लाइट और ग्रीन रूम की खुशबू खींचती थी मुझे: संजय लीला भंसाली

खूबसूरत सोच और छवियों के निर्देशक संजय लीला भंसाली की शैली में गुरुदत्त और बिमल राय की शैलियों का प्रभाव और मिश्रण है। हिंदी फिल्मों के कथ्य और प्रस्तुति में आ रहे बदलाव के दौर में भी संजय पारंपरिक नैरेटिव का सुंदर व परफेक्ट इस्तेमाल करते हैं। उनकी फिल्मों में उदात्तता, भव्यता, सुंदरता दिखती है। उनके किरदार वास्तविक नहीं लगते, लेकिन मन मोहते हैं। उनकी अगली फिल्म गुजारिश जल्द ही रिलीज होगी। उसमें रितिक रोशन व ऐश्वर्या राय प्रमुख भूमिकाओं में हैं। आज के संजय लीला भंसाली को सभी जानते हैं। हम उन्हें यादों की गलियों में अपने साथ उनकी पहली फिल्म खामोशी से भी पहले के सफर पर ले गए।

बचपन कहां बीता? कहां पले-बढे?

बचपन मुंबई में ही बीता। सी पी टैंक, भुलेश्वर के पास रहते थे।

किस ढंग का इलाका था?

मम्मी-डैडी के अलावा मैं, बहन व दादी थे। वार्म एरिया था। चॉल लाइफ थी, लेकिन अच्छी थी। आजकल हम जहां रहते हैं, वहां नीचे कौन रहता है इसका भी पता नहीं होता। वहां पूरे मोहल्ले में, रास्ते में, गली में सब एक-दूसरे को जानते थे।

स्कूलिंग कैसी हुई? अंग्रेजी माध्यम, हिंदी या गुजराती में?

इंग्लिश मीडियम स्कूल था। चर्चगेट में सेंट जेवियर्स एकेडमी नाम का स्कूल था। थर्ड क्लास स्टूडेंट कम ही हुआ करते थे। क्लास में तीस से ज्यादा स्टूडेंट नहीं होते थे। अच्छा स्कूल और अच्छी टीचर्स..। स्कूल में प्ले और म्यूजिक वगैरह बहुत होता था।

तब की पढाई कैसी थी? आजकल तो बच्चे स्ट्रेस में रहते हैं।

स्पो‌र्ट्स या किसी अन्य एक्टिविटीज में इंटरेस्ट नहींथा। प्ले भी अच्छे नहीं लगते थे। 8मुझे तो फिल्ममेकर ही बनना था। स्कूल में सिर्फ प्ले होते हैं, जिसमें एक्ट करना होता है या डायरेक्ट करना होता है। म्यूजिक में कभी-कभी इंटरेस्ट आता था। तब स्ट्रेसफुल नहीं थी पढाई। गणित थोडा बोझिल लगता था। वैसे मैं अच्छा स्टूडेंट था। मुझे लगता था कि पिता के पास उतने पैसे नहीं थे कि और अच्छे स्कूल में भेज सकें।

दोस्तों के साथ मौज-मस्ती करते थे?

नहीं। मैं चाहता था कि केवल स्कूल में सभी से मिलूं। दोस्तों को घर बुलाना, उनके घर जाना पसंद नहीं था। घर में भी अकेले रहना अच्छा लगता था। रिश्तेदारों के घर आना-जाना या बर्थडे पार्टी में जाना पसंद नहीं था। मुझे अपने टू इन वन के साथ रहना भाता था।

बेला आपसे कितनी छोटी या बडी हैं?

बडी बहन हैं वह। उनके साथ काफी झगडे होते थे। मेरे अंदर डायरेक्टर पहले से ही था। मैं जो कहूं वो सब मानें। बेला के साथ करीबी रिश्ता रहा। जैसे खुद के साथ होता है, वैसा ही। झगडे भी हुए हैं, लेकिन नापसंद जैसी बात नहीं रही। भाई-बहन या बहन-भाई, इतना पता ही नहीं था तब।

क्या वह हमेशा बडी बहन के रोल में रहती थीं कि संजय को संभाल कर रखना है, संजय को कुछ हो न जाए?

