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इंसानी दिमाग का अंधेरा लुभाता है मुझे: विशाल भारद्वाज

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मकडी से कमीने तक के सफर में ही विशाल भारद्वाज ने अपना खास परिचय दे दिया है। उनकी फिल्मों की कथा-भूमि भारतीय है। संगीत निर्देशन से उनका फिल्मी करियर आरंभ हुआ, लेकिन जल्दी ही उन्होंने निर्देशन की कमान संभाली और कामयाब रहे। उनकी फिल्में थोडी डार्क और रियल होती हैं। चलिए जानते हैं उनसे ही इस फिल्मी सफर के बारे में। डायरेक्टर बनने की ख्वाहिश कैसे पैदा हुई? फिल्म इंडस्ट्री में स्पॉट ब्वॉय से लेकर प्रोड्यूसर तक के मन में डायरेक्टर बनने की ख्वाहिश रहती है। हिंदुस्तान में फिल्म और क्रिकेट दो ऐसी चीजें हैं, जिनके बारे में हर किसी को लगता है कि उससे बेहतर कोई नहीं जानता। सचिन को ऐसा शॉट खेलना चाहिए और डायरेक्टर को ऐसे शॉट लेना चाहिए। हर एक के पास कहानी है। रही मेरी बात तो संगीतकार के तौर पर जगह बनाने के बाद मैं फिल्मों की स्क्रिप्ट पर डायरेक्टर से बातें करने लगा था। स्क्रिप्ट समझने के बाद ही आप बेहतर संगीत दे सकते हैं। बैठकों से मुझे लगा कि जिस तरह का काम ये कर रहे हैं, उससे बेहतर मैं कर सकता हूं। इसी दरम्यान संगीत के लिए फिल्में मिलनी कम हुई तो लगा कि इस रफ्तार से तो दो सालों बाद काम ही नहीं रहे

संजय लीला भंसाली की सपनीली दुनिया

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-अजय ब्रह्मात्‍मज संजय लीला भंसाली की फिल्म गुजारिश के टीवी प्रोमो आकर्षित कर रहे हैं। इस आकर्षण के बावजूद समझ में नहीं आ रहा है कि फिल्म में हम क्या देखेंगे? मुझे संजय लीला भंसाली की फिल्में भव्य सिनेमाई अनुभव देती हैं। मैं उनके कथ्य से सहमत नहीं होने पर भी उनके सौंदर्यबोध और क्रिएशन का कायल हूं। यथार्थ से दूर सपनीली रंगीन दुनिया की विशालता दर्शकों को मोहित करती है। हम दिल दे चुके सनम और देवदास में उनकी कल्पना का उत्कर्ष दिखा है। गुजारिश एक अलग संसार में ले जाने की कोशिश लगती है। फिल्म का नायक पैराप्लैजिया बीमारी से ग्रस्त होने के कारण ह्वील चेयर से बंध गया है। संभवत: वह अतीत की यादों और अपनी लाचारगी के बावजूद ख्वाबों की दुनिया में विचरण करता है। संजय की पिछली फिल्म सांवरिया भी एक काल्पनिक सपनीली दुनिया में ले गई थी, जिसका वास्तविक दुनिया से कोई संबंध नहीं था। इस बार एक अलग रंग है, लेकिन कल्पना कुछ वैसी ही इस दुनिया से अलग और काल्पनिक है। संजय लीला भंसाली के किरदार आलीशान घरों में रहते हैं। उनके आगे-पीछे विस्तृत खाली स्थान होते हैं, जिनमें सपनीली और सिंबोलिक सामग्रियां सजी रहत

