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आन बान और खान-सौम्‍या अपराजिता/रघुवेंद्र सिंह

देखते ही देखते सलमान खान की दबंग ने आमिर खान की 3 इडियट के बॉक्स ऑफिस कलेक्शन को पीछे छोड़ दिया। दबंग ने पहले हफ्ते में 81 करोड़ रुपए से अधिक का व्यवसाय किया, जबकि 3 इडियट ने 80 करोड़ रुपए की कमाई की थी। बॉक्स ऑफिस पर इस नए रिकॉर्ड को कायम कर सलमान ने आमिर से बाजी मारते हुए शाहरुख के लिए चुनौती पेश की है। रा.वन फिल्म से अब इस चुनौती पर खरा उतरना शाहरुख खान की आन, बान और शान के लिए जरूरी हो गया है। उनके सामने पहले ही हफ्ते में 80-81 करोड़ रुपए से अधिक कमाई करने की चुनौती रहेगी। [स्टार पॉवर की होगी परीक्षा] ''दबंग के रिकॉर्ड को शाहरुख अवश्य चुनौती के रूप में लेंगे। यह उनकी फितरत है। वे हर चीज को चुनौती के रूप में लेते हैं'', वरिष्ठ फिल्म पत्रकार मीना अय्यर के इस कथन से ज्ञात होता है कि दबंग से मिली चुनौती से शाहरुख खान भली-भांति वाकिफ हैं। जब भी सलमान या आमिर की कोई फिल्म बॉक्स ऑफिस पर सफलता के नए सोपान छूती है, तब उनके स्टार पॉवर की परीक्षा की घड़ी आ जाती है। ऐसा ही कुछ दबंग की रिलीज के बाद हो रहा है। ट्रेड व‌र्ल्ड एवं फिल्म इंडस्ट्री में इस बात पर बहस छिड़ चुकी है कि क्

बी आर चोपड़ा का सफ़र-प्रकाश के रे

भाग-7 नया दौर (1957) बी आर चोपड़ा की सबसे लोकप्रिय फ़िल्म है. इस फ़िल्म को न सिर्फ़ आजतक पसंद किया जाता है, बल्कि इसके बारे में सबसे ज़्यादा बात भी की जाती है. नेहरु युग के सिनेमाई प्रतिनिधि के आदर्श उदाहरण के रूप में भी इस फ़िल्म का ज़िक्र होता है. पंडित नेहरु ने भी इस फ़िल्म को बहुत पसंद किया था. लेकिन इस फ़िल्म को ख़ालिस नेहरूवादी मान लेना उचित नहीं है. जैसा कि हम जानते हैं नेहरु औद्योगिकीकरण के कट्टर समर्थक थे और बड़े उद्योगों को 'आधुनिक मंदिर' मानते थे, लेकिन यह फ़िल्म अंधाधुंध मशीनीकरण पर सवाल उठती है. और यही कारण है कि इसकी प्रासंगिकता आज भी बनी हुई है. बरसों बाद एक साक्षात्कार में चोपड़ा ने कहा था कि तब बड़े स्तर पर मशीनें लायी जा रही थीं और किसी को यह चिंता न थी कि इसका आम आदमी की ज़िंदगी पर क्या असर होगा. प्रगति के चक्के के नीचे पिसते आदमी की फ़िक्र ने उन्हें यह फ़िल्म बनाने के लिये उकसाया. फ़िल्म की शुरुआत महात्मा गांधी के दो कथनों से होती है जिसमें कहा गया गया है कि मशीन मनुष्य के श्रम को विस्थापित करने और ताक़त को कुछ लोगों तक सीमित कर देने मात्र का साधन नहीं होनी

