दरअसल : असुरक्षा रहती है साथ


-अजय ब्रह्मात्मज
    कल दो फिल्मकारों से मिला। दोनों धुर विरोधी शैली के फिल्मकार हैं। एक की फिल्मों में सामाजिक सच्चाई और विसंगतियां मनोरंजक तरीके से आती हैं। उन्हें अभी तक लोकप्रिय स्टार नहीं मिल पाए हैं। दूसरे स्टायलिश फिल्मकार माने जाते हैं। उनकी नहीं चली फिल्मों की स्टायल भी पसंद की जाती रही है। फिल्म इंडस्ट्री के कामयाब स्आर उनके साथ काम करने को लालायित रहते हैं। अभी पहले फिल्मकार अपनी फिल्म को अंतिम रूप दे रहे हैं। यह फिल्म एक स्टूडियो से बनी है। दूसरे फिल्मकार अपनी फिल्म की तैयारी में हैं। उन्हें यकीन है कि उन्हें मनचाहे सितारे मिल जाएंगे। वे अपनी फिल्म की सही माउंटिंग कर लें। दोनों व्यस्त हैं। उन दोनों में फिल्म निर्माण की चिंताओं की अनेक समानताओं में से एक बड़ी समानता असुरक्षा की है। दोनों असुरक्षित हैं।
    हिंदी फिल्म इंडस्ट्री की यह आम समस्या है। शुरूआत की पहली सीढ़ी से लेकर सफलता के शीर्ष पर विराजमान तक असुरक्षित हैं। अमिताभ बच्चन बार-बार कहते हैं कि मैं अपनी हर नई फिल्म के समय असुरक्षित महसूस करता हूं। हम सभी जानते हें कि उन्होंने अपने फिल्मी करिअर में एक दौर ऐसा भी देखा है,जब उनके पास फिल्में नहीं थीं। उनकी कंपनी ठप्प हो चुकी थी। उन पर देनदारी थी। इस मुसीबत से वे आखिरकार निकले। उन्होंने धैर्य और मेहनत से काम लिया। आज वे फिर से शीर्ष पर हैं। उनका आसन थोडुा अलग है। अगर हम सभी सफल सितारों और फिल्मकारों के करिअर और जिंदगी में झांके तो पाएंगे कि सभी कभी न कभी धरातल पर आए और फिर से अमरपक्षी की तरह उठे। मैंने अपने साक्षात्कारों में उनकी इस असुरक्षा की आहटें सुनी हैं। मुझे अभी तक कोई ऐसा नहीं मिला जो गहन आत्मविश्वास के बावजूद डरा हुआ न हो।
    यह असुरक्षा सभी के साथ रहती है। सामान्य जिंदगी में एक नौकरीपेशा या व्यापारी अधिक सुरक्षित भाव से बसर करता है। फिल्म इंडस्ट्री में सारा खेल परफारमेंस का है। इसे करतब भी कह सकते हैं। न जाने किस करतब पर दर्शकों की तालियां न बजें। हमेशा डर का कीड़ा दिल-ओ-दिमाग में रेंगता रहता है। इस डर और असुरक्षा की वजह से वे हर बार विजयी होने की कोशिश करते हैं। कभी कामयाब होते हैं और कभी मुंहकी खाते हैं। यकीन करें परफारमिंग आर्ट के किसी भी क्षेत्र में यह असुरक्षा ही नए प्रयोग करवाती है। संतुष्ट व्यक्ति प्रयोग नहीं कर सकता। हिंदी फिल्मों में कथ्य और शिल्प में डरे हुए असुरक्षित लोगों ने ही प्रभावशाली प्रयोग किए हैं। यह कहना गलत है कि फिल्म इंडस्ट्री में सभी लकीर के फकीर हैं। वे केवल आजमायी और सफल प्रयासों को ही दोहराना चाहते हैं। ऐसा रहता तो हमारे पास श्रेष्ठ हिंदी फिल्मों का खजाना नहीं रहता।
    मैं जिन दो फिल्मकारों की बात शुरू में कर रहा था,वे दोनों युवा और सफल फिल्मकार हैं। दोनों के अनुभवों से यह पता चला कि अभी के दौर में बाजार के दबाव से नए किस्म की असुरक्षा फैल गई है। सीमित बजट की छोटी से छोटी फिल्म के प्रचार में इतना खर्च करना पड़ रहा है कि लागत और लाभ निकालना असंभव कार्य हो जाता है। फिल्म में लोकप्रिय स्टार हों तो फिल्म को आरंभिक दर्शक मिल जाते हैं। इन फिल्मों की लागत इतनी ज्यादा हो जाती है कि मुनाफे में आने के लिए उन्हें लागत से दोगुना कलेक्शन ले आना होता है। इस आधार पर कुछ 100 करोड़ी फिल्में भी घाटे का सौदा रही हैं। क्रिएटिविटी की असुरक्षा ज्यादा क्रिएटिविटी से कम की जा सकती है,लेकिन मुनाफे की असुरक्षा तो बिल्कुल वश में नहीं है। दर्शक कैसे रिएक्ट करेंगे। इसका अनुमान अभी तक नहीं लगाया जा सका है। हर नई फिल्म अंधेरी सुरंग से निकलती है। कुछ फिल्में ही दूसरे छोर के उजाले तक पहुंच पाती हैं। असुरक्षित फिल्मकार ही सफल होते हैं।

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