आखिरी दो महीने में रेगुलर मनोरंजन

-अजय ब्रह्मात्‍मज इस दीपावली पर हंसी के दो पटाखे छूटेंगे। पिछले तीन सालों से हर दीपावली में कामयाबी की रोशनी में नहा रहे रोहित शेट्टी और अजय देवगन की गोलमाल-3 पांच नवंबर को आएगी। इस दीपावली पर विपुल शाह भी अक्षय कुमार और ऐश्वर्या राय के साथ इसमें शरीक हो रहे हैं। दोनों ही फिल्में कॉमेडी हैं। गोलमाल तो पहले से ही मनोरंजक ब्रांड बन चुका है। विपुल शाह एक्शन रिप्ले में आठवें दशक के लटके-झटके लेकर आएंगे। राजेश खन्ना और सुनील दत्त की याद दिलाएगी उनकी फिल्म। वैसे विपुल की फिल्मों में संदेश का पुट रहता है। देखना होगा कि एक्शन रिप्ले में वे किस इमोशन पर जोर डाल रहे हैं। संजय लीला भंसाली की गुजारिश का इंतजार है। उनकी पिछली फिल्म सांवरिया भले ही बॉक्स ऑफिस पर पिट गई हो, लेकिन उनकी फिल्मों की पोएट्री और लय आकर्षित करती है। इस बार उन्होंने ऐश्वर्या राय के साथ रितिक रोशन को चुना है। हमने रितिक और ऐश्वर्या को इसके पहले धूम-2 और जोधा अकबर में देखा है। उनकी जोड़ी का तीसरा अंदाज गुजारिश में दिखेगा। सिलेटी रंग में लहराती और खिलखिलाती छवियों की मधुर लय अच्छी लग रही है। संजय की कल्पना और रितिक की मेहनत अवश

अमिताभ बच्‍चन : हो जाए डबल आपकी खुशी -सौम्‍या अपराजिता /अजय ब्रह्मात्‍मज

कल 11 अक्टूबर को अमिताभ बच्चन का 68वां जन्मदिन है और कल ही शुरू हो रहा है 'कौन बनेगा करोड़पति' का चौथा संस्करण। इस अवसर पर उनसे एक विशेष साक्षात्कार के अंश.. [कल आपका जन्मदिन है। प्रशंसकों को क्या रिटर्न गिफ्ट दे रहे हैं?] उम्मीद करता हूं कि मेरा जन्मदिन मेरे चाहने वालों के लिए खुशियों की डबल डुबकी हो। जन्मदिन तो आते रहते हैं, पर इस बार कौन बनेगा करोड़पति मेरे जन्मदिन पर शुरू हो रहा है, यह मेरे लिए बड़े सौभाग्य की बात है। अभी तक मैंने जितने भी एपिसोड की शूटिंग की है, उसमें ज्यादातर प्रतियोगी छोटे शहरों और गांवों के लोग हैं। इंटरनेट और कंप्यूटराइजेशन की वजह से उनके पास भी बहुत सारा ज्ञान है। वे सब जानते हैं, पर धनराशि के अभाव में वे प्राइमरी एजुकेशन के बाद ज्यादा नहीं पढ़ पाते हैं। कई ऐसे प्रतियोगी केबीसी में आए हैं, जिन्होंने मुझे बताया कि मेरे पास पचास हजार रुपए नहीं थे, इसलिए मैं एमबीए नहीं कर पाया। सिविल सर्विसेज की तैयारी करनी थी, पर पैसे नहीं थे, तो आम लोगों के लिए यह एक अच्छा अवसर है। अभी कौन बनेगा करोड़पति शुरू होगा उसके बाद फिल्में होगी, जो अगले साल प्रदर्शित होंगी। राज

लाइट और ग्रीन रूम की खुशबू खींचती थी मुझे: संजय लीला भंसाली

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खूबसूरत सोच और छवियों के निर्देशक संजय लीला भंसाली की शैली में गुरुदत्त और बिमल राय की शैलियों का प्रभाव और मिश्रण है। हिंदी फिल्मों के कथ्य और प्रस्तुति में आ रहे बदलाव के दौर में भी संजय पारंपरिक नैरेटिव का सुंदर व परफेक्ट इस्तेमाल करते हैं। उनकी फिल्मों में उदात्तता, भव्यता, सुंदरता दिखती है। उनके किरदार वास्तविक नहीं लगते, लेकिन मन मोहते हैं। उनकी अगली फिल्म गुजारिश जल्द ही रिलीज होगी। उसमें रितिक रोशन व ऐश्वर्या राय प्रमुख भूमिकाओं में हैं। आज के संजय लीला भंसाली को सभी जानते हैं। हम उन्हें यादों की गलियों में अपने साथ उनकी पहली फिल्म खामोशी से भी पहले के सफर पर ले गए। बचपन कहां बीता? कहां पले-बढे? बचपन मुंबई में ही बीता। सी पी टैंक, भुलेश्वर के पास रहते थे। किस ढंग का इलाका था? मम्मी-डैडी के अलावा मैं, बहन व दादी थे। वार्म एरिया था। चॉल लाइफ थी, लेकिन अच्छी थी। आजकल हम जहां रहते हैं, वहां नीचे कौन रहता है इसका भी पता नहीं होता। वहां पूरे मोहल्ले में, रास्ते में, गली में सब एक-दूसरे को जानते थे। स्कूलिंग कैसी हुई? अंग्रेजी माध्यम, हिंदी

