहित्यिक लेखक नहीं हैं। फिल्में लिखते हैं। उनकी कुछ फिल्में पुरस्कृत और चर्चित हुई हैं। हाल ही में उनकी लिखी फिल्म वेलडन अब्बा की समीक्षकों ने काफी तारीफ की। वे समीक्षकों से बिफरे हुए थे। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में अपनी नाराजगी जाहिर की। उन्होंने कहा, किसी भी अंग्रेजी समीक्षक ने फिल्म की तारीफ में लेखक का हवाला नहीं दिया। उन्होंने यह जानने और बताने की जरूरत नहीं समझी कि वेलडन अब्बा का लेखक कौन है? बोमन ईरानी की तारीफ करते हुए भी उन्हें खयाल नहीं आया कि जरा पता कर लें कि इस किरदार को किसने रचा? मैं एनएसडी के स्नातक और संवेदनशील लेखक अशोक मिश्र की बात कर रहा हूं। उन्होंने ही श्याम बेनेगल की वेलकम टू सज्जनपुर भी लिखी थी। इन दिनों वे श्याम बेनेगल के लिए एक पॉलिटिकल कॉमेडी फिल्म लिख रहे हैं। यह शिकायत और नाराजगी केवल अशोक मिश्र की नहीं है। वे सीधे व्यक्ति हैं, इसलिए उन्होंने अपना असंतोष जाहिर कर दिया। बाकी चुपचाप खटते (लिखते) रहते हैं। वे समीक्षकों से कोई उम्मीद नहीं रखते। निर्माता-निर्देशक भी उन्हें अधिक महत्व नहीं देते। उनका नाम पर्दे पर पुरानी परंपरा के तहत आ जाता है। कथा, पटकथा और संवाद फिल्म लेखन के तीनों खंडों में सक्रिय व्यक्तियों का नाम देने का रिवाज है। कुछ बैनर अपने लेखकों का नाम पोस्टर पर देते हैं। पोस्टर पर लेखकों का नाम देने की ग्लैमरस शुरुआत सलीम-जावेद ने पूरे हक से की थी। वैसे देश की आजादी के आगे-पीछे भी पोस्टर पर कभी-कभी लेखकों के नाम आते थे। बाद में लेखक मुंशी बन गए और फिल्म के प्रोमोशन में उनके योगदान को नजरअंदाज किया जाने लगा। सलीम-जावेद का किस्सा मशहूर है कि उन्होंने पहले निर्माता से पोस्टर पर नाम देने का आग्रह किया। उसने आग्रह नहीं माना, तो उन्होंने शहर में पोस्टर लगते ही कुछ आदमी भेजकर पोस्टरों पर अपने नाम लिखवा दिए। यह हिम्मत सलीम-जावेद कर सकते थे। दोनों को स्टार राइटर माना जाता था और अलग होने तक दोनों ने इस गरिमा का पूरा लुत्फ उठाया।

उनके बाद फिल्मों में लेखकों का महत्व सिमटता गया। निर्देशक और स्टार किसी हिंदीभाषी सहायक की मदद से कहानी और संवाद लिखने लगे और उसका फुल क्रेडिट भी लेने लगे। धीरे-धीरे स्थिति यह आ गई कि लेखक नामक जीव अदृश्य जैसा हो गया। उसका नाम तो आता था, लेकिन वह निराकार होता था। कोई नहीं जानता था कि उस नाम का कोई व्यक्ति है भी या नहीं? फिर नया दौर आया। सूरज बड़जात्या ने इसकी जोरदार शुरुआत की। उन्होंने खुद अपनी फिल्म की कहानी लिखी। उसके बाद आए ज्यादातर निर्देशकों ने बाहरी लेखकों से मदद लेनी बंद कर दी। सभी लेखक हो गए। केवल संवादों के लिए उन्हें लेखक किस्म के व्यक्ति की जरूरत पड़ती थी। वह भी मूल लेखक नहीं होता था। उसे संवाद अंग्रेजी में दे दिए जाते थे। वह उसे हिंदी में अनूदित कर देता था। यह सिलसिला आज भी चल रहा है। ऐड फिल्म और मुंबई या अन्य मेट्रो के पले-बढ़े ज्यादातर डायरेक्टर अंग्रेजी में ही सोचते और लिखते हैं। हिंदी के लिए पर अनुवादक उर्फ लेखक को भाड़े पर ले आते हैं।

सभी कहते हैं कि कंटेंट इज किंग, लेकिन इस कंटेंट को क्रिएट करने वाले व्यक्ति को फिल्म इंडस्ट्री में न तो इज्जत मिलती है और न पैसे। फिल्म समीक्षक, पत्रकार और पत्र-पत्रिकाएं भी लेखकों के नाम से परहेज करते हैं। लेखकों का उल्लेख करना उन्हें स्पेस की बर्बादी लगती है। दुमछल्ले स्टारों से पेज भरने और रंगने से संतुष्ट हम सभी को लगता है कि हम पाठकों की जरूरतें पूरी कर रहे हैं। हम अपना दायित्व भूल रहे हैं कि पाठकों को समुचित जानकारी देना भी एक प्रकार का मनोरंजन है।

Comments

सही कहा है आपने . अच्छा लेख पढने को मिला है आज .
Manjit Thakur said…
लेखकों के साथ नाइंसाफी बहुत दिनों से होती आ रही हैष गोस्ट राइटिंग के ज़रिए भी उनका शोषण होता आया है।
pritima vats said…
बहुत अच्छा और सही लिखा है आपने अशोक जी।
ज्यादातर जगह ज्यादती लेखकों को ही सहनी पड़ती है।
Unknown said…
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