दरअसल : पर्दे पर आम आदमी
फिल्में आमतौर पर भ्रम और फंतासी रचती हैं। इस रचना में समाज के वास्तविक 
किरदार भी पर्दे पर थोड़े नकली और नाटकीय हो जाते हैं। थिएटर में भी यह 
परंपरा रही है। भाषा, लहजा, कॉस्ट्यूम और भाव एवं संवादों की अदायगी में 
किरदारों को लार्जर दैन लाइफ कर दिया जाता है। माना जाता है कि इस लाउडनेस 
और अतिरंजना से कैरेक्टर और ड्रामा दर्शकों के करीब आ जाते हैं। हिंदी 
सिनेमा में लंबे समय तक इस लाउडनेस पर जोर रहा है। भारत में पहले इंटरनेशनल
 फिल्म फेस्टिवल के आयोजन के बाद इतालवी यर्थाथवाद से प्रभावित होकर भारतीय
 फिल्मकारों ने सिनेमा में यर्थाथवादी स्थितियों और चरित्रों का चित्रण 
आरंभ किया। उस प्रभाव से सत्यजीत राय से लेकर श्याम बेनेगल तक जैसे 
निर्देशकों का आगमन हुआ। इन सभी ने सिनेमा में यथार्थ और वास्तविकता पर जोर
 दिया।
सत्यजीत राय यर्थाथवादी सिनेमा के पुरोधा रहे और श्याम बेनेगल के सान्निध्य
 में आए फिल्मकारों ने पैरेलल सिनेमा को मजबूत किया। पैरेलल सिनेमा की 
व्याप्ति के दौर में कुछ बेहद मार्मिक, वास्तविक और प्रमाणिक फिल्में आईं। 
इस दौर की बड़ी दुविधा यह रही कि ज्यादातर फिल्मकारों की पृष्ठभूमि शहरी 
थी। वे अंग्रेजी में पढक़र आए थे और अपनी दूसरी भाषा हिंदी में फिल्में बना 
रहे थे। उनके समर्थन और योगदान से इंकार नहीं किया जा सकता, लेकिन उस कमी 
को भी नजरअंदाज करना उचित नहीं होगा, जिसकी वजह से पैरेलल सिनेमा की परंपरा
 मजबूत और दीर्घायु नहीं हो सकी। कहीं न कहीं इन फिल्मों का रियलिज्म 
सिंथेटिक और बनावटी हो गया। नतीजतन, दर्शकों से रिश्ता नहीं रहा। प्रदर्शन 
की असुविधा भी पैरेलल सिनेमा के खात्मे का एक कारण रही। धीरे-धीरे पैरेलल 
सिनेमा के फिल्मकार या तो चूक गए या उन्होंने अपनी राह बदल दी। श्याम 
बेनेगल सरीखे फिल्मकार आज भी अपने प्रयासों से प्रासंगिक बने हुए हैं।
मेनस्ट्रीम सिनेमा अपने कमर्शियल ढांचे और मुनाफे की रणनीति से लगातार 
मजबूत और विकसित होता गया। इस सिनेमा ने पर्दे पर भ्रम को गहरा किया और 
फंतासी में सितारों की चमक जोड़ दी। अपनी जमीन, परिवेश और नागरिकों 
(दर्शकों) से कटा यह सिनेमा देखा जा रहा है। सौ सालों में इसने अपना एक 
दर्शक समूह और समाज भी तैयार कर लिया है। ऐसे सिनेमा में शरीक फिल्मकार और 
कलाकार बेशर्मी से यह कहते नजर आते हैं कि हम दर्शकों की पसंद का सिनेमा 
बनाते हैं। दरअसल हिंदी सिनेमा की मुख्यधारा ने दर्शकों को कथित मनोरंजक 
फिल्मों का आदी बना दिया है। मध्यवर्ग और निम्नवर्ग के अधिसंख्य दर्शकों को
 उच्च मध्य वर्ग और उच्च वर्ग के किरदार अच्छे लगते हैं। इन किरदारों की 
प्रमुख समस्या प्रेम है। यह महज संयोग नहीं है कि हिंदी फिल्मों के अधिकांश
 नायक कोई काम नहीं करते। हम उन्हें मायावी दुनिया में विचरते देखते हैं। 
अफसोस की बात है कि हम आह्लादित भी होते हैं। इधर, मेनस्ट्रीम सिनेमा में 
मसालेदार परिवर्तन हुआ है। सभी पॉपुलर स्टार इन्हीं मसालों की फिल्में परोस
 रहे हैं। अच्छी कमाई हो रही है। तीन दिनों में फायदा दिख जाता है। लाभ 
होता है। बस केवल दर्शक नुकसान में रहते हैं।
मुख्यधारा में आकर जुड़ती कुछ गतिमान पहाड़ी नदियों जैसी गतिमान फिल्में 
हमेशा कुछ जोड़ती रहती हैं। ‘आंखों देखी’, ‘कहानी’, ‘पान सिंह तोमर’, ‘तेरे
 बिन लादेन’, ‘फंस गए रे ओबामा’, ‘विकी डोनर’ जैसी फिल्में दर्शकों और 
बाजार को अपनी सफलता और स्वीकृति से विस्मित कर देती हैं। गौर करें तो इन 
सभी फिल्मों का केंद्रीय चरित्र देश का वह आम आदमी है, जिसे हिंदी फिल्मों 
ने दरकिनार कर दिया है। याद करें पिछली बार कब आप ने साधारण वेशभूषा में 
अपने पास-पड़ोस के किरदारों को पर्दे पर देखा था। इन दिनों मुख्यधारा की 
फिल्मों में गरीब किरदार भी डिजाइनर ड्रेस पहनकर आते हैं। पिछले हफ्ते 
रिलीज हुई डॉक्टर चंद्रप्रकाश द्विवेदी की फिल्म ‘जेड प्लस’ ने फिर से 
हाशिए के किरदार को फिल्म में केंद्रीय जगह दी है। फिल्म का नायक असलम पंचर
 वाला मुसलमान और राजस्थान के कस्बे का आम नागरिक है। वह लुंगी और बनियान 
पहनता है। पड़ोसी से झगड़ता है। पान की दुकान पर जाता है। खटारा स्कूटर पर 
चलता है। ‘जेड प्लस’ की सुरक्षा उसकी जिंदगी में विडंबना रचती है और हम 
पॉलिटिक्स की मिथ्या से परिचित होते हैं। उम्मीद है कि आगे भी कुछ फिल्मकार
 ऐसे प्रयास करते रहेंगे।
अफसोस कि डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी की फिल्म ‘जेड प्लस’ वितरण और प्रदर्शन की अराजकता और संकीर्णता की शिकार हुई।
 
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