फिल्‍म समीक्षा लफंगे परिंदे

गढ़ी प्रेमकहानी -अजय ब्रह्मात्‍मज एक नंदू है और एक पिंकी। दोनों मुंबई की एक ही वाड़ी में रहते हैं। निम्न मध्यवर्गीय परिवार की इस वाड़ी में पिंकी का परिवार तो दिखता है, लेकिन नंदू के परिवार का कोई सदस्य नहीं दिखता। उसके तीन और लफंगे दोस्त हैं। बॉक्सिंग का शौकीन नंदू वन शॉट नंदू के नाम से मशहूर हो जाता है। दूसरी तरफ पिंकी स्केटिंग डांस के जरिए इस वाड़ी से निकलने का सपना देखती है। इन दोनों के बीच उस्मान भाई आ जाते हैं। अनचाहे ही उनकी करतूत से दोनों की जिंदगी प्रभावित होती है। और फिर एक प्रेमकहानी गढ़ी जाती है। परिणीता के निर्देशक प्रदीप सरकार की लफंगे परिंदे लुक और अप्रोच में मॉडर्न होने के बावजूद प्रभावित नहीं कर पाती। लफंगे परिंदे के किरदार, लैंग्वेज, पहनावे और माहौल में मुंबई की स्लम लाइफ दिखाने में लेखक-निर्देशक असफल रहे हैं, क्योंकि सोच और दृष्टि का आभिजात्य हावी रहा है। फिल्म की जमीन स्लम की है, लेकिन उसकी प्रस्तुति यशराज की किसी और फिल्म से कम चमकीली नहीं है। फिल्म के नायक-नायिका अपने मैनरिज्म और लैंग्वेज में निरंतरता नहीं रख पाए हैं। कभी भाषा सुसंस्कृत हो जाती

दरअसल : हिंदी सिनेमा में आम आदमी

-अजय ब्रह्मात्‍मज जिस देश में 77 प्रतिशत नागरिकों की रोजाना आमदनी 20 रुपए से कम हो, उस देश का सिनेमा निश्चित ही बाकी 23 प्रतिशत लोग ही देखते होंगे। 20 रुपए की आमदनी में परिवार चलाने वाले चोरी-छिपे कहीं टीवी या मेले में कोई फिल्म देख लें, तो देख लें। उनके लिए तो भजन-कीर्तन, माता जी का जागरण, मजारों पर होने वाली कव्वाली या फिर गांव में थके-हारे समूह के लोकगीत ही मनोरंजन का साधन बनते हैं। शहरों में सर्विस सेक्टर से जुड़े श्रमिकों की रिहाइश पर जाकर देखें, तो 14 इंच के टीवी के सामने मधुमक्खियों की तरह आंखें डोलती रहती हैं। कभी मूड बना, तो किसी वीडियो पार्लर में घुस गए और कोई नई फिल्म देख आए। मालूम नहीं, देश के आम आदमी का कितना प्रतिशत हिस्सा हमारे सुपर स्टारों को जानता है। निर्माता-निर्देशक-लेखकों को भी फुरसत नहीं है कि वे 77 प्रतिशत की जिंदगी में झांकेंऔर उनके सपनों, संघर्ष और द्वंद्व की कहानी लिखें या बताएं। इस पृष्ठभूमि के बावजूद फिल्मों में आम आदमी आता रहता है। हाल ही में खट्टा मीठा में अक्षय कुमार ने आम आदमी की तकलीफों की एक झलक दी थी। इस फिल्मी झलक में पीड़ा से अधिक हंसी थी। एक आम आदम

