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सांवरिया समारोह:ऋषि की दारु ,अनिल का ठुमका

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शनिवार,१५ सितंबर की रात यादगार रहेगी.चवन्नी दिल्ली में था.वहाँ पता चला कि शनिवार को सांवरिया का म्यूजिक रिलीज समारोह है. वह भाग कर मुंबई पहुचा.समारोह का समय आठ बजे बताया गया था.रात दस बजे तक सुगबुगाहट नहीं दिखी तो चवन्नी चिंतित हो गया.उसने देर होने की वजह मालूम कि तो पता चला कि कृष्णा जी देर से आ पाएंगी.अब आप यह न पूछ बैठना कि कृष्णा जी कौन हैं?कृष्णा जी राज कपूर की पत्नी और सांवरिया से लांच हो रहे हीरो रणवीर कपूर की दादी हुईं. हिंदी फिल्मों के निर्माण में म्यूजिक रिलीज का खास महत्व होता है.मुहूर्त के बाद यह ऐसा मौका होता है,जब फिल्म के सारे लोग एकत्रित होते हैं.आम दर्शकों को फिल्म की पहली झलक गानों से ही मिलती है.वैसे भी हिंदी फिल्मों में संगीत का हमेशा खास स्थान रहा है.इन दिनों तो फिल्म के प्रचार के लिए अलग से गाने शूट किये जाते हैं और उन्हें फिल्म के अंत या शुरू में दिखाया जता है.उसके पहले उनका उपयोग फिल्म के टीवी विज्ञापन में किया जाता है.सांवरिया संजय लीला भंसाली की फिल्म है.इस बार वे ऋषि कपूर के बेटे रणवीर कपूर और अनिल कपूर की बेटी सोनम कपूर के साथ रोमांटिक फिल्म बना रहे हैं.रणवी

नन्हे जैसलमेर- विश्वास, कल्पना और हकीकत का तानाबाना

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-अजय ब्रह्मात्मज विश्वास , कल्पना और हकीकत के तानेबाने से सजी समीर कर्णिक की नन्हे जैसलमेर नाम और पोस्टर से बच्चों की फिल्म लगती है। इसमें एक दस साल का बच्चा है जो जैसलमेर में रहता है। छोटी उम्र से ही पारिवारिक जिम्मेदारियां निभा रहा नन्हे काफी तेज-तर्रार और होशियार है। वह चार भाषाएं जानता है और जैसलमेर घूमने आए पर्यटकों को आसानी से खुश कर लेता है। समीर कर्णिक ने इस बार बिल्कुल अलग भावभूमि चुनी है और अपनी बात कहने में सफल रहे हैं। उन्होंने नन्हे को लेकर एक फंतासी कथा बुनी है। इस कथा में उन्होंने एक बच्चे के मनोविज्ञान को समझते हुए रोचक तरीके से संदेश भी दिया है। नन्हे जैसलमेर बहुत छोटा था तो फिल्म स्टार बॉबी देओल ने अपनी जैसलमेर यात्रा में उसे संयोग से गोद में उठा लिया था। थोड़ा बड़ा होने पर नन्हे यह मान बैठता है कि बॉबी उसका दोस्त है। नन्हे का लॉजिक है कि बॉबी ने तमाम बच्चों के बीच से उसे ही क्यों उठाया? वह बॉबी को पत्र लिखता रहता है और अपने परिवार की ताजा जानकारियां भेजता रहता है। उसके कमरे में बॉबी की अनगिनत तस्वीरें लगी हैं। उसकी मां और बहन भी बॉबी के प्रति उसके इस लगाव से परेशान ह

