हिंदी टाकीज 2 (4) प्रभावित करता रहा सिनेमा - धीरेन्‍द्र सिंह

 एक अंतराल के बाद हिंदी टाकीज सीरिज में धीरेन्‍द्र सिंह के संस्‍मरण प्रस्‍तुत हैं। अगर आप भी आने संस्‍मरण्‍ा भेजना चाहते हैं तो लिखें chavannichap@gmail.com मेल भेजने की सूचना मुझे फेसबुक पर दे दें। 

-धीरेन्‍द्र सिंह 
             १०१ साल हो गए हिंदी सिनेमा को और मैं इसकी निरंतरता में मात्र २७ साल शामिल रहा कुछ साल बाल अवस्था के थे सो सिनेमा से दूरी ही रही तब हमारे मनोरंजन के साधन अलग अलग तरह के थे   जैसे गोटियां खेलना, कबड्डी खेलना, क्रिकेट खेलना आदि. सिनेमा के १०० वर्ष पूरे होने पर एक फिल्म बनी थी 'बॉम्बे टॉकीज' जिसका अनुराग कश्यप निर्देशित भाग मुझे सबसे ज्यादा पसंद आया. जब हम छोटे हुआ करते थे तो हमारे घर में टीवी नहीं था मोहल्ले में एक ही रंगीन  टीवी    था   अयोध्या   जी के   यहां , जहाँ  मैंने पहली फिल्म देखी  थी 'हातिम  ताई' जिसमे जीतेन्द्र जी ने 'हातिम अल ताई' की भूमिका निभायी थी उन दिनों इस तरह की जादुई फ़िल्में देखने  का बहुत शौक होता  था इसी तर्ज़ का टीवी में एक शो आता था 'अलिफ लैला' जिसका हर एपिसोड देखना हमारे लिए ज़रूरी सा था एक रोज जब हम  अलिफ लैला देखने को अपने पड़ोसी के घर गए तो उन्होंने दरवाजे बंद  कर लिए  हम मायूस घर लौट आये और ये सोचते सोचते सो गए की आखिर आज क्या हुआ होगा सुबह जब नींद खुली तो स्कूल को चले गए और स्कूल में सोचते रहे  की आज शक्तिमान कहाँ देखेंगे लेकिन जब घर आये तो मालूम हुआ कि अब हमारे घर   में  भी नया  टीवी है जिसमे हमने शक्तिमान देखा और पहली फिल्म देखी 'बैंडिड क़्वीन'  जो  हमें  पूरी  नही देखने दी गयी लेकिन उस क़्वीन की वेदना आज तक  मेरे  जेहन  में  कौंध  रही  है. 'हम  पांच'  वगैरह  देखना  भी  बेहद  पसंद  था . लेकिन  रुपहला  पर्दा  हमारे लिए  सपनो  जैसा  होता था  हम  सोचते  थे कि आखिर  वह होता कैसा होगा हमारे नायक और नायिकाएं उसमे कितनी बड़ी दिखती रही होंगी  क्या  वो  वहां  असली  में होते होंगे ? 
           मैंने १९९८ में  रुपहले  परदे  पर    पहली  फिल्म  शक्ति  टॉकीज  टीकमगढ़  में 'चाइना  गेट'  देखी. चाइना गेट में मुकेश तिवारी द्वारा अभिनीत किरदार जगीरा ने एकदम शोले के गब्बर का काम किया फिल्म खत्म होने के कईं घंटों बाद नहीं बल्कि कई दिनों तक उसकी दहशत मेरे दिमाग में रही. 'शोले' मैंने चाइना गेट के बाद टीवी  पर देखी थी  जिसे देखने पर  लगा  था कि  काश  हमारे  गाँव  के  डाकूँओं  का  खत्मा  करने  यहां  भी  कोई  जय  वीरू  आ  जाएँ। शोले का एक एक संवाद मेरे दिमाग में आज भी चस्पा है सलीम जावेद की स्टार जोड़ी द्वारा लिखी गयीं फ़िल्में मुझे बेहद पसंद हैं चाहे वो 'डॉन' हो 'शोले' हो 'दीवार' हो 'बॉबी' हो या 'मिस्टर इंडिया' उनके लिखे संवाद आज भी वैसे ही ताज़ा हैं जैसे तब थे चाहे वो शोले का 'कितने