फिल्‍म रिव्‍यू : चक्रव्‍यूह

Really hit the character Chakravyuh-अजय ब्रह्मात्मज
 पैरेलल सिनेमा से उभरे फिल्मकारों में कुछ चूक गए और कुछ छूट गए। अभी तक सक्रिय चंद फिल्मकारों में एक प्रकाश झा हैं। अपनी दूसरी पारी शुरू करते समय 'बंदिश' और 'मृत्युदंड' से उन्हें ऐसे सबक मिले कि उन्होंने राह बदल ली। सामाजिकता, यथार्थ और मुद्दों से उन्होंने मुंह नहीं मोड़ा। उन्होंने शैली और नैरेटिव में बदलाव किया। अपनी कहानी के लिए उन्होंने लोकप्रिय स्टारों को चुना। अजय देवगन के साथ 'गंगाजल' और 'अपहरण' बनाने तक वे गंभीर समीक्षकों के प्रिय बने रहे, क्योंकि अजय देवगन कथित लोकप्रिय स्टार नहीं थे। फिर आई 'राजनीति.' इसमें रणबीर कपूर, अर्जुन रामपाल और कट्रीना कैफ के शामिल होते ही उनके प्रति नजरिया बदला। 'आरक्षण' ने बदले नजरिए को और मजबूत किया। स्वयं प्रकाश झा भी पैरेलल सिनेमा और उसके कथ्य पर बातें करने में अधिक रुचि नहीं लेते। अब आई है 'चक्रव्यूह'।
'चक्रव्यूह' में देश में तेजी से बढ़ रहे अदम्य राजनीतिक और सामाजिक आंदोलन नक्सलवाद पृष्ठभूमि में है। इस आंदोलन की पृष्ठभूमि में कुछ किरदार रचे गए हैं। उन किरदारों को पर्दे पर अर्जुन रामपाल, मनोज बाजपेयी, अभय देओल, ईशा गुप्ता, अंजलि पाटिल और ओम पुरी ने निभाया है। किरदारों के दो समूह हैं। नक्सल किरदारों में राजन [मनोज बाजपेयी], गोविंद सूर्यवंशी [ओम पुरी] और जूही [अंजलि पाटिल] हैं। दूसरी तरफ आदिल खान [अर्जुन रामपाल] और रिया मेनन [ईशा गुप्ता] हैं। इन दोनों के बीच कबीर उर्फ आजाद [अभय देओल] हैं। 'चक्रव्यूह' को देखने और समझने की एक कुंजी अभय देओल हैं। उन्हें आदिल खान अपने एजेंट के तौर पर नक्सलों के बीच भेजते हैं। शुरू में कबीर उनकी मदद भी करते हैं, लेकिन नक्सलों के साथ दिन-रात बिताने के बाद उन्हें एहसास होता है कि सत्ता के घिनौने स्वार्थ हैं। उसके हाथ निर्दोषों के खून से रंगे हैं। आदिवासियों पर सचमुच अत्याचार और जुल्म हो रहे हैं। 'महानता' कंपनी स्थापित करने के पीछ सिर्फ विकास का ध्येय नहीं है। कबीर पाला पलटता है और इसके बाद 'चक्रव्यूह' रोमांचक हो जाती है। हिंदी फिल्मों के दो दोस्तों की कहानी। पॉपुलर सिनेमा में अंतर्निहित मनोरंजन का दबाव गंभीर और वैचारिक विषयों में भी विमर्श की गुंजाइश नहीं देता। किरदारों की मुठभेड़ और घटनाओं में विषय का रूपांतरण हो जाता है। मुद्दा कहीं पीछे छूट जाता है और फिल्म कुछ व्यक्तियों इंडिविजुल की कहानी होकर आम हो जाती है। मुमकिन है कि अधिकांश दर्शकों तक पहुंचने का यह आसान तरीका हो, लेकिन जब मुद्दा ही किसी फिल्मी हीरोइन की तरह असहाय हो जाए तो हम मुठभेड़ में भिड़े किरदारों से परिचालित होने लगते हैं। जब चरित्र और पटकथा का निर्वाह घिसे-पिटे फॉर्मूले में घुसता है तो हमें दशकों से चले आ रहे 'आस्तिन का सांप' और 'क्या पता था कि जिसे दूध पिलाया, वही सांप मुझे डंसेगा'..जैसे संवाद सुनाई पड़ते हैं। ऐसा लगने लगता है कि कथ्य कहीं पीछे छूट गया और मनोरंजन हावी हो गया।
यह समय का दबाव हो सकता है। समर्पित और प्रतिबद्ध फिल्मकार से उम्मीद रहती है कि वह ऐसे दबावों के बीच ही कोई नई राह या शैली विकसित करेगा। प्रकाश झा नई राह और शैली की खोज में दिखाई पड़ते हैं। यह कहना उचित नहीं होगा कि उन्होंने कमर्शियल सिनेमा के आगे घुटने टेक दिए हैं। उन्होंने फार्मूले का इस्तेमाल अपनी तरह की फिल्मों के लिए किया है। इस कोशिश में उन्होंने सिनेमा की नई भाषा रची है। उनकी फिल्में इंगेज करती हैं कि हमारे समय की किसी मुद्दे से रू-ब-रू कराती हैं। सिनेमा के आज के लोकप्रिय दौर में यह कोशिश भी उल्लेखनीय है।
मनोज बाजपेयी एक बार फिर साबित करते हैं कि वे समकालीन अभिनेताओं में सबसे उम्दा और योग्य हैं। सघन चरित्र मिलें तो वे उनकी प्रतिभा खिल उठती है। अभय देओल को मिली भूमिका को लेखक और निर्देशक का पूरा सपोर्ट है, लेकिन इस बार वे चूकते नजर आते हैं। ऐसा लगता है कि इतनी बड़ी जिम्मेदारी के लिए वे सक्षम नहीं हैं। अर्जुन रामपाल सामान्य है। ईशा गुप्ता आरंभिक लड़खड़ाहट के बाद संभल जाती हैं। कामकाजी और और गृहिणी की दोहरी सोच से बने अपने किरदार के साथ उन्होंने न्याय किया है। फिल्म में अंजलि पाटिल चकित करती हैं। उनमें इंटेनसिटी और एक्सप्रेशन है। जूही के किरदार को वह विश्वसनीय बनाती हैं। प्रकाश झा की फिल्मों में सहयोगी कलाकारों की भूमिका भी उल्लेखनीय होती है। मुकेश तिवारी, चेतन पंडित, मुरली शर्मा, दयाराम पांडे आदि ने सशक्त सहयोग किया है।
प्रकाश झा की 'चक्रव्यूह' बेहतरीन फिल्म है। समकालीन समाज के कठोर सच को सच्चाई के साथ पेश करती है। साथ ही सावधान भी करती है कि अगर समय रहते निदान नहीं खोजा गया तो देश के 200 जिलों में फैला नक्सलवाद भविष्य में पूरे देश को अपनी चपेट में ले लेगा। राजनीतिक भटकाव के शिकार नहीं हैं नक्सली.. दरअसल, असमान विकास में पीछे छूट गए देशवासियों की जमात और आवाज हैं नक्सल, जो हक की लड़ाई लड़ रहे हैं।
**** [चार स्टार]