मेरा भाई सबसे बेस्ट, बस इतना ही था। फिल्म इंस्टीट्यूट गई तो मैंने भी दो साल बाद इंस्टीट्यूट जॉइन किया। वहां से उन्होंने विधु विनोद चोपडा को जॉइन किया तो दो साल बाद मैंने भी उन्हीं को जॉइन किया। वह रिश्ते बनाती गई, मैं उन्हें फॉलो करता गया। एक-दूसरे के लिए अंडरस्टैंडिंग अच्छी थी। वह तब भी कहती थीं विनोद को, देखो तुम्हें परिंदा के गाने करने हैं। मेरा भाई म्यूजिक की अच्छी समझ रखता है। तब विनोद ने मेरा शूट लिया और रेणु सलूजा को दिखाया। रेणु सलूजा ने गाने की तारीफ की, तो विनोद ने मुझे बुलाया। मैं आज बेला की वजह से हूं। अगर वह रेणु को बुलाती नहीं और रेणु विनोद को नहीं कहते, विनोद मुझे नहीं बुलाते तो..आज यहां न होता। उन्होंने मेरे प्रति हमेशा अपनी जिम्मेदारी समझी।

बचपन में फिल्म देखने का जो सिलसिला था, वह क्या फैमिली आउटिंग होती थी या आप अकेले जाते थे।

साल में दो-तीन फिल्मों से ज्यादा नहीं देखता था। सिल्वर जुबली होती थी उस जमाने में। आज सिल्वर जुबली कोई जानता ही नहीं। जो पिक्चर दस हफ्ते से ज्यादा होती, उसे जरूर देखते थे। जैसे आपकी कसम, आराधना जैसी फिल्म। राजेश खन्ना, मुमताज, हेमा मालिनी, जीनत अमान की फिल्में बहुत पसंद थीं। जिस फिल्म में हेलन हों, वो देखता ही था। साल में तीन-चार पिक्चर देखनी हो तो जिसमें हेलन हों, उसी को पहले देखते थे। मुझे उनका बिग स्क्रीन पर आना अच्छा लगता था। वह डांस करती थींतो अंदर से खुश दिखती थीं। लगता था कि वह जो चाहती हैं, वह कर रही हैं। उनके डांस में ख्वाब व खुशी का अजीब मिश्रण था, जो मैंने आज तक किसी दूसरे आर्टिस्ट में नहीं देखा। जो हम कर रहे हैं, उसके साथ कनेक्ट करके सभी को खुशी देना। कोई खुद को इस हद तक एंजॉय करे तो। उनके डांस में नंगापन कभी महसूस नहीं हुआ। वह अलग ही लेवल पर लेकर जाती हैं।

पहली फिल्म कौन सी होगी, जिसकी इमेजेज अब तक याद हों?

जब जब फूल खिले शशि कपूर और नंदा की। कहां देखी थी, याद नहीं।

क्या चीज याद रह गई? उसके गाने या कश्मीर का बैकड्रॉप?

इतना ही याद है कि कश्मीर का शिकारा था। किसी ने दूसरी फिल्म देखने को कहा और मैंने जिद पकड ली कि दिखानी है तो यही फिल्म दिखाओ। इस फिल्म का रिदम पसंद आया। शायद वह मेरी जिंदगी की पहली फिल्म है।

फिल्में क्यों अच्छी लगती थीं? पलट कर खूबसूरत जवाब दिए जा सकते हैं, लेकिन अतीत में लौट कर बता सकें जो सही हो।

लोकेशन बडी वजह थी। तब हम फायनेंशियली मजबूत नहीं थे। चॉल में रहते थे। हॉलीडे में घूमने नहीं जाते थे। फिल्मों में सुंदर लोकेशन, कश्मीर, ऊटी या दूसरे हिल स्टेशन दिख जाते थे। खूबसूरत वादियों में हीरो-हीरोइन का गाना और रोमांस अच्छा लगता था।

और क्या शौक थे तब, जिन्हें क्रिएटिविटी की पृष्ठभूमि मान सकें?

म्यूजिक। स्कूल से आते ही रेडियो बजाना मेरी आदत थी। किसी के घर रिकॉर्ड बज रहा हो तो सुनना अच्छा लगता था। नीचे चाचा रहते थे। उनके यहां कुछ बजता तो मैं सीढियों पर बैठ कर सुनता था। मैं फिल्मों में भी गाने की शूटिंग और फिल्मांकन पर गौर करता था। डांस फॉर्म, परफार्मेस, या सिंगिंग क्वॉलिटी, इन चीजों के प्रति खिंचता था। जॉनी मेरा नाम में पद्मा खन्ना का डांस लाउड था मेरे हिसाब से, लेकिन गाना सुंदर था। फिल्म में अच्छी-अच्छी चीजें ढूंढता था। कहानी भूल जाता और अपनी तरफ से कुछ इंपोज करके उसे खोजता और आनंदित होता था। मेरे स्कूल के बच्चे अंग्रेजी फिल्में देखते थे। उन्हें हिंदी फिल्में समझ में नहीं आती थीं। पिताजी को भी म्यूजिक पसंद था। वे कहते थे, रोशन आरा को सुनो, गुलाम अली साहब को सुनो.., बडे गुलाम अली खां को सुनने के लिए उन्होंने पंद्रह-सोलह बार मुगले आजम दिखाई। मेरे चचेरे भाई इंग्लिश फिल्में देखते थे और मैं ओपेरा हाउस में रोटी कपडा और मकान देख कर खुश होता था। हमारा पूरा मोहल्ला कंजरवेटिव था। फिल्मों में काम करना अच्छा नहीं माना जाता था।

आपके परिवार की क्या सोच थी?