..और भी फिल्में हुई हैं 50 की

-सौम्‍या अपराजिता इन दिनों मुगलेआजम के प्रदर्शन की स्वर्णजयंती मनायी जा रही है। हर तरफ इस फिल्म की भव्यता, आकर्षण और महत्ता की चर्चा हो रही है, पर क्या आपको पता है कि वर्ष 1960 में मुगलेआजम के साथ-साथ कई और क्लासिक फिल्मों के प्रदर्शन ने हिंदी सिनेमा को समृद्ध बनाया था। बंबई का बाबू, चौदहवीं का चांद, छलिया, बरसात की रात, अनुराधा और काला बाजार जैसी फिल्मों ने मधुर संगीत और शानदार कथ्य से दर्शकों का दिल जीत लिया था। आज भी जब ये फिल्में टेलीविजन चैनलों पर दिखायी जाती हैं, तो दर्शक इन क्लासिक फिल्मों के मोहपाश में बंध से जाते हैं। 'छलिया मेरा नाम.हिंदू मुस्लिम सिख ईसाई सबको मेरा सलाम' इस गीत से बढ़कर सांप्रदायिक सौहा‌र्द्र का संदेश क्या हो सकता है? एक साधारण इंसान के असाधारण सफर की कहानी बयां करती छलिया को राज कपूर, नूतन और प्राण ने अपने बेहतरीन अभिनय और मनमोहन देसाई ने सधे निर्देशन से यादगार फिल्मों में शुमार कर दिया। प्रयोगशील सिनेमा की तरफ राज कपूर के झुकाव की एक और बानगी उसी वर्ष जिस देश में गंगा बहती है में दिखी। राज कपूर-पद्मिनी अभिनीत और राधु करमाकर निर्देशित इस फिल्म को उस

लाइट और ग्रीन रूम की खुशबू खींचती थी मुझे: संजय लीला भंसाली

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खूबसूरत सोच और छवियों के निर्देशक संजय लीला भंसाली की शैली में गुरुदत्त और बिमल राय की शैलियों का प्रभाव और मिश्रण है। हिंदी फिल्मों के कथ्य और प्रस्तुति में आ रहे बदलाव के दौर में भी संजय पारंपरिक नैरेटिव का सुंदर व परफेक्ट इस्तेमाल करते हैं। उनकी फिल्मों में उदात्तता, भव्यता, सुंदरता दिखती है। उनके किरदार वास्तविक नहीं लगते, लेकिन मन मोहते हैं। उनकी अगली फिल्म गुजारिश जल्द ही रिलीज होगी। उसमें रितिक रोशन व ऐश्वर्या राय प्रमुख भूमिकाओं में हैं। आज के संजय लीला भंसाली को सभी जानते हैं। हम उन्हें यादों की गलियों में अपने साथ उनकी पहली फिल्म खामोशी से भी पहले के सफर पर ले गए। बचपन कहां बीता? कहां पले-बढे? बचपन मुंबई में ही बीता। सी पी टैंक, भुलेश्वर के पास रहते थे। किस ढंग का इलाका था? मम्मी-डैडी के अलावा मैं, बहन व दादी थे। वार्म एरिया था। चॉल लाइफ थी, लेकिन अच्छी थी। आजकल हम जहां रहते हैं, वहां नीचे कौन रहता है इसका भी पता नहीं होता। वहां पूरे मोहल्ले में, रास्ते में, गली में सब एक-दूसरे को जानते थे। स्कूलिंग कैसी हुई? अंग्रेजी माध्यम, हिंदी

दिब्येन्दु को मिली पहचान

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दिब्येन्दु को मिली पहचान यह तय था कि सिद्धार्थ श्रीनिवासन की फिल्म पैरों तले का व‌र्ल्ड प्रीमियर टोरंटो इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में होगा। इस फिल्म में दिब्येन्दु भट्टाचार्य शीर्ष भूमिका में हैं। उन्होंने दीन-हीन चौकीदार का रोल बखूबी निभाया है, जो मौका आने पर उठ खड़ा होता है। वह जाहिर करता है कि सालों की गुलामी के बावजूद उसके अंदर का इंसान जिंदा है, जो अच्छे-बुरे और सच्चे-झूठे के बीच का फर्क जानता है। पैरों तले ने दिब्येन्दु को इंटरनेशनल पहचान दी है। टोरंटो में भारत की चार फिल्मों में से एक पैरों तले को फिल्म फेस्टिवल के दर्शकों ने खूब सराहा और दिब्येन्दु के स्वाभाविक अभिनय की तारीफ की। इंटरनेशनल समीक्षकों ने आश्चर्य व्यक्त किया कि इतने उम्दा ऐक्टर की भारत में कोई खास पहचान नहीं है। एनएसडी से स्नातक दिब्येन्दु भट्टाचार्य ने मानसून वेडिंग से फिल्मों में काम आरंभ कर दिया था। मीरा नायर की उस फिल्म में वे चंद सेकेंड के लिए दिखे थे। इस फिल्म के अनुभव के बाद ही उन्होंने फिल्मों में आने का इरादा किया और फिर मुंबई आए। राजपाल यादव के सहपाठी रहे दिब्येन्दु ने मुंबई आने में थोड़ी देर की और उनका क