मुसलमान हीरो

पहले 'चक दे इंडिया' और फिर 'धोखा'... अ।गे-पीछे अ।ई इन दोनों फिल्मों के नायक मुसलमान हैं. और ये दोनों ही नायक हिंदी फिल्मों में सामान्य तौर पर अ।ए मुसलमान किरदारों या नायकों की तरह नहीं हैं. पहली बार हम उन्हें अ।सप।स के वास्तविक मुसलमान दोस्तों की तरह देखते हैं. याद करें तो हिंदी फिल्मों में मुसलमान किरदारों को त्याग की मूर्ति के रूप में दिखाने की परंपरा रही है. नायक का यह नेकदिल मुसलमान दोस्त दर्शकों का प्यारा रहा है, लेकिन निर्माता-निर्देशकों के लिए वह एक फार्मूला रहा है. फिर मणि रत्नम की 'रोजा' अ।ई. हालांकि काश्मीर की पृष्ठभमि में उन्होंने अ।तंकवादी मुसलमानों का चित्रण किया था, लेकिन 'रोजा'के बाद की फिल्मों में मुसलमान किरदार मुख्य रूप से पठानी सूट पहने हाथों में एके-47 लिए नजर अ।ने लगे. 'गर्म हवा', 'सरफरोश', 'पिंजर' अ।दि ऐसी फिल्में हैं, जिन में मुसलमान किरदारों को रियल परिप्रेक्ष्य में दिखाया गया. उन्हेंइन फिल्मों में किसी खास चश्मे से देखने या सांचे में ढ़ालने के बजाए वास्तविक रूप में चित्रित किया गया. हिंदी फिल

इंस्टैंट खुशी का धमाल

- अजय ब्रह्मात्मज यह ऐसी फिल्म है जिसके पोस्टर और परदे से हीरोइन नदारद है। इंद्र कुमार ने एक प्रयोग तो कर लिया। हो सकता है सिर्फ हीरोइनों के नाम पर फिल्म देखने वाले दर्शक निराश हों। धमाल चार बेवकूफ किस्म के लड़कों की कहानी है जो जल्द से जल्द अमीर बनना चाहते हैं। उनकी बेवकूफियों के चलते हाथ आया हर काम बिगड़ जाता है। उन्हें अचानक एक ऐसा व्यक्ति मिलता है जो मरते-मरते दस करोड़ रुपयों का सुराग बता जाता है। संयोग से उसी व्यक्ति के पीछे इंस्पेक्टर कबीर नाइक भी लगा हुआ है। काफी देर तक इनकी लुका छिपी चलती है। 10 करोड़ हासिल करने के चक्कर में वो एक-दूसरे को धोखा देने से बाज नहीं आते। आखिरकार रुपये हासिल करने में कामयाब होते हैं और पैसे आपस में बांट लेते हैं। तभी वो लाइमलाइट में आते हैं और घोषणा होती है कि एक चैरिटी संस्था में रकम देने आये हैं। उन पर भी नेकनीयती हावी होती है और वे बगैर मेहनत से अर्जित धन को दान कर संतुष्ट हो जाते हैं। इंद्र कुमार की यह फिल्म चुटकुलों, हास्यपूर्ण परिस्थितियों और किरदारों की बेवकूफियों के कारण हंसाती है। थोड़ी देर के बाद आप तैयार हो जाते हैं कि उन चारों को कोई न को

साधारण फिल्मों की फेहरिस्त में डार्लिग

-अजय ब्रह्मात्मज राम गोपाल वर्मा की डार्लिग उन दर्शकों के लिए सबक है जो विवाहेतर रिश्तों में फंसे हैं। आपकी प्रेमिका भूत बनकर भी आपका पीछा कर सकती है। सो, बेहतर है कि अभी से संभल जाएं। बीवी और वो के साथ डबल शिफ्ट कर रहे आदित्य सोमण (फरदीन खान) को लगता है कि वह डबल मजे ले रहा है। एक दिन अचानक पता लगता है कि वो गर्भवती हो गई है। उनमें हाथापाई होती है और वो को ऐसी चोट लगती है कि वह मर जाती है। किस्सा यहीं से शुरू होता है। वो यानी कि गीता मेनन (एषा देओल) बदले की भावना से आदित्य की जिंदगी और घर में प्रवेश करती है। भेद खुलने तक स्थितियां काफी उलझ चुकी होती हैं। बीवी अश्विनी की मौत हो जाती है। गीता की भटकती आत्मा अपने प्रेमी आदित्य के साथ रहने के लिए अश्विनी (ईशा कोप्पिकर) के शरीर में प्रवेश कर जाती है। वहम, अंधविश्वास और अतार्किक घटनाओं की यह कहानी किसी भी स्तर पर नहीं छूती। राम गोपाल वर्मा की कमजोर और साधारण फिल्मों की फेहरिस्त में डार्लिग भी शामिल की जाएगी। सोच के स्तर पर इस दिवालियापन को लेकर क्या कहें?