मम्मी क्लासिकल डांसर थीं। पृथ्वीराज कपूर के जमाने में वह डांस करती थीं। मोहल्ले के लोग मानते थे कि मेरा परिवार फिल्मी है। स्कूल के रास्ते में एक थिएटर पडता था। मैं जाकर वहां खडा होता था। मन करता कि पेन फेंक कर पियानो बजाऊं। ग्रीन रूम के सामने खडा रहूं, लेकिन परिवार अफोर्ड नहीं कर सकता था। सभी कॉमर्स पढने और किसी बैंक में नौकरी करने पर जोर देते थे। स्कूल-कॉलेज में मेरा दम घुटता था, लेकिन एफटीआईआई के लिए ग्रेजुएशन जरूरी था, इसलिए पढाई की।

किन विषयों की पढाई में मन लगता था?

मैथ्स व कॉमर्स समझ नहीं आता था। म्यूजिक, डांस व थिएटर अच्छा लगता था। हिंदी फिल्मों में कोई लॉजिक नहीं होता और मैं भी कन्फ्यूज व्यक्ति था। कभी-कभी साहित्य भाता था। कॉमर्स का डेबिट-क्रेडिट समझ में नहीं आता था। आर्टिस्ट की लाइफ में हिसाब-किताब तो होता नहीं है। लाला लाजपत राय कॉलेज में पांच साल बर्बाद किए, किसी को असिस्ट करता तो ज्यादा सीखता। लाइट और ग्रीन रूम की खुशबू मुझे खींचती थी। लगता था, उसी के लिए पैदा हुआ हूं।

सिनेमा के लिए मां-पिता से कितनी मदद मिली?

पिता जी फिल्मों की खूबसूरती के बारे में बताते थे। अच्छे सिनेमा और संगीत की गहरी जानकारी रखते थे। रोजमर्रा की जिंदगी में खूबसूरत चीजों के इस्तेमाल पर जोर देते थे। मम्मी डांस सीखती थीं तो उन्हें तसवीरें दिखाते थे। उन्होंने मेरी बहन बेला और मुझे एफटीआईआई भेजा। पापा बी और सी ग्रेड की फिल्में बनाते थे। पाक दामन, जहाजी लुटेरा जैसी फिल्में उन्होंने बनाई थीं। उनके नेगेटिव भी नहीं मिलते। कुछ ब्रोशर कहीं रखे हैं। हमने कभी कुछ देखा ही नहीं?

आपने नहीं देखींपिताजी की फिल्में? कैसे व्यक्ति थे वह? उनका नाम क्या था?

नवीन भंसाली। उनकी फिल्में मैं भी ढूंढ रहा हूं। वे अलग किस्म के इंसान थे। अपनी पसंद में रॉयल व रंगीन किस्म के पावरफुल इंसान थे। मैं उनके सामने मध्य वर्ग का आम आदमी था, वह बहुत सोशल और फ्रेंडली नहीं थे।

ट्रेनिंग का अनुभव कैसा रहा?

एफटीआईआई मेरे लिए दुनिया की सबसे अच्छी जगह है। मुझसे पूछें-पेरिस जाएंगे या एफटीआईआई तो जवाब होगा-एफटीआईआई। वहां से अजीब लगाव था। बचपन से जो खुशबू खोज रहा था, वह वहां जाकर मिली। साउंड स्टूडियो, फिल्म स्टूडियो.. बहुत सुकून मिला। वहां जाने के बाद लगा कि जिंदा हूं।

ट्रेनिंग का फायदा होता है क्या?

मेरा मानना है कि फिल्म-मेकिंग कुदरती चीज है। नैचरल समझ को ट्रेनिंग से फाइन ट्यून किया जाता है। ट्रेनिंग तो मुझे डेबिट-क्रेडिट की भी दी गई, लेकिन नहीं सीख सका। किसी भी फील्ड के लिए स्वाभाविक नजरिया होना चाहिए। कॉमर्स, डांस, म्यूजिक सभी विषयों के साथ यही बात होती है। इंस्टीट्यूट में सही डायरेक्शन मिलता है। क्राफ्ट समझ में आता है, लेकिन लगाव सबसे ज्यादा जरूरी है।

