सिनेमालोक : महज टूल नहीं होते कलाकार


 सिनेमालोक
महज टूल नहीं होते कलाकार
-अजय ब्रह्मात्मज
पिछले दो हफ्तों में ‘कबीर सिंह’ और ‘आर्टिकल 15 रिलीज हुई हैं. दोनों में दर्शकों की रुचि है. वे देख रहे हैं. दोनों को लेकर अलग-अलग दृष्टिकोण से बहसें चल रही हैं. बहसों का एक सिरा कलाकारों की सामाजिक जिम्मेदारी से जुड़ा है. क्या फिल्मों और किरदारों(खासकर नायक की भूमिका) को चुनते समय कलाकार अपनी जिम्मेदारी समझते हैं.

‘आर्टिकल 15 के संदर्भ में आयुष्मान खुराना ने अपने इंटरव्यू में कहा कि कॉलेज के दिनों में वह नुक्कड़ नाटक किया करते थे. उन नाटकों में सामाजिक मुद्दों की बातें होती थीं. मुद्दों से पुराने साहचर्य के प्रभाव में ही उन्होंने अनुभव सिन्हा की फिल्म ‘आर्टिकल 15 चुनी. कहा यह भी जा रहा है कि अनुभव ने उन्हें पहले एक रोमांटिक कॉमेडी फिल्म ऑफर की थी, लेकिन ‘मुल्क’ से प्रभावित आयुष्मान खुराना ने वैसे ही मुद्दों की फिल्म में रुचि दिखाई.अनुभव ने मौका नहीं छोड़ा और इस तरह ‘आर्टिकल 15 सामने आई. कह सकते हैं कि आयुष्मान खुराना ने अपनी लोकप्रियता का सदुपयोग किया. वह एक ऐसी फिल्म के साथ आए जो भारतीय समाज के कुछ विसंगतियों को रेखांकित करती हैं. उनकी लोकप्रियता और स्वीकृति का लाभ फिल्म को मिला. उसे दर्शक मिले.

आमिर खान फिल्म को मनोरंजन का माध्यम समझते हैं. उनकी फिल्में इसी उद्देश्य से बनती और प्रदर्शित होती हैं. फिर भी हम देखते हैं कि उनकी ज्यादातर फिल्मों में संदेश और कुछ अच्छी बातें रहती हैं. अपने कैरियर के आरंभ में आमिर खान ने भी दूसरे अभिनेताओं की तरह हर प्रकार की फिल्में कीं. उनमें कुछ ऊलजलूल भी रहीं, लेकिन ‘सरफरोश’ के बाद उनका चुनाव बदल गया है. उनकी स्लेट सार्थक फिल्मों से भरी है. उन्होंने एक बातचीत में मुझसे स्पष्ट शब्दों में कहा था कि मैं अपनी लोकप्रियता का उपयोग ऐसी फिल्मों में करना चाहता हूं, जो दर्शकों का मनोरंजन करने के साथ सुकून और शिक्षा भी दें. हमारे होने की वजह से उन फिल्मों में दर्शकों की जिज्ञासा रहती है. वे फ़िल्में देखने आते हैं.

फिल्म कलाकारों में बड़ी जमात ऐसे अभिनेता/अभिनेत्री की है, जिन्हें अपनी जिम्मेदारी का कोई एहसास नहीं है. वे और उनके प्रशंसक समर्थक मानते हैं कि कलाकार दो कलाकार होता है. उसे जो भी किरदार दिया जाता है, वह उसे निभाता है. एक स्तर पर यह तर्क सही है, लेकिन फिल्मों के प्रभाव को देखते हुए किसी भी अभिनेता/अभिनेत्री को यह तो देखना ही चाहिए कि उसकी फिल्म अंतिम प्रभाव में क्या कहती है? फिल्म में उनका किरदार पॉजीटिव या नेगेटिव हो सकता है, लेकिन इन किरदारों को निर्देशक कैसे ट्रीट करता है और फिल्म का क्या निष्कर्ष है? अगर इन बातों पर ध्यान ना दिया जाए तो फिजूल फिल्मों की झड़ी लग जाएगी. घटिया, अश्लील और फूहड़ फिल्मों की संख्या बढ़ती चली जाएगी. फ़िल्में  मनोरंजन और मुनाफा हैं, लेकिन इन उद्देश्यों के लिए उन्हें अनियंत्रित नहीं छोड़ा जा सकता.

‘कबीर सिंह’ सिंह के संदर्भ में शाहिद कपूर के प्रशंसक और समर्थक के साथ कुछ समीक्षक और विश्लेषक भी कहते नजर आ रहे हैं कि हमें शाहिद कपूर की मेहनत और प्रतिभा का कायल होना चाहिए. उनकी तारीफ करनी चाहिए. उन्होंने एक नेगेटिव किरदार को इतने प्रभावशाली ढंग से पेश किया. और फिर उन्होंने निर्देशक की मांग को पूरा किया. एक कलाकार के लिए सबसे जरूरी है कि वह अपने किरदार को सही तरीके से निभा ले जाए, लेकिन यह सोचना जरूरी है कि क्या कलाकार कोई मशीन है? वह मनुष्य है और उसकी अपनी सोच-समझ होनी चाहिए. कलाकार केवल टूल नहीं है कि चाभी देने या ऑन करने मात्र से चालू हो जाए. अपनी समझदारी से वह तय करता है कि कैरियर के लाभ के लिए उसे कौन सी फिल्म चुननी है? खासकर नायक हैं तो इतनी संवेदना तो होनी चाहिए कि  किरदार और फिल्म के प्रभाव को समझ सके.

भारतीय समाज में फिल्म कलाकारों की भूमिका बढ़ गई है, अब वे फिल्मों के अलावा सोशल इवेंट और प्रोडक्ट एंडोर्समेंट भी करते हैं. ज्यादातर कलाकारों को देखा गया है कि वे इवेंट और प्रोडक्ट चुनते समय यह खयाल रखते हैं कि उसका क्या प्रभाव पड़ेगा? किसी इवेंट में जाना या किसी प्रोडक्ट को एंडोर्स करना उनके लिए कितना उचित होगा? इसी आधार पर उनकी राजनीतिक और सामाजिक समझ व्यक्त होती है. मामला सिर्फ फिल्मों के चुनाव का ही नहीं है. पूरी जीवन शैली और उन सभी फैसलों का भी है, जिनका असर सार्वजनिक जीवन पर पड़ता है. कोई भी कलाकार सिर्फ यह कहने से नहीं छूट या बच सकता कि हमें निर्देशक जो भी कहते हैं, हम कर देते हैं.


Comments

Ashwani Singh said…
सही बात . सहमत हूँ।

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