दरअसल : उपभोक्‍ता समाज में सितारों की समझदारी

-अजय ब्रह्मात्‍मज
    खरीद और बिक्री के सिद्धांत पर चल रहे उपभोक्‍ता समाज में हर नागरिक ग्राहक बन चुका है। इस ग्राहक को लुभाने की कोशिशें अनवरत चल रही हैं। कभी प्रत्‍यक्ष तो कभी प्रच्‍छन्‍न तौर पर प्रचार का सहारा लिया जाता है। बाजार और उसके पंडितों ने हर मानक और मानदंड का उल्‍लंघन किया है। नैतिकता ताक पर रख दी गई है। फिल्‍मों के सितारे भी इसी समाज के अंग हैं। वे इसी उपभोक्‍ता समाज में जी रहे हैं। उससे प्रभावित हो रहे हैं। हाल ही में इंस्‍टैंट नूडल्‍स की एक कंपनी के विवाद में आने के बाद इसके ब्रांड एंबैसडर बने सितारों को चपेट में लिया गया है। उन पर मुकदमे किए जा रहे हैं। मजेदार तथ्‍य है कि उक्‍त उत्‍पाद के निर्माता को छोड़ दिया जा रहा है। समाज के कथित शुभचिंतकों का गुस्‍सा उन फिल्‍म सितारों पर है,जो जाहिर तौर पर करोड़ों की रकम लेकर इन उत्‍पादों का प्रचार करते हैं। यही गुस्‍सा उन्‍पादकों पर क्‍यों नहीं है ?
    उम्‍मीद है कि हमेशा की तरह इस विवाद से समाज और बाजार में स्‍पष्‍टता आएगी। सवाल उठता है कि किसी भी उत्‍पाद के बाजार में आने के पहले उसकी क्‍वालिटी की जांच के लिए सरकारी एजेंसियां हैं कि नहीं ? अगर हैं तो उत्‍पादों के नियमित जांच की उनकी जिम्‍मेदारी है। फिल्‍म सितारों को इन उत्‍पादों के विज्ञापनों के लिए हायर किया जाता है। उन्‍हें मोटी रकम दी जाती है। एक लोकप्रिय सितारे का तर्क था कि अगर कोई चीज बाजार में बिक रही है तो उसके विज्ञापन में क्‍या दिक्‍कत है ? इसी तर्क से वे सिगरेट और अल्‍कोहल के विज्ञापन को भी उचित मानते हैं और कहते हैं कि अगर पाबंदी न हो तो मुझे उनके प्रचार या एंडोर्समेंट से कोई दिक्‍कत नहीं होगी। बाजार में अल्‍कोहल ब्रांड की कंपनियां सोडा के विज्ञापन के बहाने इन सितारों का उपयोग करती हैं। इन विज्ञापनों के पाठ में ऐसे शब्‍द चुने और रखे जाते हैं,जिन से अल्‍कोहल की कथित खूबी जाहिर होती है। हमें सोचना चाहिए कि क्‍या फिल्‍म सितारों को सेहत के लिए हानिप्रद उन्‍पादों का विज्ञापन करना चाहिए?
        हाल ही में कंगना रनोट गोरे ने बनाने की एक क्रीम के विज्ञापन से मना किया। वह नहीं चाहतीं कि भारतीय समाज में सांवली लड़कियों के बीच वह झूठ का प्रचार करें। उन्‍होंने अपने तर्क दिए हैं। फिर भी हम देखते रहे हैं कि मेल और फीमेल स्‍टार गोरे बनाने की क्रीम के विज्ञापन करते रहते हैं। उनके पास वही घिसा-पिटा तर्क रहता है कि अगर ऐसे उत्‍पाद झूठे और हानिप्रद हैं तो सरकार उनकी बिक्री पर ही क्‍यों नहीं पाबंदी लगा देती? एक मशहूर अल्‍कोहल कंपनी तो इन सितारों को अचीवमेंट अवार्ड देती है। उसे स्‍वीकार करने में इन सितारों को कोई हिचक नहीं होती। एक तरफ ऐसे प्रोडक्‍ट से एसोशिएसन और दूसरी तरफ यूएन के जनहिताय संगठनों से जुड़ने में सितारों को कोई द्वंद्व नहीं होता। मामला सोचनीय है।
    यह स्‍पष्‍ट है कि हमारे फिल्‍म सितारे सचेत और जागरूक नहीं रहते। उन्‍हें किसी भी विज्ञापन और एंडोर्समेंट के लिए पर्याप्‍त शोध करना वाहिए। वे प्रोडक्‍ट कंपनियों पर रहेंगे या डिस्‍क्‍लेमर दे देंगे तो भी उनकी जिम्‍मेदारी कम नहीं होती। भारतीय समाज में फिल्‍मों के सितारों के व्‍यापक प्रभाव है। समाज और सरकार उनकी पहुंच और प्रभाव का सार्थक उपयोग भी करती है। उसके नतीजे भी सामने आए हैं। पोलियो ड्रॉप्‍स और गुजरात के विज्ञापनों में अमिताभ बच्‍चन के प्रभाव से कैसे कोई इंकार कर सकता है। सिर्फ ट्विटर पर ही अमिताभ बच्‍चन के डेढ़ करोड़ से अधिक फॉलोअर्स हैं। उनकी कही बात कई अखबारों और चैनलों के पाठकों और दर्शकों से अधिक फॉलोअर्स तक पहुंचती है। अगर फिल्‍म सितारे चाहें और एकजुट हो जाएं तो समाज के एक तबके की सोच की दिशा बदल सकते हैं।
    अफसोस की बात है कि हमारे फिल्‍म सितारों में सामाजिक समझदारी और राजनीतिक जानकारी नहीं दिखती। वे जरूरी मुद्दों पर भी खामोश रहते हैं। यह सच है कि वे सत्‍ता या सत्‍तारूढ़ पार्टी के विरूद्ध जाने की हिम्‍मत नहीं करते। उन्‍हें ऐसे प्रोडक्‍ट के विज्ञापन में भी हिचक नहीं होती,जो सेहत के लिए हानिप्रद या झूठ पर टिके हैं।

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