लोग कहते हैं कि हर फिल्मकार की सोच और शैली पर सोशल बैकग्राउंड, पढाई-लिखाई और परवरिश का असर होता है। मुझे लगता है कि कला और विज्ञान के मूल हमारे अंदर होते हैं। बीज होते हैं, वही सही परिवेश में अंकुरित होते हैं। लता जी कहां से आई हैं? मैं कहां से आया हूं? आप कहां से आए? आप लिख सकते हैं, इसलिए लिखते हैं। मुझे नहीं मालूम कि आपके परिवार में और कौन लिखता है? आपका रिश्ता शब्दों से है। मैं चाहूं भी तो आपकी तरह नहीं लिख सकता। कितने अनपढ रायटर और डायरेक्टर हैं देश में? उन्होंने कितने उल्लेखनीय काम किए हैं?

महबूब खान सबसे बडे उदाहरण हैं..

वे सूरत से आए जूनियर आर्टिस्ट थे और उन्होंने मदर इंडिया बनाई। कहां से आई इतनी मेधा? कुदरत की ताकत को हम नहीं समझ सकते।

एफटीआईआई से निकलने के बाद..?

अनिश्चित था। मालूम नहीं था कि कहां से फिल्म मिलेगी? आज की तरह रोज डायरेक्टर पैदा नहीं होते थे। मैं 1987-88-89 की बात कर रहा हूं। वैसे अनिश्चित होने पर ही हम कहीं पहुंचते हैं। जो निश्चित रहते हैं, वे निश्चिंत हो जाते हैं और भटक जाते हैं। आते ही विधु विनोद चोपडा के लिए एक गाना प्यार के मोड पर शूट किया। बेला के पति दीपक सहगल के साथ डिस्कवरी ऑफ इंडिया की एडिटिंग में बैठने लगा। डेढ साल वहां रहा। 1942 लव स्टोरी का काम शुरू हुआ तो विनोद के साथ स्क्रीन प्ले लिखा। उसी दौरान खामोशी लिखी।

खामोशी की स्क्रिप्ट सबको पसंद आई या किसी ने इसकी आलोचना भी की? पहली फिल्म के तौर पर इसका चुनाव सचमुच साहसी फैसला लगता है।

सलमान खान ने कहा कि यह सुसाइडल फिल्म होगी, दूसरी बनाओ। गूंगों-बहरों की पिक्चर कहां चलेगी। मैंने कहा कि जो दिल को अच्छा लगता है, वही करूंगा। पैसे बनाने के लिए फिल्म नहीं बना रहा हूं। खामोशी की स्क्रिप्ट पहले विनोद को दी थी, लेकिन उन्होंने कहा, तुमने लिखी है, तुम ही बनाओ।

किन लोगों ने सपोर्ट किया?

सलमान, विनोद, नाना और मनीषा ने। डिंपल कपाडिया ने मना कर दिया था। माधुरी दीक्षित और काजोल ने भी मना कर दिया था।

नए व युवा डायरेक्टरों को क्या कहेंगे?

सबसे पहले अपने पोटेंशियल को परखें। क्या आप कोई नई बात कहना चाहते हैं? डायरेक्टर बनने के लिए काफी-कुछ झेलना पडता है। पहले किसी के असिस्टेंट बनें। नैचरल टैलेंट के बाद सही टाइम पर सही जगह पहुंच जाएं। अपनी स्क्रिप्ट भी तैयार रखें। फिल्म खामोशी मैंने अपनी हैंडरायटिंग में तीन बार लिखी। दिन में विनोद के साथ काम करता था, रात में लिखता था। कमिटमेंट, हार्ड वर्क के साथ नया कहने की हिम्मत हो। टैलेंट ही सबसे जरूरी चीज है।



लाइट और ग्रीन रूम की खुशबू खींचती थी मुझे: संजय लीला भंसाली

Comments

vandana gupta said…
sanjay hi ke bare me kafi badhiya jankari prapt huyi.
amitesh said…
बात एक यह सामने आई कि भंसाली लोकेशन के प्रति इतना संवेदनशील क्यों है ...लोकेशन उनकी फिल्म में एक कविता की तरह आता है ..और भी बाते है इस साक्षात्कार में...महत्त्वपूर्ण
Unknown said…
अजय जी ! आपने साक्षात्कार में जिस तरह से संजय जी को कुरेद कर उनके व्यक्तिगत अनुभवों की जानकारी दी ,लगा जैसे - उनकी सृजन यात्रा में उनके हमसफ़र बनके , उनके अनुभवों के साथ बड़ी गहराई से जुड़ते चले गए ..सचमुच बहुत ही प्रेरक साक्षात्कार है

Popular posts from this blog

तो शुरू करें

फिल्म समीक्षा: 3 इडियट

फिल्‍म समीक्षा : आई एम कलाम