आदमी थे हो ' या मिस्टर इंडिया का 'मोकेम्बो खुश हुआ ' हो. मेरे अंदर अमिताभ बच्चन के साथ साथ गोविंदा, अनिल कपूर की दीवानगी भी बहुत थी अनिल कपूर की शुभाष घाई निर्देशित 'राम लखन' हो या गोविंदा की डेविड धवन द्वारा निर्देशित 'क्यों की मैं झूठ नहीं बोलता' हो. इन सभी फिल्मो दे दौर दर दौर मुझपर असर पड़ते रहे हैं कभी अनिल कपूर की तरह आवारा बने रहने का जी करे कभी गोविंदा के जैसे मस्तीखोर बनने का और कभी अमिताभ बच्चन के जैसे एंग्री यंग मन बनने का, भाइयों से मजाकिया लड़ाई होते समय 'ढिशुम ढिशुम' आप ही मुह पर आ जाता था. इस दौर की सारी फिल्मे मैंने टीवी पर ही देखीं बारहवीं के बाद जब कोटा कोचिंग करने गए तब पूरे ९ साल बाद मैंने सिनेमा की शक्ल देखी जिस पर मेरी पहली फिल्म रही मणिरत्नम द्वारा निर्देशित, अभिषेक- ऐश्वर्या द्वारा अभिनीत  'गुरु'. जिसे देखकर  मुझे इंजीनियर नहीं बल्कि बिज़नेस मैन बनने का सपना  आने लगा और सब कुछ संभव होता है इसका मनोबल भी बढ़ने लगा, इसके बाद मेरी अगली फिल्म रही शाहरुख़ की नयी 'डॉन' जिसे देखकर बिलकुल अमिताभ बच्चन साहब याद नहीं आये दोनों की अदायगी में फ़र्क़ था लेकिन सलीम जावेद के वही संवाद फिर ताज़ा हुए 'डॉन का इंतज़ार  तो ग्यारह मुल्कों की पुलिस कर रही है लेकिन डॉन को पकड़ पाना मुश्किल नही नामुमकिन है ' 
            नयी डॉन देखने मैं मेरे दोस्त के साथ गया था वापस आते ही मैंने डॉन की स्टाइल में एक सिगरेट फूंकी जो की शायद ग़लत था हमें अपने नायकों से मनोरंजन की उम्मीद रखनी चाहिए उनके जैसा बनने की कोशिश में नहीं रहना चाहिए क्यों की वे तो मात्र उस फिल्म में उस तरह के होते हैं अगली में अलग तरह के. वो एक किरदार निभांते हैं और हम ज़िन्दगी लेकिन कभी कभी उनके किरदारों से   हमारी ज़िन्दगी में सकारात्मक बदलाव आते हैं चाहे फिल्म  'आनंद' हो या 'याराना' इन्हे देखकर हमें आज भी जीवन जीने की प्रेरणा मिलती है तो कभी प्रेम करने की तो कभी रिश्तों को निभाने की... एक   बात और बताता चलूँ की 'कमाल अमरोही' जो  की मीना  कुमारी जी के पति रहे हैं की फिल्म पाकीजा का संवाद 'आप के पाँव बहुत हसीं हैं, इन्हे ज़मीन पर मत उतारियेगा, मैले हो जायेंगे' हो या न 'मुग़ल-ऐ-आज़म' का संवाद 'हमारा दिल आपका हिन्दुस्तान नहीं जिस पर आप हुकूमत करें'    कभी भुलाया नहीं जा सकता न ही आनंद फिल्म का गुलज़ार लिखित संवाद 'बाबू मोशाय ज़िन्दगी और मौत ऊपर वाले के हाथ में हैं, इसे न आप बदल सकते हैं न मैं '. यह सब अमर कहानियों के अमर संवाद हैं जिसे इतिहास की कोई कालिख नहीं मिटा सकती। 
