फिल्‍म समीक्षा : फ्रीकी अली




स्‍ट्रीट स्‍मार्ट
-अजय ब्रह्मात्‍मज
सोहेल खान की फ्रीकी अली के नायक अली और एक्‍टर नवाजुद्दीन सिद्दीकी की कहानी और चरित्र में समानता है। फिलम का नायक हुनरमंद है। वह छह गेंद पर छह छक्‍के लगा सकता है तो गोल्‍फ में भी बॉल को होल में डाल सकता है। थोड़ी सी ट्रेनिंग के बाद वह गोल्‍फ के चैंपियन के मुकाबले में खड़ा हो जाता है। एक्‍टन नवाजुद्दीन सिद्दीकी हुनरमंद हैं। वे इस फिल्‍म में बतौर हीरो अपने समकालीनों के साथ खड़े हो गए हैं। नवाज ने पहले भी फिल्‍मों में लीड रोल किए हैं,लेकिन वे फिल्‍में मेनस्‍ट्रीम मसाला फिल्‍में नहीं थीं। मेनस्‍ट्रीम की फिल्‍मों में छोटी-मोटी भूमिकाओं से उन्‍होंने पॉपुलर पहचान बना ली है। दर्शक उन्‍हें पसंद करने लगे हैं। लेखक व निर्देश सोहेल खान ने उनकी इस पॉपुलैरिटी का इस्‍तेमाल किया है। उन्‍हें लीड रोल दिया है और साथ में अपने भार्अ अरबाज खान को सपोर्टिंग रोल दिया है। फ्रीकी अली पर अलग से बात की जाए तो यह नवाजुद्दी सिद्दीकी की भी जीत की कहानी है।
स्क्रिप्‍ट की सीमाओं के बावजूद नवाज अपनी प्रतिभा से फिल्‍म को रोचक बनाते हैं। उनकी संवाद अदायगी और आकस्मिक अदा दर्शकों को भाती है। पर्दे पर उनकी आंखों की शरारत रिझाती है। संयोग से पॉपुलर फिल्‍मों में उन्‍हें स्‍ट्रीट स्‍मार्ट किरदार मिलते रहे हैं,जिनमें उनकी ये भंगिमाएं प्रभाव पैदा करती हैं। फ्रीकी अली पूरी तरह से उन पर निर्भर करती है। थोड़ी देर के लिए सीमा विश्‍वास सहयोग देती है। आरिफ बसरा किरदार की सादगी और ईमानदारी की वजह से पसंद आते हैं। बाकी कलाकार भरपाई के लिए हैं। न तो उनके किरदारों पर मेहनत की गई है और न ही उनके भाव और अंदाज पर ध्‍यान दिया गया है। अरबाज खान लंबे अनुभवों के बावजूद नवाज के साथ के दृश्‍यों में घिसटते ही नजर आते हैं। इसका असर नवाज के परफारमेंस पर भी पड़ा है। अगर उन्‍हें सहयोगी कलाकार के रूप में बराबर का जोड़ीदार मिलता तो यह फिल्‍म कुछ और ऊंचाई हासिल करती।
फ्रीकी अली गोल्‍फ की पृष्‍ठभूमि पर है। स्‍ट्रीट स्‍मार्ट लावारिस अली को हिंदू मां ने पाला है। चडढी बेचने से लकर हफ्ता चसूलने तक के छोटे-मोटे धंधों में व्‍यस्‍त अली जब संयोगवश गोल्‍फ खेलने पर आमदा होता है और अपने हुनर से सफल रहता है। ऐसी फिल्‍मों में विजनरी निर्देशक नायक के खेल में पारंगत होने और फिर अंतिम मुकाबले में उसकी कोशिशों और निश्‍चय-अनिश्‍चय के रोमांच से दर्शकों को टस से मस नहीं होने देता। सोहेल खान अली को रच नहीं पाते। सोहेल खान विजनरी डायरेक्‍टर नहीं हैं। उन्‍होंने प्रीक्‍लाइमेक्‍स भी कमजोर रखा है। चूंकि फ्रीकी अली हिंदी फिल्‍मों के स्‍ट्रक्‍चर का पालन करती है,इसलिए उसमें प्रचलित तत्‍व भी मजेदार होने चाहिए थे। क्‍लाइमेक्‍स के पहले की कव्‍वाली और अली की हिंदू मां की भगवान से गुहार शुद्ध पच्‍चीकारी है। अकेले नवाज के प्रयत्‍न और प्रतिभा से फिल्‍म संभल पाती है।
हिंदी फिल्‍मों में इन दिनों स्‍टार अौर फिल्‍मों के रेफरेंस से हंसी पैदा करने का चलन बढ़ा है। इस फिल्‍म में भी आमिर खान,सलमान खान के हवाले से कुछ संवाद रखे गए हैं। एक संवाद तो नवाज की फिल्‍म मांझी से ले ली गई है...घमंड तो हम पहाड़ का तोड़ दें। हंसी तो आती है,लेकिन किरदार फिसल जाता है। फ्रीकी अली में प्रोडक्‍शन की भी कमियां हैं। सेट और कॉस्‍टृयूम में कल्‍पना और बजट की कटौती से फिल्‍म का प्रभाव कम हुआ है।
यह फिल्‍म नवाजुद्दी सिद्दीकी के लिए देखी जा सकती है। लेखक-निर्देशक थोड़ा और यत्‍न-प्रयत्‍न करते तो यह नवाज की उल्‍लेखनीय फिल्‍म होती।
अवधि- 125 मिनट
स्‍टार- तीन स्‍टार

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