फिल्‍म समीक्षा : दस तोला

-अजय ब्रह्मात्‍मज

सोनापुर का सोनार शंकर पिता की बीमारी, कुंवारी बहन की जिम्मेदारी और फटेहाल जिंदगी के बीच फंसा व्यक्ति है। वह पड़ोस की लड़की स्वर्णा से प्रेम करता है, लेकिन स्वर्णा के काइयां पिता की ख्वाहिशें बड़ी हैं। अपनी बेटी को सुखी देखने के लिए वे दुबई का दामाद चाहते हैं। स्वर्णा अपने पिता को मनाने के लिए शंकर को दस तोला का हार बनाने की तरकीब बताती है। हार मिलने के बाद पहले पिता और फिर बेटी की नियत बदल जाती है। फिल्म के अंत में उन्हें अपनी गलतियों का एहसास और पश्चाताप होता है।

इस सादा प्रेम कहानी का परिवेश कस्बाई है। निर्देशक अजय ने कस्बाई जीवन को अच्छी तरह चित्रित किया है। उनके किरदार विश्वसनीय लगते हैं, लेकिन घटना विहीन उनका जीवन अधिक रुचि पैदा नहीं करता। इस वजह से फिल्म ठहरी हुई लगती है। मनोज बाजपेयी का अभिनय भी बांधे नहीं रख पाता, क्योंकि उसमें अधिक स्कोप नहीं है।

मनोज बाजपेयी जैसे सशक्त अभिनेता का ऐसी फिल्मों में दुरूपयोग ही होता है। वे अपनी मेहनत और समर्पण से भी दर्शकों को लुभा नहीं पाते। फिल्म का सादा होना कोई कमी नहीं है, लेकिन वह रोचक, घटनापूर्ण और गतिशील तो हो। छोटी सी बात को लंबा तान दिया गया है।

रेटिंग- ** दो स्टार


Comments

इस त्योहारी या कहें बॉलीवुडी मौसम ने आपकी व्यस्तता बढ़ा दी है। अच्छा लग रहा है। एक के बाद एक फिल्में- आक्रोश, रक्त चरित्र, दस तोला, झूठा ही सही आदि समीक्षाओं में आप रौ में लग रहे हैं। पुराने वाले अजय ब्रह्मïात्म (दा) की तरह। आपकी पिछली कुछ समीक्षाओं में दिख रही शुष्कता और संभवत: व्यावसायि· मजबूरी के तहत की जाने वाली तारीफें भी नदारत है। ब्लॉग जगत के पेशेवर टिप्पणीकारों की सरेराह इस्तेमाल की जा रही ‘बहुत सुंदर’ और ‘ढेरों बधाई’ के बीच अक्षरों की फांक में छुपाकर तारीफ पेश करना चाह रहा था पर यह पर यह खुल कर बयान हो गया। ।
हालां·िक यहां उसका संदर्भ नहीं है पर फिर भी बता दूं कुछ दिन पहले की अपने परिवार के बहाने की गई हिंदू धर्म की आपकी पड़ताल कट्टïरता की आक्रामक और बड़बोली आलोचनाओं क बरक्स उससे ज्यादा कारगर हो।
~उमाशंकर सिंह

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