कश्यप बंधु की कामयाबी

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कश्यप बंधु की कामयाबी दस सितंबर को अभिनव सिंह कश्यप की फिल्म दबंग देश-विदेश में रिलीज हुई और पहले ही दिन दर्शकों की भीड़ की वजह से हिट मान ली गई। ईद के मौके पर रिलीज हुई सलमान खान की इस फिल्म के प्रति पहले से दर्शकों की जिज्ञासा बढ़ी थी। संयोग ऐसा रहा कि फिल्म ने आम दर्शकों को संतुष्ट किया। यह फिल्म मल्टीप्लेक्स के साथ सिंगल स्क्रीन थिएटर में भी चल रही है। दबंग की कामयाबी ने अभिनव को पहली ही फिल्म से सफल निर्देशकों की अगली कतार में लाकर खड़ा कर दिया है। ताजा खबर है कि उन्हें अगली फिल्मों के लिए पांच करोड़ से अधिक के ऑफर मिल रहे हैं। शायद आप जानते हों कि अभिनव चर्चित निर्देशक अनुराग कश्यप के छोटे भाई हैं। अनुराग भी अलग किस्म से सफल हैं, लेकिन उन्हें पांच फिल्मों के बाद भी दबंग जैसी कॉमर्शियल कामयाबी नहीं मिली है। वे ऐसी सफलता की बाट जोह रहे हैं, लेकिन दूसरे स्तर पर उनकी कामयाबी भी कई फिल्मकारों के लिए ईष्र्या का कारण बनी हुई है। वे अपनी विशेष फिल्मों की वजह से मशहूर हैं। जिस हफ्ते अभिनव की फिल्म दबंग देश-विदेश में रिलीज हुई। ठीक उन्हीं दिनों अनुराग की फिल्म दैट गर्ल इन येलो बूट्स वेनिस

बदलता दौर, बदलते नायक-मंजीत ठाकुर

भारत में सिनेमा जब शुरु हुआ, तो फिल्में मूल रुप से पौराणिक आख्यानों पर आधारित हुआ करती थीं। लिहाजा, हमारे नायक भी मूल रुप से हरिश्चंद्र, राम या बिष्णु के किरदारों में आते थे। पहली बोलती फिल्म ‘ आलम आरा ’ (1931) के पहले ही हिंदी सिनेमा की अधिकांश परिपाटियाँ तय हो चुकी थीं, लेकिन जब पर्दे पर आवाज़ें सुनाई देने लगीं तो अभिनेताओं के चेहरों और देह-भाषा के साथ अभिनय में गले और स्वर की अहमियत बढ़ गई। 1940 का दशक हिंदी सिनेमा का एक संक्रमण-युग था। वह सहगल , पृथ्वीराज कपूर , सोहराब मोदी , जयराज , प्रेम अदीब , किशोर साहू , मोतीलाल , अशोक कुमार सरीखे छोटी-बड़ी प्रतिभाओं वाले नायकों का ज़माना था तो दूसरी ओर दिलीप कुमार , देव आनंद , किशोर कुमार और भारत भूषण जैसे नए लोग दस्तक दे रहे थे। पारसी और बांग्ला अभिनय की अतिनाटकीय शैलियां बदलते युग और समाज में हास्यास्पद लगने लगीं , उधर बरुआ ने बांग्ला ‘ देवदास ’ में नायक की परिभाषा को बदल दिया। अचानक सहगल और सोहराब मोदी जैसे स्थापित नायक अभिनय-शैली में बदलाव की वजह से भी पुराने पड़ने लगे। मोतीलाल और अशोक कुमार पुराने और नए अभिनय के बीच क