फिल्‍म समीक्षा : पीपली लाइव

- अजय ब्रह्मात्‍मज अनुषा रिजवी की जिद्दी धुन और आमिर खान की साहसी संगत से पीपली लाइव साकार हुई है। दोनों बधाई के पात्र हैं। हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के तौर-तरीके से अपरिचित अनुषा और फिल्म इंडस्ट्री के उतने ही सधे जानकार आमिर... दोनों के परस्पर विश्वास से बगैर किसी दावे की बनी ईमानदार पीपली लाइव शुद्ध मनोरंजक फिल्म है। अब यह हमारी संवेदना पर निर्भर करता है किहम फिल्म में कितना गहरे उतरते हैं और कथा-उपकथा की कितनी परतों को परख पाते हैं। अगर हिंदी फिल्मों के फार्मूले ने मानसिक तौर पर कुंद कर दिया है तो भी पीपली लाइव निराश नहीं करती। हिंदी फिल्मों के प्रचलित फार्मूले , ढांचों और खांकों का पालन नहीं करने पर भी यह फिल्म हिंदी समाज के मनोरंजक प्रतिमानों को समाहित कर बांधती है। ऊपरी तौर पर यह आत्महत्या की स्थिति में पहुंचे नत्था की कहानी है , जो एक अनमने फैसले से खबरों के केंद्र में आ गया है। फिल्म में टिड्डों की तरह खबरों की फसल चुगने को आतुर मीडिया की आक्रामकता हमें बाजार में आगे रहने के लिए आवश्यक तात्कालिकता के बारे में सचेत करती है। पीपली लाइव मीडिया , पालिटिक्स , महानगर और प्रशासन को नि

फिल्‍म समीक्षा :आयशा

-अजय ब्रह्मात्‍मज सोनम कपूर सुंदर हैं और स्टाइलिश परिधानों में वह निखर जाती हैं। समकालीन अभिनेत्रियों में वह अधिक संवरी नजर आती हैं। उनके इस कौशल का राजश्री ओझा ने आयशा में समुचित उपयोग किया है। आयशा इस दौर की एक कैरेक्टर है, जिसकी बनावट से अधिक सजावट पर ध्यान दिया गया है। हम एक ऐसे उपभोक्ता समाज में जी रहे हैं, जहां साधन और उपकरण से अधिक महत्वपूर्ण उनके ब्रांड हो गए हैं। आयशा में एक मशहूर सौंदर्य प्रसाधन कंपनी का अश्लील प्रदर्शन किया गया है। कई दृश्यों में ऐसा लगता है कि सिर्फ प्रोडक्ट का नाम दिखाने केउद्देश्य से कैमरा चल रहा है। इस फिल्म का नाम आयशा की जगह वह ब्रांड होता तो शायद सोनम कपूर की प्रतिभा नजर आती। अभी तो ब्रांड, फैशन और स्टाइल ही दिख रहा है। जेन आस्टिन ने 200 साल पहले एमा की कल्पना की थी। राजश्री ओझा और देविका भगत ने उसे 2010 की दिल्ली में स्थापित किया है। जरूरत के हिसाब से मूल कृति की उपकथाएं छोड़ दी गई हैं और किरदारों को दिल्ली का रंग दिया गया है। देश के दर्शकों को आयशा देख कर पता चलेगा कि महानगरों में लड़कियों और लड़कों का ऐसा झुंड रहता है, जो सिर्फ शादी, डे

दरअसल : इंडियन ओशन का संगीत

-अजय ब्रह्मात्‍मज आमिर खान की अनुषा रिजवी निर्देशित पीपली लाइव में एक गीत है जिंदगी से डरते हो..। यह गीत अभी उतना पॉपुलर नहीं हुआ है, लेकिन नून मीम राशिद के बोलों को ध्यान से सुनें, तो इस गाने में जिंदगी की चुनौतियों का सामना करने और उनसे जूझने का जोश और आह्वान स्पष्ट रूप से है। इसे इंडियन ओशन के अशीम चक्रवर्ती ने गाया है। कहते हैं यह उनका गाया आखिरी गीत है। अशीम अब इस दुनिया में नहीं हैं। इडियन ओशन में मुख्य रूप से उनकी आवाज ही गूंजती थी। इंडियन ओशन देश के मशहूर फ्यूजन बैंड का नाम है। फिल्मों में उन्होंने ब्लैक फ्राइडे में संगीत दिया था। उसका एक गीत रुक जा.. काफी पॉपुलर हुआ था। भारत में फ्यूजन बैंड और संगीत मंडलियों की अधिक लोकप्रियता नहीं है। हालांकि पिछले डेढ़-दो दशकों में कई बैंड और मंडलियां आई, लेकिन दो-चार गानों की लोकप्रियता के बाद गुमनाम हो गई। विदेशी तर्ज और हिंदी फिल्मों के पुराने गानों को नए तरीके से पेश कर उन्हें तात्कालिक पहचान तो मिली, पर उनमें मौलिकता और भारतीयता की कमी रही। इस लिहाज से इंडियन ओशन के गीत-संगीत में एक निरंतरता है। यह कभी बहुत ज्यादा पॉपुलर नहीं रहा, लेकिन