Comments

Unknown said…
mujhe isha gupta ki acting sabse kamjor lagi prakash sir ko naya tarika dhoondhate waqt acting main glamor se bachana chahiye item dance tak theek hai.




deepakkibaten said…
पहले तो इस फिल्‍म और प्रकाश झा ने निराश किया, फिर आपके रिव्‍यू ने। ऊपर से आप क्रिटिकल रहे और आखिरी पैरे में आकर वैसे ही पैंतरा मारा जैसे फिल्‍म ने मध्‍यांतर के बाद मारा है। चार स्‍टार क्‍यूं
sanjeev5 said…
प्रकाश झा अब सोचने लगे हैं की सिर्फ एक समकालीन मुद्दा पकड़ लेने से ही फिल्म बन जायेगी तो वो भी देवानंद की तरहा बस मुद्दे पर बैठे कुछ भी बकवास बना लेंगे. लगता ही नहीं है की इसी प्रकाश ने गंगाजल बनाई थी. उस फिल्म के बाद इनका स्तर लगातार गिर रहा है. अभय देओल तो इस रोल के लिए बने ही नहीं थे. उनके चहरे पर इतनी चर्बी है की भाव आ ही नहीं सकते.अर्जुन रामपाल की अदाकारी ही फिल्म का एकमात्र ऐसा पक्ष है जिसे सराहा जा सकता है. ये २ स्टार के लायक है और अजय ब्रहामात्मज भी लड़खड़ा गये हैं. एक समीक्षक से ये उम्मीद नहीं की जा सकती है की उसकी लेखनी ही उसे इस प्रकार से फ़ैल कर दे की वो जो चाहे रेटिंग दे दे....

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