अपना आसमान के बहाने यथार्थ का धरातल

-अजय ब्रह्मात्मज कौशिक राय ने विशेष किस्म के बच्चों और उनके माता-पिता के रिश्तों को लेकर अत्यंत संवेदनशील फिल्म बनाई है। ऐसे विषयों पर कम फिल्में बनी हैं। सुना है कि आमिर खान की फिल्म तारे जमीं पर की भावभूमि भी यही है। वहां किरदार और रिश्ते अलग हैं। मध्यवर्गीय परिवार के रवि (इरफान खान) और पद्मिनी (शोभना) के खुशहाल परिवार में बुद्धि (ध्रुव पियूष पंजनानी) के आने से नई खुशी आती है। एक दिन बुद्धि रवि के हाथों से गिर जाता है। बुद्धि के थोड़ा बड़ा होने पर रवि और पद्मिनी पाते हैं कि उनका बेटा अन्य बच्चों की तरह सामान्य नहीं है। वह ठीक से बोल नहीं पाता। कुछ भी सीखने में ज्यादा समय लेता है। वे उसे सामान्य रूप में देखने के लिए हर कोशिश करते हैं। डाक्टर से लेकर चमत्कार तक आजमाते हैं। एक चमत्कारी दवा से बुद्धि तेज दिमाग का लड़का बन जाता है लेकिन उसके बाद दूसरी परेशानियां आरंभ होती हैं, जो माता-पिता के साथ ही बुद्धि को भी भावनात्मक रूप से झकझोर देती हैं। अपना आसमान का स्पष्ट मैसेज है कि अपने विशेष बच्चे की विशेषताओं को समझें और उसे उसी रूप में स्वीकार करें। उन्हें दया या सहानुभूति से अधिक प्यार और

हारे (सितारे) को हरिनाम

कोई कहीं भी आए.जाए... चवन्नी को क्या फर्क पड़ता है? इन दिनों संजय दत्त हर प्रकार के देवतओं के मंदिरों का दरवाजा खटखटा रहे हैं. उन्हें अमर्त्य देवताओं की सुध हथियार मामले में फंसने और जेल जाने के बाद आई. आजकल तो आए दिन वे किसी न किसी मंदिर के चौखटे पर दिखाई पड़ते हैं और हमारा मीडिया उनकी धार्मिक और धर्मभीरू छवि पेश कर खुश होता है. हाथ में बध्धी, माथे पर टीका और गले में धार्मिक चुनरी डाले संजय दत्त से सभी को सहानुभूति होती है. उन पर दया अ।ती है. चवन्नी को लगता है कि संजय दत्त इन धार्मिक यात्राओं से अपने मकसद में कामयाब हो रहे हैं. अगोचर देवता तो न जाने कब कृपा करेंगे? संसार के गोचर प्राणियों की धारणा है कि बेचारा संजू बाबा नाहक फंस गया. उसने जो अवैध हथियार रखने का अपराध किया है, उसकी सजा ज्यादा लंबी होती जा रही है. चवन्नी ने गौर किया है कि कानून की गिरफ्त में अ।ने के बाद संजू बाबा ने अपनी हिंदू पहचान को मजबूत किया है. उन्होंने मुसलमान दोस्तों से एक दूरी बनाई और सार्वजनिक स्थलों पर नजर आते समय हिंदू श्रद्धालु के रूप में ही दिखे. बहुत लोगों को लग सकता है कि यह कौन सी बड़ी बात हो गई