दरअसल : स्टारहीन फिल्में भी देखते हैं दर्शक

-अजय ब्रह्मात्‍मज पहले लव सेक्स और धोखा, फिर उड़ान और जल्दी ही पीपली लाइव आएगी। तीनों फिल्मों में कुछ जबरदस्त समानताएं देखी जा सकती हैं। इनमें से किसी भी फिल्म में कोई परिचित और पॉपुलर स्टार नहीं है और न ही इनमें हिंदी फिल्मों की प्रचलित चमक-दमक है। दिबाकर बनर्जी की फिल्म लव सेक्स और धोखा के कलाकारों के नाम अब शायद ही याद हों, लेकिन उस फिल्म के किरदारों को हम नहीं भूल सकते। इसी प्रकार उड़ान के बाल और किशोर कलाकारों का नाम फिल्म की रिलीज के पहले कोई नहीं जानता था। यह मुमकिन है कि कुछ महीनों बाद हम उनके नाम फिर भूल जाएं, लेकिन रोहन और अर्जुन को हम नहीं भुला सकते। आमिर खान के होम प्रोडक्शन की फिल्म पीपली लाइव की भी यही विशेषता है। इस फिल्म के कलाकारों में मात्र रघुवीर यादव को हम थोड़ा-बहुत जानते हैं। उनके अलावा कोई भी कलाकार हिंदी फिल्मों के आम दर्शकों से पूर्व परिचित नहीं है। तीनों स्टारहीन फिल्मों की खासियत है कि इनके विषय स्ट्रांग हैं और सारे कैरेक्टर अच्छी तरह गढ़े गए हैं। इनमें दर्शकों को रिझाने के लिए किसी भी फॉर्मूले का इस्तेमाल नहीं किया गया है। लव सेक्स और धोखा नुकसान में नहीं रह

फिल्‍म समीक्षा उड़ान

-अजय ब्रह्मात्‍मज बहुत मुश्किल है छोटी और सीधी बात को प्रभावशाली तरीके से कह पाना। खास कर फिल्म माध्यम में इन दिनों मनोरंजन और ड्रामा पर इतना ज्यादा जोर दिया जा रहा है कि दर्शक को भी फास्ट पेस की ड्रामैटिक फिल्में ही अधिक पसंद आती हैं। फिर भी लेखक और निर्देशक का विश्वास हो और उन्हें कलाकारों की मदद मिल जाए तो यह मुश्किल काम आसान हो सकता है। उड़ान की यही उपलब्धि है कि वह पिता-पुत्र संबंध और पीढि़यों के अंतराल को सहज एवं हृदयस्पर्शी तरीके से कहती है। उड़ान अनुराग कश्यप और विक्रमादित्य मोटवाणी के सृजनात्मक सहयोग का सुंदर परिणाम है। शिमला के एक स्कूल के कुछ दृश्यों के बाद फिल्म सीधे झारखंड के जमशेदपुर पहुंच जाती है। वहां हम भैरव सिंह के परिवार में फिल्म के किशोर नायक रोहन के साथ आते हैं। रोहन और उसके तीन साथियों को पोर्न फिल्म देखने के अपराध में स्कूल से निकाला जा चुका है। पिता भैरव सिंह की उम्मीदें बिखर चुकी हैं। वे चाहते हैं कि रोहन इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी कर उनकी फैक्ट्री में हाथ बंटाए। उधर रोहन लेखक बनना चाहता है। वह कविता और कहानियां लिखना चाहता है। बेमन से की गई

दरअसल :घनघोर प्रचार के बावजूद

-अजय ब्रह्मात्‍मज फिल्म रामगोपाल वर्मा की आग के फ्लॉप होने की पुष्टि के बाद भी राम गोपाल वर्मा यह मानने को तैयार नहीं थे कि दर्शकों को उनकी फिल्म बुरी लगी। उनका तर्क था कि अच्छी या बुरी लगने का सवाल तो फिल्म देखने के बाद आता है। मेरी फिल्म दर्शकों ने देखी ही नहीं, तो फिर उसे बुरी कैसे कहा जा सकता है? अपनी फिल्म के प्रति लगाव की वजह से ज्यादातर फिल्मकार ऐसे ही तर्क देते हैं। फिर भी सच है कि कुछ फिल्में रिलीज के पहले ही दर्शक खो देती हैं। उन्हें देखने दर्शक सिनेमाघरों में नहीं जाते। उनका मौखिक प्रचार नहीं होता। सिनेमाघरों से आरंभिक शो देख कर निकले दर्शकों की प्रतिक्रियाएं और पत्र-पत्रिकाओं में आए रिव्यू भी ऐसी फिल्में नहीं देखने के लिए दर्शकों को प्रेरित करते हैं। पिछले महीने में आई दो बड़ी फिल्मों काइट्स और रावण के प्रति दर्शकों के रवैये से इसे समझा जा सकता है। दोनों ही फिल्में स्टार कास्ट, डायरेक्टर और प्रोडक्शन हाउस की वजह से ए प्लस श्रेणी की थीं। दोनों फिल्मों का जमकर प्रचार किया गया। दर्शकों को लुभाने की हर कोशिश की गई। तमाम प्रचार के बावजूद काइट्स को आरंभिक शो में पर्याप्त दर्शक नह