             और फिर  मैं आगे  कई फिल्मे देखता गया और ये सिनेमा  जीवन, सम्बन्ध, छिछोरेपन, दर्शन  की छवि लिए  लिए और  मधुर कर्कश संगीत की ध्वनि लिए आगे बढ़ता गया और इन पड़ावों में मेरे जीवन के हिस्से आई अभी तक की आखिरी फिल्म रही 'पी के' जिसके विषय में मैंने अजय सर को मेल भी किया था की ''यदि इसी गोले  में यानि धरती में ऐसी  कोई जगह होती जहां न आवरण की आवश्यकता होती न सम्प्रेषण के लिए भाषा की, ऐसी जगहें होंगी भी या हैं भी पता नही लेकिन शब्दों  या  भाषा का माध्यम तरीकों पर निर्भर करता है जिस तरह आमिर खान  ने PK में  'अच्छा' शब्द  को कईं तरीकों से बोलकर बताया  और  सभी  का  मतलब  अलग- अलग निकला। जहां सम्प्रेषण का साधन भाषा नही होगी वह शायद झगडे नहीं होंगे जहां आवरण की आवश्यकता  न होगी वहाँ शायद बलात्कार  भी  न होंगे और जहां माध्यम नही वहाँ झूठ  नही लेकिन PK में जैसे ही एलियन आमिर खान धरती पर आये जहां आवरण और माधयम (भाषा) दोनों  की आवश्यकता  थी, फिर वो  अपने दोस्त भैरव की मदद से एक तवायफ खाना जाते हैं और एक महिला के  हाथ पकड़  लेते हैं (उनके पास एक एक जादुई शक्ति थी जिससे वो ऐसा कर पाते थे ) और उसकी सारी भाषायी शक्ति को  अपने अंदर  ले  आते  हैं और  उन्हें  मिल  जाता है सम्प्रेषण  का  माध्यम फिर  वह धरती  पर विचरण  करने लगते  हैं लोगों  की बात समझने समझाने लायक   हो जाते हैं धीरे धीरे  उन्हें सही भाषा  और सही आवरण  का भी पता हो जाता  है वो अपनी व्यथा लेकर लोगों  के बीच  में भटकते फिरते हैं और पूंछते हैं की उनको उनके घर वापस जाने  वाला रिमोट उन्हें  कैसे मिलेगा और जवाब  में मिलता  है (भगवान गॉड, अल्लाह, वाहेगुरु) फिर  क्या वो ऐसा  ही करते हैं कभी भगवान  की पूजा करते हैं कभी चर्च  में नारियल फोड़ते  हैं कभी  मस्जिद  में  शराब चढ़ाते हैं और धर्मांधों से जान बचाते भागते  रहते  हैं  तत्पश्चात एक पत्रकार  की मदद से उनकी आवाज जनता  तक जाती  है और फिल्म चल पड़ती  है ऐसे रास्ते पर जहां  दो तरह  के भगवन बताये गए हैं एक वो जिसने हमें बनाया एक वो जिसे  हम बनाते  हैं सारी धर्मांधताओं से पर यह फिल्म सफल फिल्म है जिसका सीधा और  सटीक सन्देश  यह है की भगवन ने हमें बनाया है और  हमें इंसान  बने रहना चाहिए भगवन बनाकर उनका व्यवसाय नही करना चाहिए।  राजकुमार हिरानी की यह उम्दा कोशिश  थी लेकिन  पुरानी फिल्मों  से कुछ  कम आमिर  का अभिनय  भी अच्छा है- यह  लगभग  दो  बार देखी  जा सकती  है''.
लेखक परिचय

जन्म:  १० जुलाई १९८७ को क़स्बा चंदला, जिला छतरपुर (मध्य प्रदेश) में
शिक्षा: इंजीयरिंग की पढाई  अधूरी
सृजन: 'स्पंदन', कविता_संग्रह '  और अमेरिका के एक प्रकाशन  'पब्लिश अमेरिका' से  प्रकाशित उपन्यास 'वुंडेड मुंबई' जो काफी चर्चित हुआ।
शीघ्र प्रकाश्य: कविता-संग्रह  'रूहानी' और अंग्रेजी में उपन्यास   'नीडलेस नाइट्स'
संप्रति : प्रबंध निदेशक, इन्वेलप  ग्रुप
पता- 54 पर्वती नगर महाबली नगर के पीछे कोलर रोड 'भोपाल'
कांटेक्ट-  07770821118

renaissance.aakkii@gmail.com

Comments

Popular posts from this blog

तो शुरू करें

फिल्म समीक्षा: 3 इडियट

फिल्‍म समीक्षा : आई एम कलाम