शुक्रवार ७ सितंबर

चवन्नी ने तय किया है कि आज से हर शुक्रवार को वह मुम्बई की फिल्म इंडस्ट्री में चल रही चर्चाओं और बदलती हवा के रुख़ की जानकारी आप को देगा.कल देर रात चवन्नी 'धमाल' के प्रीमियर से लौटा.मुम्बई के अंधेरी उपनगर के पश्चिमी इलाक़े में कई मल्टीप्लेक्स आ गए हैं.वहीँ फिल्मों के प्रीमियर हुआ करते हैं.वैसे प्रीमियर तो अब नाम भर ही रह गया है.ना वो पहले जैसा ताम-झाम बच गया है और ना लाव -लश्कर राग गया है.प्रीमियर पैसे बचाने का साधन बन गया है।खैर,कल रात 'धमाल' के प्रीमियर में संजय दत्त आये थे.एक तरह से कहें तो उनके जमानत पर छूटने की खुशी में ही इस प्रीमियर का आयोजन हुआ था.अगर आप को याद हो तो उनकी गिरफ्तारी के समय कई कार्यक्रम रद्द कर दिए गए थे.संजय दत्त आये थे.उन्होने काली बंडी पहन रखी थी.आप ने देखा होगा कि वह झूम कर चलते हैं.कल रात उनकी चाल में पुराना जोश नही था.कानून,जेल और सजा से लोग टूट जाते हैं.संजय के साथ जो हुआ और हो रह है उस पर फिर कभी.'धमाल' चवन्नी के ख़्याल से पहली हिंदी फिल्म है,जिस में कोई हीरोइन नही है.इसके पोस्टर पर भी मर्द ही मर्द हैं.है ना अजूबी बात.लेकिन इसका मतल

खोया खोया चांद और सुधीर भाई - 4

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सुधीर भाई की फिल्मों में पीरियड रहता है, लेकिन भावनाएं और प्रतिक्रियाएं समकालीन रहती हैं. सबसे अधिक उल्लेखनीय है उनकी फिल्मों का पॉलिटिकल अंडरटोन ... उनकी हर फिल्म में राजनीतिक विचार रहते हैं. हां, जरूरी नहीं कि उनकी व्याख्या या परसेप्शन से अ।प सहमत हों. उनकी 'हजारों ख्वाहिशें ऐसी' रियलिज्म और संवेदना के स्तर पर काफी सराही गयी है और हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के अधिकांश लोग बगैर फिल्म के मर्म को समझे ही उसकी तारीफ में लगे रहते हैं. होता यों है कि सफल, चर्चित और कल्ट फिल्मों के प्रति सर्वमान्य धारणाओं के खिलाफ कोई नहीं जाना चाहता. दूसरी तरफ इस तथ्य का दूसरा सच है कि अधिकांश लोग उन धारणाओं को ही ओढ़ लेते हैं. एक बार चवन्नी की मुलाकात किसी सिनेप्रेमी से हो गयी. जोश और उत्साह से लबालब वह महत्वाकांक्षी युवक फिल्मों में घुसने की कोशिश में है. वह गुरुदत्त, राजकपूर और बिमल राय का नाम लेते नहीं थ कता. चवन्नी ने उस से गुरुदत्त की फिल्मों के बारे में पूछा तो उसने 'कागज के फूल' का नाम लिया. 'कागज के फूल' का उल्लेख हर कोई करता है. चवन्नी ने सहज जिज्ञासा रखी, 'क्या अ।पने '

धन्य हैं देव साहेब!

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देव साहेब धन्य हैं.उनका निमंत्रण पत्र आया है.एसएमएस और ईमेल के ज़माने में उनहोंने हाथ से लिखा पत्र भेजा है.हाँ ,तकनीकी सुविधा का फायदा उठा कर उनहोंने यह पत्र स्कैन करवा कर भेजा है.आप इस पत्र को यहाँ पढ़ सकते हैं.चवन्नी ७ की शाम को बतायेगा कि उनहोंने चाय पर क्यों बुलाया था.उनकी सादगी देखिए,लिख रहे हैं अपने साथ चाय पीने का सौभाग्य दीजिए.