फिल्‍म समीक्षा आई हेट लव स्‍टोरीज

बालिवुद का रोमांस -अजय ब्रह्मात्‍मज चौंकिए नहीं, जब करण जौहर और उनके कैंप के डायरेक्टर हिंदी फिल्मों के बारे में अंग्रेजी में सोचना शुरू करते हैं और फिर उसे फायनली हिंदी में लाते हैं तो बालीवुड के अक्षर बदल कर बालिवुद हो जाते हैं। इस फिल्म के एक किरदार के टी शर्ट पर बालिवुद लिखा साफ दिखता है। बहरहाल, आई हेट लव स्टोरीज मेनस्ट्रीम हिंदी सिनेमा के लव और रोमांस की कैंडीलास फिल्मों के मजाक से आरंभ होती है और फिर उसी ढर्रे पर चली जाती है। जैसे कि कोई बीसियों बार सुने-सुनाए लतीफे को यह कहते हुए सुनाए कि आप तो पहले सुन चुके होंगे, फिर भी..और हम-आप हो..हो..कर हंसने लगें। वैसे ही यह फिल्म अच्छी लग सकती है। पुनीत मल्होत्रा चालाक निर्देशक हैं। उन्होंने हिंदी फिल्मों की लव स्टोरी का मखौल उड़ाते हुए फिर से घिसी-पिटी लव स्टोरी बना दी है। इस आसान रास्ते के बावजूद फिल्म बांधे रखती है, क्योंकि सोनम कपूर और इमरान खान के लब एडवेंचर का आकर्षण बना रहता है। दोनों को पहली बार एक साथ नोंक-झोंक करते और एक-दूसरे पर न्योछावर होते देख कर अच्छा लगता है। दोनों में भरपूर एनर्जी है। लेखक-निर्देशक ने हीरो-ही

मनोज बाजपेयी और अनुराग कश्‍यप का साथ आना

-अजय ब्रह्मात्‍मज एक अर्से बाद.., या कह लें कि लगभग एक दशक बाद दो दोस्त फिर से साथ काम करने के मूड में हैं। मनोज बाजपेयी और अनुराग कश्यप साथ आ रहे हैं। उनकी मित्रता बहुत पुरानी है। फिल्म इंडस्ट्री में आने के पहले की दोनों की मुलाकातें हैं और फिर एक सी स्थिति और मंशा की वजह से दोनों मुंबई आने पर हमसफर और हमराज बने। अनुराग कश्यप शुरू से तैश में रहते हैं। नाइंसाफी के खिलाफ गुस्सा उनके मिजाज में है। छोटी उम्र में ही जिंदगी की कड़वी सच्चाइयों ने उन्हें इस कदर हकीकत से रूबरू करवा दिया कि वे अपनी सोच और फैसलों में आक्रामक होते चले गए। बेचैनी उन्हें हर कदम पर धकेलती रही और वे आगे बढ़ते गए। तब किसी ने नहीं सोचा था कि उत्तर भारत से आया यह आगबबूला अपने अंदर कोमल भावनाओं का समंदर लिए अभिव्यक्ति के लिए मचल रहा है। वक्त आया। फिल्में चर्चित हुई और आज अनुराग कश्यप की खास पहचान है। कई मायने में वे पायनियर हो गए हैं। इस पर कुछ व्यक्तियों को अचंभा हो सकता है, क्योंकि हम फिल्म इंडस्ट्री को सिर्फ चमकते सितारों के संदर्भ में ही देखते हैं। हमारी इसी सीमित और भ्रमित सोच का एक दुष्परिणाम यह भी है कि फिल्मों की